सम्पादकीय

गिरती साख पर बार-बार बट्टा

Rani Sahu
30 Sep 2021 8:15 AM GMT
गिरती साख पर बार-बार बट्टा
x
के मास्टर स्ट्रोक के कुछ दिनों बाद ही कांग्रेस फिर समस्याओं व चुनौतियों से जूझती नजर आ रही है

रशीद किदवई। के मास्टर स्ट्रोक के कुछ दिनों बाद ही कांग्रेस फिर समस्याओं व चुनौतियों से जूझती नजर आ रही है। इसका सबसे बड़ा कारण राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की राजनीतिक अनुभवहीनता और कुछ हटकर दिखाने की लालसा है। तिकड़म, जोड़-तोड़, राजनीतिक पैंतरेबाजी और चाणक्य नीति के अभाव से कांग्रेस कुछ दयनीय स्थिति में दिख रही है। राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष का पद ग्रहण किए बिना पार्टी में आमूल-चूल बदलाव लाकर 'नई कांग्रेस' बनाना चाह रहे हैं। 1969 या 1977 के विपरीत 2014 से अब तक की विषम परिस्थितियों में कांग्रेस में विद्रोह या विभाजन नहीं हुआ, न ही कांग्रेस के लोकसभा चुनाव की अपमानजनक हार का ठीकरा फोड़ा गया। फलस्वरूप अधिकांश कांग्रेस जन आत्मविश्वास खो चुके हैं और व्यक्तिगत संवाद में नरेंद्र मोदी से ज्यादा अपनी पार्टी के नेताओं को कांग्रेस की गिरती साख का जिम्मेदार मानतेेहैं। अंग्रेजी की कहावत 'हैप्पी टु बी अनहैप्पी' अधिकांश कांग्रेस जन की मनोदशा बयां करती है।

यदि राहुल व प्रियंका गांधी 1979 में संजय गांधी द्वारा इंदिरा गांधी और कांग्रेस की वापसी के लिए किए गए प्रयासों का अध्ययन करें, तो उन्हें ज्ञात होगा कि केवल विपक्ष या दूसरी विचारधारा के लोगों को अपनी पार्टी में भर लेने से कोई समाधान हाथ नहीं लगता। संजय गांधी ने 1979 में राजनारायण और चरण सिंह को मोरारजी देसाई के विरुद्ध इस्तेमाल किया और जनता पार्टी को दो फाड़ करने में सफल हुए। इसी प्रकार, गुजरात नवनिर्माण आंदोलन के कुछ बडे़ नेता संजय से मिले और कांग्रेस में शामिल होने का आग्रह किया। संजय ने बड़ी चतुराई से गुजरात नवनिर्माण आंदोलन के नेताओं से कांग्रेस से बाहर रहकर देसाई की जनता पार्टी का विरोध करने को कहा, जिससे उनकी राजनीतिक साख को बट्टा न लगे। कांग्रेस ने क्षत्रिय, हरिजन आदिवासी और मुस्लिमों का सामाजिक गठजोड़ बनाकर सत्ता में जोरदार वापसी की।
आज बाहर से आने वालों के प्रति राहुल गांधी का प्रेम और आकर्षण जगजाहिर है। विभिन्न राज्यों में पार्टी पदाधिकारियों की सूची पर सरसरी नजर डालें, महाराष्ट्र प्रदेश अध्यक्ष नाना पटोले, अनुमुला रेवंत रेड्डी- तेलंगाना प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष, नवजोत सिद्ध- पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष, हार्दिक पटेल- गुजरात कांग्रेस कार्यकारी अध्यक्ष, उदित राज- चेयरमैन, दलित प्रकोष्ठ ऑल इंडिया कांग्रेस पार्टी, जिग्नेश मेवानी, कन्हैया कुमार जैसे अनेक उदाहरण हैं, जब राहुल ने कांग्रेस के वफादार व निष्ठावान नेताओं को दरकिनार करते हुए बाहरी व्यक्तियों को सम्मान और पद से नवाजा है।
वर्तमान स्थिति में राहुल और प्रियंका के लिए पंजाब, राजस्थान और छत्तीसगढ़ एक अग्नि परीक्षा के समान हैं, जिसमें उन्हें खरा उतरना है। सिद्धू यदि सही में कांग्रेस के लिए राजनीतिक पूंजी हैं, तो उनको विश्वास में लेकर चलना होगा। पंजाब मंत्रिमंडल के गठन में मुख्यमंत्री चन्नी को उन्हें विश्वास में लेना चाहिए था। यदि पार्टी पंजाब चुनाव में वास्तव में अमरिंदर सिंह से दूरी बनाना चाहती है, तो उनके सहयोगियों को राजनीतिक महत्व क्यों? अमरिंदर ने जिस तरह से अपनी ही पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष को पाकिस्तान का एजेंट या राष्ट्रीय सुरक्षा का खतरा बताया था, तभी उनको 'कारण बताओ' नोटिस जारी करना चाहिए था। अनुशासन और मर्यादा का दायरा सब पर एक सामान लागू होना चाहिए। राजनीतिक मनमुटाव एक चीज है और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष को बिना प्रमाण कोई तमगा देना बिल्कुल अलग बात है। दरअसल, अमरिंदर को लेकर अंतर्विरोध व ऊहापोह सोनिया गांधी व राहुल-प्रियंका की कार्यशैली के अंतर को दर्शाता है। कांग्रेस के लिए सोनिया का सक्रिय राजनीति से अलग होना बड़ी जरूरत बन गई है, जिसकी चर्चा पार्टी के अंदर या बाहर न के बराबर है।
सोनिया गांधी की राजनीतिक शैली सबको साथ लेकर चलने और तालमेल बिठाने की है। ये प्रयास यूपीए दौर में बड़े मुफीद साबित हुए थे, लेकिन नई कांग्रेस की राह और राहुल-प्रियंका की आक्रामक शैली में यह पैबंद समान दिखता है। जी-23 असंतुष्टों का समूह भी इसी अंतरद्वंद्व का लाभ उठा अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहा है। स्मरण रहे, इंदिरा गांधी जवाहरलाल नेहरू की बेटी होने के बावजूद राजनीतिक सोच और फैसलों में पिता से बिल्कुल भिन्न थीं। संजय और राजीव भी इंदिरा गांधी के बेटे होने के बावजूद अलग किस्म की राजनीति करते नजर आए। राजीव, संजय भाई होने के बावजूद बिल्कुल अलग व्यक्तित्व के राजनेता थे। इसी प्रकार, सोनिया गांधी के कामकाज का स्टाइल अपने पति से भिन्न रहा। यदि राहुल और प्रियंका गांधी की राजनीतिक सोच सोनिया से मेल नहीं खाती, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
राहुल गांधी को चाहिए था कि पंजाब के मामले में सिद्धू को निर्देश व सलाह देते कि राज्य में जो स्थिति उन्होंने बनाई है, उसका हल भी खुद ही निकालें। हर मुद्दे पर स्पष्टता से बोलने वाले सिद्धू को बताना होगा कि उन्होंने किन कारणों से पार्टी प्रदेश अध्यक्ष का पद छोड़ा? अगर ऐसा नहीं होता है, तो यह स्पष्ट है कि वह पूर्ण रूप से महत्वाकांक्षा के साथ-साथ मृगतृष्णा, आत्ममुग्धता के शिकार हैं। पंजाब का भविष्य बनाने का जो दावा सिद्धू करना चाहते हैं, उसके लिए उन्हें भी सरदार भगत सिंह जैसे हौसले और हिम्मत से खुद को पारदर्शी बनाना चाहिए, वरना भाग्य विधाता बनने के स्वांग से वह पंजाब को अराजकता के दौर में धकेल देंगे। इसी तरह, राजस्थान के राजनीतिक संकट का तुरंत समाधान होना चाहिए। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत द्वारा लगातार शह-मात का खेल कांग्रेस को राज्य में कमजोर कर रहा है। यदि राहुल और प्रियंका गांधी ने सचिन पायलट को ठोस आश्वासन दिए थे, तो उन्हें तुरंत पूरा करना चाहिए और ऐसे प्रयास करने चाहिए कि कांग्रेस राज्य में 2023 में वापसी करे। कोई भी व्यक्ति संगठन से बड़ा नहीं है और यह संदेश साफ शब्दों में जाना चाहिए। पार्टी में संवादहीनता चरम पर है। अब जब कोविड-19 का प्रकोप कम होता लग रहा है, तब सोनिया गांधी को तुरंत ऑल इंडिया कांग्रेस समिति का अधिवेशन बुलाकर विचारधारा व नेतृत्व के मामले को पार्टी के समक्ष रखना चाहिए। इस कदम से कांग्रेस व नेहरू-गांधी परिवार और मजबूत, दृढ़ निश्चयी के साथ-साथ राजनीतिक लक्ष्यों के प्रति सजग व प्रेरित नजर आएगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


Next Story