सम्पादकीय

अमृत काल में विरासत का स्मरण, अथाह ज्ञान की स्रोत हैं प्राचीन भारतीय परंपराएं

Gulabi Jagat
14 May 2022 6:11 AM GMT
अमृत काल में विरासत का स्मरण, अथाह ज्ञान की स्रोत हैं प्राचीन भारतीय परंपराएं
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अमृत काल में विरासत का स्मरण
गोविंद मोहन। एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में हमारा इतिहास करीब साढ़े सात दशक पुराना है, लेकिन हमारी सभ्यता 5,000 वर्ष से भी अधिक प्राचीन है। कहने की आवश्यकता नहीं कि भारत के खाते में अनगिनत उपलब्धियां हैं। उनके स्मरण के लिए इससे बेहतर और क्या अवसर हो सकता है जब हम अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। केवल इस दिशा में ठोस और एकजुट प्रयास किए जाने की आवश्यकता है।
'धारा: भारतीय ज्ञान प्रणाली के प्रति समर्पित एक कविता' इस दिशा में संस्कृति मंत्रालय की एक प्रमुख पहल है। इसकी संकल्पना व्याख्यान प्रदर्शनों की एक श्रृंखला के रूप में की गई है, जो जानकारी जुटाने और विभिन्न क्षेत्रों में भारत के योगदान और उसकी उपलब्धियों पर प्रकाश डालने के प्रति समर्पित है। धारा एक युग से दूसरे युग में सूचना और ज्ञान के 'निरंतर प्रवाह' के विचार का प्रतीक है, जिसे समय के साथ अपनाया, परखा और विकसित किया गया है ताकि हम विभिन्न क्षेत्रों में ज्ञान के अगले स्तर पर आगे बढ़ सकें।
प्राचीन काल से संबंधित विषयों से जुड़े प्रयास अक्सर विश्वसनीय और ठोस प्रमाणों के अभाव में ध्रुवीकरण की प्रतिक्रियाएं सामने लाते हैं। ऐसे में कार्यक्रम के निर्धारण में हमारा प्रयास इस पहलू को लेकर सजग है। साथ ही इन चर्चाओं में अकाट्य तर्क और वैज्ञानिक विश्वसनीयता को जोड़ने के लिए उच्चतम क्षमता के अकादमिक विद्वानों को लाने के व्यवस्थित प्रयास किए जा रहे हैं। प्राचीनता के वैभव के संदर्भ में बात करें तो आधुनिक अवधारणाओं के विकास में इसका महत्व रहा है। इस संबंध में कुछ उदाहरणों पर विचार करना उपयोगी होगा।
आधुनिक गणित की अवधारणाओं का ही उदाहरण लें तो उनके बिना आधुनिक विश्व के विकास की कल्पना असंभव है। हालांकि ये अवधारणाएं वास्तव में आधुनिक नहीं हैं। कई सदियों पहले भारत में ही इनका जन्म हुआ था। ग्रीक गणितज्ञ आर्किमिडीज ही थे, जिन्होंने आधुनिक विश्व के लिए एक अनंत श्रृंखला का पहला ज्ञात योग तैयार किया था। माधव ने पाई की अनुमानित वैल्यू का पता लगाने के लिए इसका उपयोग किया था। अरबी अंक प्रणाली की उत्पत्ति बख्शाली पांडुलिपि से हुई है, जिसमें भारतीय अंक प्रणाली का पहला प्रचलित संदर्भ मिलता है।
यह प्रणाली लगभग 800 ईस्वी तक अरबों के बीच पहुंच चुकी थी और फारसी गणितज्ञ अल-ख्वारिज्मी और दार्शनिक अल-किंदी ने इसे लोकप्रिय बनाया। अरबों से लगभग 1100 ईस्वी तक यह यूरोप में फैल चुकी थी। ब्रrागुप्त ने ही सातवीं शताब्दी में यह सिद्ध किया था कि एक ऋण (ऋणात्मक संख्या) और एक धन (धनात्मक संख्या) का फल ऋण (ऋणात्मक संख्या) होता है। इसी तरह चाहे फिबोनाची श्रृंखला (विरहंका का समाधान कार्य) हो या पास्कल का त्रिभुज, आधुनिक गणित में प्राचीन भारत का योगदान प्रभावी और निरंतर बना रहा। अंतरिक्ष विज्ञान जैसे एक और जटिल क्षेत्र की बात करें तो प्रसिद्ध खगोलशास्त्री कार्ल सेगन ने बताया कि हिंदू धर्म से जुड़े प्राचीन ब्रह्मांड संबंधी विचार ही आधुनिक ब्रह्मांड विज्ञान के आधार हैं। उन्होंने कहा, 'हिंदू धर्म ही एकमात्र धर्म है, जो मानता है कि ब्रह्मांड स्वयं एक असीम, वास्तव में अनंत, अनेकानेक मृत्यु और पुनर्जन्म से गुजरता है।' इसे ही आज हम बहुविविध सिद्धांत के रूप में जानते हैं।
हम सभी जानते हैं कि भारत व्यापार का प्रमुख केंद्र रहा है, लेकिन एक विनिर्माण केंद्र के रूप में भारत की चर्चा कम ही मिलती है। दमिश्क की तलवारें, जिनमें 1.5-2.0 प्रतिशत तक कार्बन की अधिक मात्र होती है और जिन्हें महीन कपड़े के रूमाल को भी काटने की क्षमता के लिए जाना जाता है, भारत में वुट्ज स्टील से बनाई गई थीं। 19वीं सदी तक लाहौर, अमृतसर, आगरा, जयपुर, ग्वालियर और गोलकुंडा जैसे कई केंद्रों पर वुट्ज स्टील की तलवारें और खंजर बनाए जाते थे। कार्बन नैनोट्यूब संरचनाओं वाला वुट्ज स्टील आज भी शोधकर्ताओं को प्रेरित करता है। 19वीं शताब्दी के मध्य में अंग्रेजों की ओर से निर्माण प्रक्रिया पर जबरन प्रतिबंध लगा दिया गया था, जिससे यह कला समाप्त हो गई थी। ऐसी कई निर्माण कलाएं एवं क्षमताएं हैं, जो विलुप्ति के कगार पर हैं या अन्य समाजों की ओर से उन्हें अपना दिखाकर पेश किया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का महत्वाकांक्षी कार्यक्रम मेक इन इंडिया हमारी स्वदेशी विनिर्माण क्षमताओं में नई जान फूंकने की दिशा में उठाया गया बहुप्रतीक्षित कदम ही है।
आधुनिक अर्थशास्त्र के संस्थापक स्तंभों में से एक जोखिम और वापसी का निरंतर अनुकूलन है, जो अंतर (डिफरेंशियल) ब्याज दर के सिद्धांत को संचालित करने वाला मूल विचार है। पश्चिम में जहां कुछ विचारकों ने उधार लेने पर ब्याज (इसे एक पाप करार देते हुए) को निषिद्ध कर दिया। वहीं कौटिल्य जैसे प्राचीन दार्शनिकों ने ब्याज दरों की हिमायत की, जिसमें जोखिम के साथ अंतर था।
शुक्रनीति नामक ग्रंथ बताता है कि उधारकर्ता और ऋणदाता के बीच नैतिक जोखिम और प्रतिकूल चयन के मुद्दों को संतुलित करने की आवश्यकता है। इसमें कहा गया है कि अगर भुगतान किया गया ब्याज मूलधन के दोगुने से अधिक था तो केवल मूलधन का भुगतान किया जाएगा। शुक्रनीति में इस बात पर भी जोर है कि विश्लेषण की इकाई के रूप में एक व्यक्ति के बजाय एक घर पर विचार किया जाए। जब पूरा देश अमृत महोत्सव के उत्साह से ओतप्रोत है तो इस अवसर पर संस्कृति मंत्रलय भी सभी क्षेत्रों में भारतीयों के व्यापक योगदान को प्रकाश में लाने और उनका उत्सव मनाने के लिए प्रतिबद्ध है।
(लेखक केंद्रीय संस्कृति मंत्रलय में सचिव हैं)
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