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आज फादर्स डे है। पापा अश्विनी कुमार की याद आना स्वाभाविक है।
आदित्य चोपड़ा |
''तन्हाई में जब बीते लम्हों की याद आती है,
क्या कहें जिस्म से जान चली जाती है।
यूं तो पापा बहुत दूर चले गए हम से,
यह आंखें बंद करें तो सूरत उनकी नजर आती है।''
आज फादर्स डे है। पापा अश्विनी कुमार की याद आना स्वाभाविक है। मैं और दोनों छोटे भाई आकाश और अर्जुन आज महसूस करते हैं कि हमें रखा छांव में खुद जलते रहे धूप में, हमने देखा है ऐसा एक फरिश्ता एक पिता के रूप में। आज हमारे पास उनके आदर्श हैं, उनके संस्कार हैं और उनके द्वारा छोड़ी गई पत्रकारिता की विरासत है। जब वे हमारे साथ थे हम उन्हें 'हैप्पी फादर्स डे' कहकर दिन की शुरूआत करते थे। वो हंसते थे यह अंग्रेजों का है, हमारे भारत में तो रोज फादर डे होता है, क्योंकि मैं तो हमेशा तुम्हारे साथ होता हूं और रहूंगा। यह उनके लिए है जिनके पिता साथ नहीं रहते।
अब वे भौतिक रूप से हमारे साथ नहीं हैं परन्तु हमारे साथ हैं। हमें अपनी मां में दोनों का रूप दिखता है, मां और पिता का भी। क्योंकि दोनों का एक-एक मिनट का साथ था और मां कहती हैं जो भी मैंने जिन्दगी में सीखा उन्हीं से सीखा, वे पति के साथ-साथ मेरे गुरु भी थे।
हमें उनके गुणों का अहसास हो रहा है। वे हमारे लिए एक पिता ही नहीं सबसे अच्छे दोस्त भी थे। हमें जिन्दगी में कभी हताश न होकर हमेशा आगे बढ़ने की प्रेरणा देते थे। जिस तरह हर बच्चा अपने पता के ही सारे गुण सीखता है जो उसे जीवन भर परिस्थितियों के अनुसार ढलने के काम आते हैं। उस तरह हम भी पिता से ही सीख कर परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए ढल चुके हैं। पापा के गुणों में धैर्य, संयम, गम्भीरता, प्रेम और कर्त्तव्यनिष्ठा कूट-कूट कर भरी थी।
कई बार हम परिवार के साथ विदेश यात्रा पर गए। विदेश यात्रा के दौरान हमने पापा को एक आनंदित मनुष्य के रूप में देखा। उनके चेहरे पर हमेशा हंसी और शरारत भरी मुस्कान भी देखी। उनके पास सदैव हमें देने के लिए ज्ञान का अमूल्य भंडार था, जो कभी खत्म नहीं होता था। उन्हें राजनीति की अच्छीखासी समझ और विदेशी मामलों का बहुत ज्ञान था। उनकी सोच बहुत दूरगामी थी। तभी तो उन्होंने अपनी लेखनी का सिक्का जमाया और लाखों पाठकों को अपने सम्पादकीयों का दीवाना बनाया। उन्होंने ही हमें शिष्टाचार, मानवता और नैतिकता के बारे में सिखाया। सबसे बड़ी बात वे हमेशा संयमित होकर व्यवहार कुशलता के साथ हर कार्य को सफलतापूर्वक करते थे। क्रिकेट खेली तो अपनी गेंदों का कौशल दिखाया, कलम से आतंकवाद से टक्कर ली तो बड़ी मजबूती के साथ। उन्होंने देश को कलम की ताकत का अहसास कराया बल्कि यह दिखाया कि निष्पक्ष और ईमानदारी से पत्रकारिता किस साहस के साथ की जाती है यह गुण भी उन्हें अपने दादा अमर शहीद लाला जगत नारायण जी और पिता रमेश चन्द्र जी से ही विरासत में मिला।
हमारी मां किरण चोपड़ा भी स्वीकार करती हैं कि पापा के रूप में एक मार्गदर्शक मिला था। जिन्हें पारिवारिक मूल्यों, मानवीय मूल्यों और नैतिक मूल्यों का हमेशा पालन किया और पत्रकारिता जीवन में उन्होंने अग्निपथ पर चलना स्वीकार किया। कोई और होता तो अपने कर्त्तव्यपथ से विचलित हो जाता। वे एक ऐेसे इंसान थे जो समाज में या राह चलते कहीं भी जरूरतमंदों की मदद करते रहे। वे हमेशा मेरी मां और हमें सिखाते रहे कि कैसे एक बेहतर इंसान बनना है। यह पापा की प्रेरणा ही थी कि आज हमारी मां किरण चोपड़ा ने वरिष्ठ नागरिक केसरी क्लब के रूप में अपना एक बड़ा परिवार स्थापित कर लिया है। पापा की ही प्रेरणा से वह समाज में सक्रिय भागीदारी निभा रही हैं। कोरोना काल के खौफनाक दिनों में भी वह समाज से जुड़ी हुई हैं। उन्हीं का दिखाया हुआ मार्ग है कि मुझे अपने छोटे भाइयों अर्जुन, आकाश जिन्हें पिता के प्यार की बहुत जरूरत थी, जिनकी जिम्मेदारियां अभी बाकी थीं। मुझे वह अपने बच्चों जैसे लगते हैं। हम आज उनकी पत्रकारिता की विरासत को सम्भाल रहे हैं तो यह पापा का ही आशीष है। माता-पिता के आशीषों के हाथ हजारों हाथ होते हैं।
Triveni
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