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फ्रांस का प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह इस महीने (17-28 मई) 75 वीं वर्षगांठ मना रहा है, वहीं भारत अपनी आजादी का अमृत महोत्सव भी मना रहा है
अरविंद दास
फ्रांस का प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह इस महीने (17-28 मई) 75 वीं वर्षगांठ मना रहा है, वहीं भारत अपनी आजादी का अमृत महोत्सव भी मना रहा है. स्वतंत्र भारत का सांस्कृतिक इतिहास सिनेमा के बिना नहीं लिखा जा सकता है. खास कर हिंदी सिनेमा (बॉलीवुड) की इसमें बड़ी भूमिका रही है. इस साल कान समारोह में भारत को 'ऑनर ऑफ कंट्री' के रूप में शामिल किया गया है. यह एक नई परंपरा की शुरुआत है, जिससे कान के फिल्म बाजार में फिल्मकारों को नेटवर्किंग का मौका मिलेगा. साथ ही कई भारतीय फिल्में भी यहाँ दिखाई जाएंगी.
इन सबके बीच यह याद करना जरूरी है कि वर्ष 1946 में जब कान फिल्म समारोह की शुरुआत हुई, उसी वर्ष भारतीय फिल्मों की 'कान यात्रा' शुरु हो गई थी. कान में उस साल चेतन आनंद के निर्देशन में बनी फिल्म 'नीचा नगर' को प्रतिष्ठित 'पाम डी ओर' पुरस्कार दिया गया था (उस समय इसे ग्रांड पिक्चर पुरस्कार कहा जाता था). 'नीचा नगर' भारत की एकमात्र ऐसी फिल्म है, जिसे यह सम्मान हासिल है.
वर्तमान में इस फिल्म को कोई याद नहीं करता. सिनेमा के इतिहासकारों की नजर से भी यह वर्षों ओझल ही रहा है. जबकि वर्ष 1946 में ही रिलीज हुई ख्वाजा अहमद अब्बास की बंगाल के अकाल पर बनी फिल्म 'धरती के लाल' और 'नीचा नगर' ने भारतीय सिनेमा में एक ऐसी नव-यथार्थवादी धारा की शुरुआत की जिसकी धमक देश-दुनिया में सुनी गई. बाद में जाकर विमल राय ने 'दो बीघा जमीन' (1953) में और सत्यजीत रे ने 'पाथेर पांचाली' (1955) में सामाजिक यथार्थ को संवेदनशीलता के साथ चित्रित किया. उल्लेखनीय है कि इन दोनों फिल्मों ने भी कान समारोह में सुर्खियाँ बटोरी थी. इस बार भी रे की फिल्म प्रतिद्वंदी (1970) (नवीनीकृत प्रिंट) कान समारोह में विशेष रूप से दिखाई जाएगी.
'नीचा नगर' के निर्माण के प्रसंग का जिक्र बलराज साहनी ने 'मेरी फिल्मी आत्मकथा' में विस्तार से किया है. उन्होंने चेतन आनंद को उद्धृत करते हुए लिखा है कि चेतन ने उनसे कहा था- "इस समय आजाद प्रोड्यूसर अस्तित्व में आया है. इस अस्थिर सी परिस्थिति की आशावादी संभावनाएँ भी हैं. इस समय अच्छे सुशिक्षित और प्रगतिशील लोग अगर हिम्मत करें तो फिल्म-इंडस्ट्री को पहले से अधिक यथार्थवादी मोड़ दे सकते हैं." चेतन आनंद इस फिल्म के लिए बलराज साहनी को लेना चाहते थे, पर फिल्म बनाने के लिए उस वक्त ब्रिटिश सरकार से लाइसेंस मिलता था. एक लाइसेंस रफीक अनवर को मिला था और इस शर्त पर कि वे खुद इस फिल्म के हीरो होंगे उन्होंने चेतन आनंद को फिल्म निर्देशित करने का मौका दिया था. बहरहाल, यह फिल्म इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) से प्रभावित थी. उस दौर में प्रगतिशील, वामपंथी विचारधारा में आस्था रखने वाले अनेक संस्कृतिकर्मी बंबई (मुंबई) फिल्म उद्योग में मौजूद थे. मुंबई में वर्ष 1943 में भारतीय जन नाट्य संघ-'इप्टा' का गठन हुआ. इप्टा का उद्देश्य जन संस्कृति का प्रसार और उसके माध्यम से फासीवाद और साम्राज्यवाद से लड़ाई लड़ना था. प्रसंगवश, इप्टा नाम रोम्यां रोलां की चर्चित किताब 'पीपुल्स थिएटर' पर आधारित है.
'धरती के लाल' का निर्माण 'इप्टा' ने ही किया था, जिसमें बलराज साहनी की भी भूमिका थी. 'धरती के लाल' की तरह ही 'नीचा नगर' फिल्म में भी संगीत सितार वादक 'रवि शंकर' ने दिया था, जो इप्टा से जुड़े थे. यह उनकी पहली फिल्म थी. 'हम रुकेंगे भी नहीं' गाने के संगीत और फिल्मांकन में अहिंसक प्रतिरोध और स्वतंत्रता की अनुगूंज मुखर रूप से सुनाई देती है. यहाँ मशाल लिए स्त्री और पुरुष एक साथ कदमताल कर रहे हैं.
'नीचा नगर' फिल्म की कहानी एक उद्योगपति सरकार (रफी पीर), जो ऊंचा नगर में रहता है और नीचा नगर में रहने वाले गरीबों के इर्द-गिर्द घूमती है. सरकार चाहता है कि एक नाला नीचा नगर की ओर मोड़ दिया जाए. गाँव के लोगों के जमीन पर उसकी नजर है. गाँव के लोग इसके विरोध में उठ खड़े होते हैं. नाला की वजह से बीमारी फैलती है और महामारी का रूप ले लेती है. गाँव वाले सरकार के बनाए अस्पताल में जाने को मजबूर होते हैं, पर बलराज की बहन रूपा उस अस्पताल में जाने से मना कर देती है और दम तोड़ देती है. गाँव वालों के इस संघर्ष में सरकार की बेटी माया भी साथ देती है. फिल्म में नीचा नगर के लोगों का 'जालिम सरकार हाय हाय' का नारा दोअर्थी है. सरकार एक पात्र नहीं, प्रतीक है यहाँ. ध्यान रहे की यह फिल्म ब्रिटिश हुकूमत के दौर में बनी थी! फिल्म की विषय-वस्तु आज भी प्रासंगिक है.
बकौल बलराज साहनी, चेतन आनंद 'नीचा नगर के माध्यम से आर्थिक वर्गों की मुठभेड़ की कहानी कहना चाहते थे'. इस फिल्म में उनकी समाजवादी चेतना दिखाई देती है. चेतन आनंद सिनेमा को 'जन माध्यम मानते हुए इसमें जन समुदाय को शामिल करने पर जोर देते थे'. फिल्म निर्माण के दौरान देश में आजादी के लिए उथल-पुथल मचा था. महात्मा गाँधी पटल पर छाए हुए थे. फिल्म में गाँधी टोपी पहने बलराज (अनवर) और चरखा चलाती रूपा (कामिनी कौशल) दिखाई देती हैं.
आजादी के बाद हिंदी सिनेमा उद्योग में सामाजिक यथार्थ की इस धारा पर बड़ी पूंजी हावी रही, मनोरंजन का तत्व केंद्र में रहा. साथ ही व्यावसायिक सिनेमा में बलराज साहनी जैसे अदाकारों पर 'स्टार' भारी पड़े, चेतन आनंद जैसे निर्देशित हाशिए पर चले गए. 'नीचा नगर' फिल्म की धारा 'समांतर सिनेमा' के रूप से हालांकि आज भी जारी है. ऐसे में कान समारोह के 75वीं वर्षगांठ पर इस फिल्म की ऐतिहासिक भूमिका को रेखांकित की जानी चाहिए. कान फिल्म समारोह में भले ही 'नीचा नगर' पुरस्कृत हुई, दुर्भाग्य ऐसा रहा कि भारत में व्यावसायिक रूप से यह रिलीज नहीं हो पाई थी. फिल्म को कोई वितरक नहीं मिला था.
Rani Sahu
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