सम्पादकीय

मजबूत होती मजहबी जकड़न, अब नियंत्रित करना भी हो रहा मुश्किल

Rani Sahu
14 July 2022 3:08 PM GMT
मजबूत होती मजहबी जकड़न, अब नियंत्रित करना भी हो रहा मुश्किल
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वर्षों से हम सामासिक संस्कृति और गंगा-जमुनी तहजीब की बातें सुनते-पढ़ते आए हैं

सोर्स- जागरण

प्रेमपाल शर्मा : वर्षों से हम सामासिक संस्कृति और गंगा-जमुनी तहजीब की बातें सुनते-पढ़ते आए हैं, लेकिन पिछले कुछ दिनों से इसका आडंबर खुलकर सामने आ रहा है। ताजा प्रकरण झारखंड के गढ़वा जिले के एक सरकारी स्कूल का है, जहां स्थानीय मुस्लिम आबादी के दबाव में हाथ जोड़कर प्रार्थना करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। सरकारी स्कूल को 'दया कर दान भक्ति का...' प्रार्थना गीत भी हटाना पड़ा। कुछ जगहों पर स्कूलों के नाम भी इस आधार पर बदल दिए गए कि वहां मुस्लिम आबादी अधिक है। इसके अलावा कुछ स्कूलों की छुट्टी रविवार के बजाय शुक्रवार को कर दी गई। इसे लेकर ऐसे कुतर्क दिए गए कि स्कूल में पढ़ने वाले 75 प्रतिशत बच्चे मुस्लिम हैं, इसलिए वही होना चाहिए, जो मुसलमान चाहते हैं। अफसोस कि इसके खिलाफ खुलकर न शिक्षकों ने आवाज उठाई और न ही प्रधानाध्यापकों ने

आखिर वे कौन-सी ताकतें हैं, जो मासूम बच्चों के दिमाग में पंथ-मजहब की घुट्टी खोज लेती हैं और स्कूल में भी अपनी मनमानी चलाती हैं? निश्चित रूप से देश की विघटनकारी आवाजें समाज में ऐसा विष लगातार फैला रही हैं और जहां मौका मिलता है, वहां हावी हो जाती हैं। कट्टरपंथियों में यह प्रवृत्ति कोई नई बात नहीं है। आजादी से पहले जब महात्मा गांधी ने वर्धा में सामाजिक कार्यों की शुरुआत की और शिक्षा केंद्रों को विद्या मंदिर कहा, तब भी मुस्लिम कट्टरपंथियों को मंदिर कहने पर आपत्ति थी। जबकि कौन नहीं जानता कि धर्म, ईश्वर या खुदा को लेकर महात्मा गांधी की क्या व्याख्या थी।
कट्टरपंथियों और अलगाववादी प्रवृत्तियों के खिलाफ मुसलमानों के अंदर ही प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को तसलीमा नसरीन की तरह आगे आकर दखल देना होगा। इसे केवल सत्ता और राजनीतिक बिरादरी के सहारे नहीं छोड़ा जा सकता। यह दुर्भाग्य की बात है कि मुस्लिम बुद्धिजीवी अपने समाज की बुराइयों के विरुद्ध आवाज उठाने से डरते हैं। वहीं तथाकथित उदारवादी बुद्धिजीवी भी मुस्लिमों से जुड़े मामलों पर सुविधाजनक चुप्पी साध लेते हैं।
यह कौन-सी सामासिक संस्कृति है, जो जरा सी आबादी बढ़ने पर अपनी संस्कृति लादने की वकालत करने लगती है? जहां मौका मिला वहां कभी शरीयत, कभी रिवाज के नाम पर मनमर्जी लाद देती है। कुछ वर्ष पहले तक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में लड़कियों का प्रवेश तक वर्जित था। यह स्थिति तब थी जब इस विश्वविद्यालय में कई प्रगतिशील कहे जाने वाले लेखक, कुलपति और प्राध्यापक रहे। दुनिया भर में समानता की बातें करने वाले और भारतीय संविधान की आड़ लेने वाले ऐसे मौकों पर इस तर्क की आड़ में चुप्पी साधे रहे कि यह अल्पसंख्यकों का मामला है। यानी जब आप बहुसंख्यक होंगे तब भी आपकी मर्जी और अल्पसंख्यक होंगे तब भी, वह चाहे संविधान के खिलाफ हो या मानवता और आधुनिकता के।
भारत के संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है। यह समान रूप से सरकारी पैसे से चलाए जाने वाले स्कूल-कालेजों, विश्वविद्यालयों पर लागू है, लेकिन अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लेकर ऐसे सारे संस्थान खुलेआम इसका उल्लंघन कर रहे हैं। लगभग ऐसा ही भेदभाव जम्मू-कश्मीर में अनुसूचित जाति और जनजाति समुदाय के साथ किया गया, जो अनुच्छेद 370 हटाने के बाद दूर हो सका। बात केवल सुदूर इलाकों की ही नहीं है। राष्ट्रगीत पर एक समुदाय विशेष के जनप्रतिनिधि खड़े तक नहीं होते। कुछ इसी तरह का व्यवहार पिछले कई वर्षों से स्कूलों में वंदे मातरम् और राष्ट्रगान गाने पर हो रहा है। क्या गंगा-जमुनी तहजीब एक समुदाय विशेष को हर संवैधानिक प्रतीक की अवहेलना करना ही सिखाती है?
पंथनिरपेक्ष भारत में समान नागरिक संहिता और समान शिक्षा के आधार पर ही शांति से रहा जा सकता है और इसे हर हालत में सख्ती से लागू करने की आवश्यकता है। इसी में हिजाब पहनकर स्कूल आने का आयाम भी जुड़ता है, जिसका कुछ बुद्धिजीवी यह कहकर बचाव करते हैं कि उनकी अलग संस्कृति का मामला है। यदि यह उनकी संस्कृति का मामला है तो क्या भारत सरकार के दफ्तरों, अदालतों, पुलिस में आप हिजाब पहनकर या घूंघट लगाकर आने की इजाजत देंगे? कुछ लोग इसे अलग पहचान, अस्मिता, बहुलतावाद के खांचे में फिट करने की बार-बार कोशिश करते हैं। इसी आधार पर हिजाब, बुर्का, प्रार्थना गीत आदि का बचाव दशकों से करते आ रहे हैं। आप क्यों भूल जाते हैं कि जब आपके कपड़ों, भाषा या दूसरे प्रतीकों से आपकी अलग पहचान बनेगी तो भेदभाव की गुंजाइश भी कई गुना बढ़ जाएगी। कोई चाहे अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक, स्कूल-कालेज जैसी संस्थाओं का उद्देश्य अगली पीढ़ी के ऐसे नागरिक बनाना है, जो भारतीय संविधान के आत्मा के अनुसार समानता और समान कानून की बात करें। यदि बच्चों को पाठशाला में ही पंथिक-मजहबी शिक्षा दी जाएगी तो क्या भविष्य में वे सच्चे मायनों में सेक्युलर समाज और देश की कल्पना कर सकते हैं?
हाल में शिक्षा व्यवस्था पर किए गए शोध बताते हैं कि जैसे-जैसे साक्षरता बढ़ी है, अलग पहचान और संस्कृति के बहाने धार्मिक कट्टरता भी बढ़ी है। देश-दुनिया में कई उच्च शिक्षा प्राप्त आतंकवादी पकड़े गए हैं। अफसोस की बात है कि यह जानते-समझते हुए भी मदरसों और मजहबी संस्थाओं पर कोई रोक नहीं लगाई जा रही। कुछ राज्य तो वोट बैंक की राजनीति के तहत यह जानते हुए भी ऐसी शिक्षा को और बढ़ावा दे रहे हैं, जो मजहबी कट्टरता को बढ़ाती है। तमाम राजनीतिक दल भी समुदाय विशेष की कट्टरता पर बोलने से या तो बचते हैं या फिर किंतु-परंतु के साथ उसका बचाव करते हैं।
स्वतंत्रता के बाद अलग पहचान, अस्मिता, अल्पसंख्यक राजनीति के जुमलों ने समूचे परिवेश को इतना प्रदूषित किया है कि अब उस पर नियंत्रण करना मुश्किल हो रहा है। झारखंड के स्कूलों का मामला हो या कर्नाटक का हिजाब विवाद अथवा जेएनयू में दुर्गा का निरादर-ऐसे प्रकरण देखकर यही लगता है कि कुछ लोगों ने समाज को बांटने का बीड़ा उठा लिया है।
भारतीय संविधान निश्चित रूप से पंथ पर आधारित नहीं है। उसमें सभी मत-मजहब को समान सम्मान और स्थान दिया गया है। अच्छा हो कि पंथ-मजहब की बातों, वेशभूषा और अन्य पहलुओं को आप अपने घर की चहारदीवारी तक ही सीमित रखें। स्कूल-कालेजों में तो इसकी अनुमति बिल्कुल नहीं दी जानी चाहिए।


Rani Sahu

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