सम्पादकीय

स्वतंत्रता की आड़ में मजहबी एजेंडा, कथित उदारवादी भी कर रहे हिजाब की पैरवी

Rani Sahu
23 July 2022 10:59 AM GMT
स्वतंत्रता की आड़ में मजहबी एजेंडा, कथित उदारवादी भी कर रहे हिजाब की पैरवी
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स्वतंत्रता की आड़ में मजहबी एजेंडा

सोर्स - जागरण

विकास सारस्वत : पिछले दिनों वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने सर्वोच्च न्यायालय से हिजाब मामले में शीघ्र सुनवाई करने का आग्रह किया। उनके इस आग्रह पर मुख्य न्यायाधीश एन वी रमणा ने मामले को शीघ्र ही कार्यसूची में सूचीबद्ध करने का आश्वासन दिया। प्रशांत भूषण मात्र एक वरिष्ठ अधिवक्ता ही नहीं हैं, बल्कि वह भारत में उस तबके का प्रतिनिधित्व भी करते हैं, जो स्वयं को उदारवादी और प्रगतिवादियों के रूप में प्रस्तुत करता है। उनकी ही तरह अन्य कथित उदारवादियों ने स्कूलों में हिजाब का समर्थन किया था। हिजाब विवाद इस वर्ष जनवरी में कर्नाटक से शुरू हुआ था। उडुपी जिले में एक पीयू (प्री-यूनिवर्सिटी स्कूल जहां 11वीं और 12वीं कक्षा की पढ़ाई होती है) कालेज से शुरू हुए इस प्रकरण में तटवर्ती कर्नाटक की कई शिक्षण संस्थाओं की मुस्लिम छात्राएं यूनिफार्म की अवहेलना कर हिजाब पहनने की जिद को लेकर उच्च न्यायालय पहुंची थीं, परंतु न्यायालय ने शासन द्वारा स्कूल और पीयू कालेजों में हिजाब पर रोक के आदेश को बरकरार रखा।
उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध वादियों ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, लेकिन मुख्य न्यायाधीश ने मामले को अविलंब महत्व का न मानते हुए तुरंत संज्ञान लेने से इन्कार कर दिया था, लेकिन अब वह जल्द सुनवाई करने को तैयार हैं। अपने देश में हिजाब की पैरवी एक ऐसे समय की जा रही है, जब ईरान में महिलाएं दमनकारी इस्लामी निजाम द्वारा थोपी गई हिजाब की बाध्यता के विरुद्ध जोखिम उठाते हुए प्रदर्शन कर रही हैं। यदि पंथनिरपेक्ष कहलाने वाले भारतीय समाज में सिद्धांतों के अनुरूप परिपक्वता होती तो इस विवाद का जन्म ही न होता, क्योंकि यह स्कूल-कालेज में यूनिफार्म की अनिवार्यता का विषय था, न कि मजहबी स्वतंत्रता का।
यह सामान्य विवेक की बात है कि धार्मिक मान्यताओं पर आचरण के लिए प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तिगत, सामाजिक और धार्मिक क्षेत्रों में स्वतंत्र है, परंतु वह अपनी मजहबी मान्यताओं को सार्वजनिक संस्थानों, शासकीय व्यवस्थाओं या इन संस्थानों के तौर-तरीकों पर नहीं थोप सकता। जैसे सेना, पुलिस या फिर विभिन्न प्रकार के खेलों में पहनी जाने वाली वर्दियों में मजहबी आधार पर भेद नहीं हो सकता, उसी प्रकार स्कूल यूनिफार्म में भी हिंदू या मुस्लिम के आधार पर अंतर नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसा करने से यूनिफार्म यानी एकरूपता लाने का उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा।
विद्यालयों में यूनिफार्म का महत्व इसलिए भी है कि स्कूली शिक्षा का बहुत बड़ा उद्देश्य देश के लिए ऐसे नागरिक तैयार करना होता है, जिनमें कुछ मूलभूत समान मूल्य हों। जाने-माने उदारवादी मिल्टन फ्रीडमैन ने इस बात के महत्व को समझते हुए कहा था कि 'कुछ समान मूल्यों की व्यापक स्वीकृति के बिना एक स्थिर और लोकतांत्रिक समाज की कल्पना असंभव है।' इस उद्देश्य के ठीक उलट हिजाब वह मजहबी हठ है, जो स्कूली बच्चों में न सिर्फ अलगाव की भावना को सींचता है, बल्कि झूठी नैतिक श्रेष्ठता का बोध भी भरता है।
हिजाब के मामले में चिंताजनक पहलू यह है कि वह मुस्लिम महिलाओं में एक ऐसी मानसिकता का प्रत्यारोपण करता है कि केवल हिजाब पहनने वाली महिलाएं ही भद्र और शालीन हो सकती हैं। ऐसी मानसिकता का दूसरा अर्थ यह हुआ कि हिजाब न पहनने वाली महिलाओं का चरित्र श्रेष्ठ नहीं है और वह अपने ऊपर होने वाली छींटाकशी या यौन हमलों को न्योत रही हैं। मुस्लिम पुरुषों द्वारा गैर मुस्लिम महिलाओं और बच्चियों पर आए दिन होने वाले यौन अपराधों की संख्या इतनी अधिक है कि उस मानस पर इस विकृत सोच के दुष्प्रभाव से इन्कार नहीं किया जा सकता। इस प्रकार के कुत्सित सोच को स्कूली छात्र-छात्राओं में बढ़ावा देना न सिर्फ इस्लामी रूढ़‍िवादियों के हाथों में खेलना होगा, बल्कि पंथनिरपेक्षता के आदर्शों से बेईमानी भी होगी।
हिजाब को व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मुद्दा बनाकर पेश करने वाले भारतीय या पश्चिमी उदारवादी यह भूल जाते हैं कि हिजाब जिस सामाजिक दबाव के जरिये पितृसत्तात्मक रूढ़‍िवादियों या मजहबी कट्टरता को बढ़ावा देता है, वह पहनावे के स्वतंत्र चयन में स्वयं सबसे बड़ा बाधक है। कनाडा में अक्सा परवेज से लेकर ईरान में सैयद हैदरी तक महिलाओं की लंबी फेहरिस्त है, जिन्हें हिजाब न पहनने के कारण उनके ही घर वालों ने मार दिया। वास्तविक रूप में हिजाब का समर्थन मजहबी समूह की भावनाओं का समर्थन है, व्यक्तिगत स्वतंत्रता का नहीं।
यह बड़ी भारी विडंबना है कि जिस हिजाबी अमल को अफगानिस्तान का तालिबानी शासन लड़कियों को पढ़ाई से दूर रखने के लिए कर रहा है, उसी हिजाब को भारतीय मुस्लिमों का एक वर्ग उदारवादियों की मदद से मुस्लिम लड़कियों की पढ़ाई के लिए एक अनिवार्य शर्त बनाना चाहता है। यह भी बड़े शर्म की बात है कि हिजाब को भारतीय उदारवादियों का समर्थन तब मिल रहा है, जब कट्टरपंथी मुस्लिम सार्वजनिक मंचों पर इस बात की चर्चा कर रहे हैं कि कैसे हिजाब से एक बाल भी बाहर निकलना या फिर हिजाब पर परफ्यूम लगाना फित्ना यानी बगावत और शरारत है। सही उदारवादी मायनों में ऐसी कोई भी सामाजिक कुरीति जो किसी समूह या वर्ग में अलगाव, हीनभावना या शर्मिंदगी भरे तो वह व्यक्तिगत चयन का विषय कतई नहीं हो सकती।
यह कोई दबी-छिपी बात नहीं कि विद्यालयों में हिजाब पहनने को लेकर शुरू हुई जिद उस लगातार आक्रामक होते जा रहे मजहबी एजेंडे का हिस्सा है जिसके तहत स्कूलों सहित सभी सार्वजनिक संस्थानों पर इस्लामी परंपराएं थोपने का प्रयास जारी है। इसी जिद के चलते ही जामताड़ा जैसे मामले देखने को मिले हैं, जहां मुस्लिम आबादी बढ़नें पर लगभग सौ विद्यालयों में रविवार की जगह शुक्रवार को साप्ताहिक अवकाश का दबाव बनाया गया। इसी तरह झारखंड के ही गढ़वा में अधिसंख्य मुस्लिम आबादी होने का हवाला देकर प्रार्थना बदल दी गई। हिजाब मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला कुछ भी हो, कर्नाटक के तटवर्ती शहरों से शुरू हुई हिजाब की मुहिम के विशुद्ध मजहबी एजेंडा होने की पुष्टि इससे होती है कि इसके पीछे पीएफआइ और कैंपस फ्रंट आफ इंडिया जैसे चरमपंथी मुस्लिम संगठनों का हाथ माना गया। तथाकथित उदारवादियों का इस कट्टरपंथी अभियान को समर्थन यही बताता है कि वे अपने राजनीतिक पूर्वाग्रहों के चलते पूरी तरह सिद्धांतविहीन हो गए हैं।
Rani Sahu

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