सम्पादकीय

सियासत पर हावी है मजहब की चिल्मन

Rani Sahu
6 March 2022 7:05 PM GMT
सियासत पर हावी है मजहब की चिल्मन
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‘राजमहल की अटारियों में जनता की पीड़ा का आर्त्तनाद सुनाई नहीं देता

'राजमहल की अटारियों में जनता की पीड़ा का आर्त्तनाद सुनाई नहीं देता।' राजनीति के संदर्भ में यह प्रसंग भारत में तक्षशिला विश्वविद्यालय के महान् शिक्षक, राजनीतिक विज्ञान व अर्थशास्त्र के पुरोधा, प्रखर राजनीतिज्ञ, कुशाग्र बुद्धि आचार्य चाणक्य का है। यदि भारत के गौरवशाली प्राचीन इतिहास पर नजर डालें तो ज्ञात होगा कि भारतवर्ष में हजारों वर्ष पूर्व महाभारत के दौर में महान् विचारक, बुद्धिजीवी व कुशल नीतिवान महात्मा विदुर भी हुए। उनके द्वारा राजनीति पर रचित ग्रंथ 'विदुर नीति' व राजधर्म के सिद्धातों से परिपूर्ण ज्ञान का दुनिया आज भी लोहा मानती है। आचार्य चाणक्य द्वारा लिखित 'चाणक्य नीति' शास्त्र व 'अर्थशास्त्र' तथा विदुर नीति के सूत्र व सिद्धांत आज भी उतने ही उपयोगी व प्रासंगिक हैं जितने सदियों पूर्व थे। लेकिन देश की मौजूदा सियासत अलग दिशा में मुखातिब हो चुकी है। हमारे उन महापुरुषों के राजनीतिक आदर्श, नियम व सिद्धांत विलुप्त हो चुके हैं। वर्तमान राजनीतिक वातावरण में शिष्टाचार, सौहार्द जैसी लोकतांत्रिक मर्यादाओं का अभाव नजर आता है। इस बात को कहने में कोई हैरत नहीं है कि वर्तमान में राजनीति ही देश का राष्ट्रीय खेल बन चुका है।

भारत दुनिया के सबसे बडे़ लोकतांत्रिक देश के रूप में जाना जाता है। चुनावी मौसम में सियासी फिज़ाओं का रुख भांपने में माहिर सियासी वैज्ञानिक, चुनावी बिगुल बजते ही बगावती तेवरों से दलबदल के खेल की शतरंजी बिसात बिछाने में निपुण राजनीति के पंडित, सियासी खेल व सत्ता के बेताज बादशाह सियासतदान भारत में ही मौजूद हैं। हालांकि हमारे खिलाड़ी विश्व खेल पटल पर भारत का परचम फहरा कर देश का गौरव बढ़ रहे हैं। वैज्ञानिक व चिकित्सक अपनी योग्यता का लोहा मनवाकर विश्व में भारत को गौरवान्वित कर रहे हैं। सशस्त्र बलों में तैनात सैनिक सरहदों से लेकर 'सयुक्त राष्ट्र संघ' की सेनाओं का हिस्सा बनकर भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। लेकिन देश में आम लोगों से लेकर, टीवी न्यूज चैनलों तक चर्चा केवल राजनीति पर ही होती है। आज की युवाा पीढ़ी ज्यादातर सियासतदानों व मायानगरी के अदाकारों को ही अपना रोल मॉडल मानती है। इसीलिए युवावर्ग का रुझान राजनीति की तरफ तथा ख्वाहिश नेता बनने की रहती है। चुनाव लड़ना व जीतना राजनेताओं के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन जाता है। चुनावों को सियासी हुक्मरान मान-सम्मान की लड़ाई व इबादत करार दे देते हैं, मगर उस इबादत की तौहीन होती है जब मुल्क के सियासी रहनुमाओं के नाम के साथ बाहुबली, माफिया व डॉन जैसे शब्द जुड़ जाते हैं। कई संगीन वारदातों में गैंगस्टर एक्ट के तहत सलाखों के पीछे बैठे नेता जेलों से ही चुनावी ताल ठोक देते हैं।
चुनावी गतिविधियों पर नजर रखने वाली संस्था 'एसोसिएसन फॉर डैमोक्रेटिक रिफार्म' राजनीति में अपराधिक पृष्ठभूमि से जुड़े उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या पर चिंता व्यक्त कर चुकी है, मगर देश में सियासत का जुनून इस कदर हावी हो चुका है कि प्रशासनिक सेवाओं व सुरक्षा एजेंसियों के नौकरशाह भी ऐच्छिक सेवानिवृति योजना के तहत सरकारी सेवाओं से त्यागपत्र देकर सियासी दलों का दामन थामकर चुनावी मैदान में कूद जाते हैं। जबकि 'ऑल इंडिया सर्विसेज (कंडक्ट) रूल्स 1968' के अनुसार किसी भी नौकरशाह को प्राइवेट संस्था ज्वाइन करने से पहले दो वर्ष का कूलिंग पीरियड बिताने का नियम है। सियासी दलों द्वारा मतदाताओं को लुभाने के लिए चुनावी घोषणापत्रों में मुफ्तखोरी की सौगातें बांटने के मुद्दे पर देश की सर्वोच्च अदालत चुनाव आयोग तथा केन्द्र सरकार से जवाब तलब कर चुकी है। चुनावों में मजहब, संप्रदाय, अल्पसंख्यक की सियासत या मुफ्तखोरी का ट्रेंड चलाकर चुनावी जीत का समीकरण तय करके इक्तदार हासिल किया जा सकता है, मगर मतदाताओं को लोकलुभावन वादों से भ्रमित करना या मुफ्तखोरी की खैरात के प्रलोभनों से देश के बुनियादी विकास का ढांचा काफी हद तक प्रभावित हो रहा है। रही-सही कसर भ्रष्टाचार के संक्रमण ने पूरी कर दी। यदि आजादी के 75 वर्षों के बाद भी हमारा समाज जातिवाद, मजहब व संप्रदाय की जंजीरों में ही जकड़ा है तथा प्रजातंत्र, वंशतंत्र में तब्दील हो चुका है तो इसका श्रेय भी देश की सियासत को ही जाता है। चूंकि आजादी के बाद से ही मुल्क की सियासत जातिवाद, क्षेत्रवाद, परिवारवाद, आरक्षण व मजहबपरस्ती के इर्द-गिर्द ही घूमती आ रही है, चुनावी समय में सियासी तहजीब अपनी जाति व मजहब का प्रतिनिधित्व ढूंढती है। सिर पर पहनने वाली टोपियों के रंग भी सियासी शिनाख्त को जाहिर करते हैं। पिछले दो वर्षों से मातम का माहौल पैदा करने वाली वैश्विक महामारी कोरोना ने देश-दुनिया की हर चीज को मुतास्सिर किया है।
छात्रों की पढ़ाई प्रभावित हुई, युवाओं का रोजगार छिन गया तथा अर्थव्यवस्था को भी कोविड-19 ने क्षतिग्रस्त कर दिया। मगर देश में चुनावों का रंग कभी फीका नहीं पड़ा तथा न ही हुक्मरानों की सुविधाओं में कोई कमी आई। चुनावी समर में चुनाव प्रचार के लिए पोस्टर, होर्डिंग, इश्तिहार, विज्ञापन व चुनावी रैलियों में करोड़ों रुपए खर्च हो रहे हैं। यदि यही धन देश के विकास कार्यों पर लगे तथा प्रजातंत्र के हितों की पैरवी करने वाले मुद्दे चुनावों का जरिया बनें तो देश की करोड़ों आबादी गरीबी रेखा से ऊपर उठ सकती है। करोड़ों आबादी को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने वाले अन्नदाता किसानों की स्थिति में सुधार हो सकता है। हमारे जरूरतमंद व पात्र किसान कई सरकारी योजनाओं से महरूम रह जाते हैं। सियासी दलों को शिक्षा, चिकित्सा, बेरोजगारी तथा छात्र, युवा, किसान व मजदूर वर्ग से जुडे़ देशहित के मुद्दों को चुनावी एजेंडे में शामिल करने का साहस दिखाना चाहिए। विडंबना है कि मतदान से देश का उज्ज्वल भविष्य तय होना चाहिए, मगर वोट की ताकत सियासी रहनुमाओं का मुकद्दर तय कर रही है। बहरहाल मौजूदा सियासत में हावी हो रही जाति, मजहब की चिल्मन को रुखसत करके देश की बुनियादी समस्याओं को राष्ट्रवाद के नजरिए से देखना होगा। यदि देश की सियासत क्षेत्रवाद, आरक्षण, मुफ्तखोरी व महजबी मुद्दों के दायरे में घूमेगी तो उस जम्हूरियत के उजियारे अंधेरा कायम रहेगा। लाजिमी है कि मजबूत व तंदरुस्त लोकतंत्र के लिए प्रजातंत्र की बुनियाद मतदाता भी जागरूक हों।
प्रताप सिंह पटियाल
लेखक बिलासपुर से हैं
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