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जीवन जीने के लिए सिर्फ किताबी ज्ञान पर्याप्त नहीं होता
जीवन जीने के लिए सिर्फ किताबी ज्ञान पर्याप्त नहीं होता। हमारे भीतर साहस, हौसला, धैर्य, नैतिकता, करुणा जैसे मानवीय गुण भी होने आवश्यक हैं और ये सारे गुण एक सच्चा गुरु ही हमारे भीतर भर सकता है। इन गुणों के साथ होने पर ही विद्यालय में अर्जित किताबी ज्ञान का उपयोग किया जा सकता है…
शिक्षक उस नारियल की भांति होता है जो बाहर से कठोर होता है, लेकिन अंदर से कोमल होता है। शिक्षक एक ऐसा नाम है जिस नाम में ही शिक्षा, शिक्षण व ज्ञान का बोध होने लगता है। एक शिक्षक वह होता है जो अपने शिष्य को जिंदगी की हर चुनौती से लडऩे का साहस, जुनून व जोश भरता है। हर एक छोटे से बड़े ज्ञान की शिक्षा देता है। शिक्षक मनुष्य का एक ऐसा रूप है जिसका व्याख्यान शब्दों में करने लगें तो शब्द कम पड़ जाएंगे। शिक्षक के महत्त्व को अनेक विद्वानों के मतों से समझने का प्रयास करें तो महान संत कबीरदास ने गुरु के महत्त्व का इस तरह से व्याख्यान किया है, 'गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागु पांव, बलिहारी गुरू आपने गोविन्द दियो बताय।Ó अर्थात यदि भगवान और गुरु दोनों सामने खड़े हों तो मुझे गुरु के चरण पहले छूना चाहिए क्योंकि उसने ही ईश्वर का बोध करवाया है। गुरु का स्थान भगवान से भी ऊंचा है। प्रसिद्ध सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य को अपना गुरु बनाकर ही राजा का पद पाया था। इतिहास में हर महान राजा का कोई न कोई गुरु जरूर था। गुरु और शिष्य का रिश्ता बहुत मधुर और गहरा होता है। गुरु ही वो इनसान है जो शिष्य को जीवन की हर मुश्किल से लडऩे का गुर सिखाता है। शिक्षक की महिमा अपरंपार है। 'सब धरती कागज करू, लेखनी सब वनराज।
सात समुंद्र की मसि करु, गुरु गुण लिखा न जाए।Ó अर्थात यदि पूरी धरती को लपेट कर कागज बना लूं, सभी वनों के पेड़ों से कलम बना लूं, सारे समुद्रों को मथकर स्याही बना लूं, फिर भी गुरु की महिमा को नहीं लिख पाऊंगा। मनु (ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक) ने विद्या को माता और गुरु को पिता बताया है। माता-पिता सिर्फ हमें जन्म देने का काम करते हैं, पर गुरु ही हमें ज्ञान दिलाता है, बिना ज्ञान के कोई भी व्यक्ति अपना सर्वोन्मुखी विकास नहीं कर सकता। कहा जाता है कि पढऩा तो किताबों से है, इन्हें तो बिना शिक्षक के भी पढ़ा जा सकता है। हां, पढ़ा जा सकता है, लेकिन उस अध्ययन में केवल शब्द ही पढ़े जाएंगे, उनके पीछे छिपा ज्ञान व अनुभव केवल एक गुरु ही शिक्षार्थी को प्रदान कर सकता है। भारत प्राचीन समय से ही ज्ञान का केंद्र व गुरुओं की तपोभूमि रहा है। इसका उल्लेख आज भी इतिहास के पन्नों में मिल जाता है। गुरुकुलों का वो प्राचीन समय जहां बच्चों की शिक्षा-दीक्षा संपूर्ण होती थी और शिष्य गुरु से प्राप्त ज्ञान व अनुभव से आगामी जीवन के लिए कमर कसता था, गुरु के प्रति शिष्यों का आदर एक आदर्श स्तर पर रहता था जिसे आज के जीवन में नहीं मापा जा सकता। अक्सर एक व्यक्ति के जीवन में कई ऐसी शख्सियतें रहती हैं जो अपने ज्ञान से व्यक्ति को अंधेरे से प्रकाश की ओर ले जाते हैं।
जीवन में हर छोटी से बड़ी सीख देने वाला इनसान शिक्षक के समान ही है और गुरु का काम यही है कि अपने शिक्षार्थी को तपाकर उसे एक आकार देकर भविष्य के लिए तैयार करना, ताकि शिष्य कहीं मात न खाए और जीवन में हमेशा चमकता रहे। गुरु का काम बहुत बड़ा है। माता, पिता, भाई, बहन, तमाम रिश्तेदार, तमाम जानकार, जिनसे हमें दिन में कई बार संपर्क करना पड़ता है, सब गुरु हैं। सबके पास जिंदगी के अनुभव हैं। हम उनके दैनिक क्रियाकलापों को देखकर ही बहुत कुछ सीखते हैं, लेकिन इन सभी के बावजूद जो एक शिक्षक व विद्यार्थी का संबंध विद्यालय, महाविद्यालय में स्थापित होता है, उसकी महिमा अपरंपार है। शिक्षक एक ऐसा ओहदा है जिसे हमेशा आदर्शात्मक रूप से देखा जाता है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अनेक ऐसे शिक्षक होते हैं जिनके व्यक्तित्व से ही व्यक्ति पर इतना प्रभाव पड़ता है कि विद्यार्थी के व्यक्तित्व व चरित्र में भी एक शिक्षक के गुण दिखने लग जाते हैं। यही एक सच्चे शिक्षक की निशानी होती है। जो शिक्षक अपने चरित्र व व्यक्तित्व से अपने विद्यार्थी को प्रभावित न कर पाए, उन शिक्षको की छाप विद्यार्थी पर नहीं छप पाती। शिक्षण क्षेत्र आधुनिक समय में एक बहुत बड़ा व्यापक क्षेत्र है, लेकिन इस क्षेत्र में सच्चे शिक्षकों की भारी कमी है।
शिक्षण जैसे आदर्श क्षेत्र को एक व्यवसाय के रूप में बहुत से स्वार्थी लोगों ने तबदील कर दिया है, लेकिन तब भी आज के दौर में शिक्षण को एक व्यवसाय मान लेने के बाद भी शिक्षण व शिक्षक के गहरे अर्थों में देखें तो यह केवल मात्र एक व्यवसाय नहीं है, एक सच्चा शिक्षक अपने शिक्षण द्वारा पूरे समाज में ज्ञान का प्रकाश फैलाता है। हमारे भीतर सामाजिक एवं नैतिक मूल्य रोपता है और इस तरह सुसंस्कृत समाज और सशक्त राष्ट्र निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। यही कारण है कि शिक्षकों को राष्ट्रनिर्माता भी कहा जाता है। शिक्षकों के इसी योगदान को याद करने के लिए हम हर वर्ष डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी के जन्मदिवस के अवसर पर 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाते हैं। लेकिन शिक्षकों को आदर-सम्मान देने की बात करें तो आज न जाने युवा समाज के मन में क्या विकृति आ गई है। पुराने समय में शिक्षकों के प्रति इतना आदर भाव होता था कि शिक्षक के सामने गर्दन उठाने की हिमाकत बच्चे नहीं करते थे। लेकिन आज बाजार में कहीं शिक्षक दिख जाए तो ऐसे घमंड में निकलेंगे, न जाने सामने से कौन आ गया हो! पांव छूने की तो बात छोड़ ही दो, नमस्कार कर दे वही बहुत बड़ी बात है। उल्टा शिक्षक को ही धमका कर चले जाते हैं।
इस विकृत सोच को युवाओं को बदलना होगा और गुरु को आदर-सम्मान देने के आदर्श गुणों को अपने व्यक्तित्व में उतारना ही होगा क्योंकि गुरु जीवन को नई दिशा प्रदान करता है। माता-पिता भले ही हमारे पहले शिक्षक हों, लेकिन जीवन की वास्तविक और कठिन परीक्षा के लिए हमारे गुरु ही हमें तैयार करते हैं। जीवन जीने के लिए सिर्फ किताबी ज्ञान पर्याप्त नहीं होता। हमारे भीतर साहस, हौसला, धैर्य, नैतिकता, करुणा जैसे मानवीय गुण भी होने आवश्यक हैं और ये सारे गुण एक सच्चा गुरु ही हमारे भीतर भर सकता है। दरअसल इन गुणों के साथ होने पर ही विद्यालय में अर्जित किताबी ज्ञान का उपयोग किया जा सकता है। कई बार विद्यार्थी अपनी असफलता से निराश हो जाते हैं और गहरे अवसाद में डूब जाते हैं। ऐसी असफलताओं से निराश न होने का सबक हमें गुरु ही सिखाता है। इस तरह गुरु हमारे जीवन में सच्चे मार्गदर्शक की भूमिका निभाते हैं। अध्ययन तो किताबों से हो जाएगा, लेकिन उससे केवल शब्द ही समझे जा सकेंगे और शिक्षक के शिक्षण व ज्ञान से उस अध्ययन के शब्द समझे जाएंगे और अनुभव से अर्थ।
प्रो. मनोज डोगरा , लेखक हमीरपुर से हैं
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