सम्पादकीय

वैश्वीकरण की प्रासंगिकता

Subhi
7 May 2022 3:49 AM GMT
वैश्वीकरण की प्रासंगिकता
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संस्कृत के पद ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की उत्पत्ति कब और कैसे हुई, यह अध्ययन और शोध का विषय हो सकता है, पर यह पद कहीं न कहीं इंगित करता है

विजय प्रकाश श्रीवास्तव: संस्कृत के पद 'वसुधैव कुटुंबकम' की उत्पत्ति कब और कैसे हुई, यह अध्ययन और शोध का विषय हो सकता है, पर यह पद कहीं न कहीं इंगित करता है कि वैश्वीकरण की अवधारणा प्राचीन युग से ही हमारे मनीषियों के मन में थी जो मानते थे कि इस धरा पर रहने वाले लोग एक बड़े परिवार की तरह हैं। आगे चल कर वैश्वीकरण की अवधारणा एक नए रूप में विकसित हुई जो व्यापक आयामों को लिए हुए थी। औपचारिक रूप में वैश्वीकरण ने 1970 के दशक में पांव पसारने शुरू किए थे। इसे अभी लगभग पचास वर्ष हुए हैं। इतिहास में पचास वर्षों का समय कोई अधिक नहीं होता, पर कहा जाने लगा है कि वैश्वीकरण के दिन पूरे हो चुके लगते हैं। इस तर्क में कितना दम है, यह विचार का विषय है।

दुनिया के विभिन्न देशों ने वैश्वीकरण को एक औचित्यपूर्ण कदम के रूप में देखा था और इसीलिए इसे अपनाया। इसके मूल में यही अवधारणा रही होगी कि धरती सबकी है और जीना सबको है। वैश्वीकरण को प्रोत्साहित करने का उद्देश्य यह था कि देश अपने संकीर्ण स्वार्थों से ऊपर उठें, उनके बीच पूंजी का प्रवाह सुगम हो, सामाजिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान बढ़े और आर्थिक असमानता कम हो। वैश्वीकरण के जो सकारात्मक प्रभाव हुए हैं, वे भी सबके सामने हैं। महामारी के दौर को छोड़ दें, तो अंतरराष्ट्रीय पर्यटन लगातार बढ़ा है, 1950 से 2010 के बीच वैश्विक निर्यात तैंतीस गुना हो गया है, शिक्षा और नौकरी के लिए ज्यादा लोग अपने देश से दूसरे देशों का रुख करने लगे हैं।

बंगलुरु दे रहा होता है। साल 2008 में वित्तीय संकट अमेरिका में आया, पर इसका असर कई देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ा। कोरोना का टीका बना कहीं और लगाया किसी और देश में गया। प्रत्येक देश की अपनी मुद्रा पहले से है, पर क्रिप्टोकरंसी की पहुंच उन चंद देशों जहां इस पर प्रतिबंध है, को छोड़ सभी देशों में हो गई है। ये सारे उदाहरण वैश्वीकरण की व्यापकता के परिचायक हैं।

वैश्वीकरण के दौर से पहले यह सब शायद संभव नहीं था। दुनिया में बड़े और छोटे दोनों तरह के देश हैं। कुछ देशों को महाशक्तियों का दर्जा भी हासिल है। वैश्वीकरण में इस बात का ख्याल भी रखा जाना था कि सिर्फ आकार और शक्ति की दृष्टि से कोई देश अपनी धौंस न दिखाए और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की भावना निरंतर बलवती हो। अफसोस, हम इस पर खरे नहीं उतरे।

पर सिक्के का दूसरा पहलू भी है। रूस-यूक्रेन की जंग को दो महीने से ज्यादा हो चुके हैं। लगभग पूरी दुनिया मानती है कि इन देशों के बीच मतभेद जो भी हों, युद्ध गलत है और एक छोटे देश पर हमला कर उसे नष्ट कर देना किसी प्रकार से जायज नहीं है। फिर भी सच यह है कि न तो संयुक्त राष्ट्र और न ही दुनिया के और देश, इस युद्ध को रुकवा पाने में कामयाब हो पाए हैं।

इसी प्रकार तालिबान अफगानिस्तान में अपने आतंक का कहर बरपाता रहा और दुनिया कुछ नहीं कर पाई। क्या इससे वैश्वीकरण की धारणा पराजित होती नहीं लगती? वैश्वीकरण को तब और बल मिलता जब दुनिया में सहनशीलता और उदारता बढ़ती। लेकिन हकीकत में इन चीजों की कमी होती जा रही है। आशंका है कि नई वैश्विक व्यवस्था वैश्वीकरण को कहीं खत्म न कर दे। यदि ऐसा हुआ तो इसकी कीमत भारत और दुनिया के बहुत से देशों को चुकानी होगी।

देखा जाए तो वैश्वीकरण के लाभों की गिनती कम नहीं है। मुक्त अंतरराष्ट्रीय व्यापार ने बहुत से देशों की आय में अच्छी-भली वृद्धि की है। करोड़ों लोगों की गरीबी दूर हुई है। जीवन गुणवत्ता सुधरी है। जीवन प्रत्याशा भी बढ़ी है। श्रम की गतिशीलता बढ़ी है। वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों में गिरावट आई है। भारत में उदारीकरण की शुरुआत 1991 में हुई थी, तब इसका सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) दो सौ सत्तर अरब डालर था जो 2020 तक बढ़ कर पच्चीस खरब डालर से ऊपर निकल गया। यह सब बिना वैश्वीकरण के संभव नहीं हो पाता।

पर मुक्त व्यापार के खिलाफ आवाजें भी उठती रही हैं। भले ही मुक्त व्यापार ने वैश्विक आर्थिक विकास की दर में वृद्धि की हो, पर इस वृद्धि का वितरण आसमान रहा है। एक तरफ अरबपतियों की संख्या बढ़ी है, तो दूसरी ओर तमाम लोगों को गरीबी से बाहर निकालने के दावों के बावजूद दुनिया में गरीब बढ़ रहे हैं। आर्थिक असमानता बढ़ती जा रही है, खासतौर से विकासशील और अल्प विकसित देशों में यह स्थिति ज्यादा गंभीर है। बहुत-सी शासन प्रणालियों पर भी वैश्वीकरण एक प्रकार से बेअसर ही रहा है।

दुनिया के करीब आधे देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था बहाल नहीं है, मानवाधिकारों का उल्लंघन अभी भी जारी है। देशों के बीच और उनके भीतर संघर्ष चल ही रहे हैं। पिछली आधी सदी में हासिल की गई प्रगति बहुत से मामलों में पर्यावरण के लिए विनाशकर सिद्ध हो रही है। इन कारणों से उपजे असंतोष ने कई हलकों में राष्ट्रवाद की भावना को जन्म दिया है। विकसित देशों में भी ऐसा देखने को मिल रहा है।

पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने कार्यकाल में चीन के खिलाफ व्यापार युद्ध छेड़ रखा था। विश्व की अर्थव्यवस्था में चीन जिस प्रकार से अपना दखल बढ़ाता जा रहा है, उससे और देश भी परेशान हैं। श्रमिकों को कम भुगतान कर लागत को कम रखना चीनी उद्योगपतियों की सोची-समझी रणनीति है। वैश्वीकरण को चीन ने अपने पक्ष में कर जिस प्रकार से इसका दोहन किया है, उससे नाराज होने वाले देशों की संख्या कम नहीं है। विदेश व्यापार को लेकर देश संरक्षणवादी होते जा रहे हैं। वैश्विक व्यापार को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से स्थापित किया गया विश्व व्यापार संगठन आज बेहद कमजोर पड़ चुका है।

यूक्रेन पर रूस के हमले ने विश्व व्यापार पर प्रतिकूल असर डाला है। राजनीतिक लड़ाइयां आर्थिक जंग के रूप में लड़ी जा रही हैं। कई देशों को लगने लगा है कि उनके लिए आत्मनिर्भर होना अब जरूरी हो गया है। इस सोच में कोई खराबी नहीं है, परंतु आपसी व्यापार से दो देश लाभान्वित हों, सौदा बराबरी का हो और किसी के हितों पर आंच न आए दुनिया, क्या इस तरह से भी नहीं चल सकती? सभी देशों के लिए व्यापक तरीके से आत्मनिर्भर हो पाना क्या व्यावहारिक रूप से संभव है?

कुछ महीनों पहले जब चीन भारतीय सीमा क्षेत्र के भीतर समस्याएं खड़ी कर रहा था, देश में चीनी उत्पादों का विरोध शुरू हुआ। सरकारी स्तर पर भी चीन से आयात कम करने की बात की गई। पर इस बीच देश में न तो चीनी सामान के उपयोग में ही कोई बड़ी कमी आई, न ही चीन के साथ भारत का व्यापार संबंध कोई कमजोर हुआ। ऐसे उदाहरण इस बात को समझने के लिए काफी होने चाहिए कि दुनिया के देश कितना भी चाहें, एक दूसरे से बिलकुल अलग-थलग होकर नहीं रह सकते।

यह तो तय है कि वैश्वीकरण के चलते देशों में और दुनिया में बहुत से बदलाव आए हैं। यदि अंतरराष्ट्रीयता को परे रख कर सारी नीतियां सिर्फ राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रख कर बनाई जाने लगें, परस्पर सहयोग की भावना कम होने लगे और देश एक दूसरे को सहयोगी के रूप में न देख प्रतिद्वंद्वी समझने लगें, दुनिया से शांति तथा सौहार्द पीछे हटने लगे, तो यह अर्थ लगाना गलत नहीं है कि वैश्वीकरण कमजोर पड़ रहा है।


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