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- नदी उत्सव मनाने की...
हम ये कैसे भूल सकते हैं कि नदियां समुद्र में समाहित होने से पहले कई दायित्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करती हैं। इस दौरान मैदानों का निर्माण कर उन्हें ऊंचा करती हैं, डेल्टा बनाती हैं, भूजल के पुनर्भरण के साथ मिट्टी व भूजल का शोधन तो करती ही हैं, अंत में समुद्र में समाहित होकर उसका खारापन भी नियंत्रित करती हैं। नदी निरंतरता, बल, क्रियाशीलता, प्रेरणा, रूप, रस, संगीत, शीतलता, जीवंतता जैसे अनगिनत गुणों की खान है। नदी महज़ जल की धारा नहीं अपितु वनस्पतियों, सूक्ष्म व अन्य जलीय जीवों की संपूर्ण जीवन प्रणाली है…
हमारे ग्रंथों में कहा गया है ः 'पिबन्ति नद्यः, स्वयंमेव नाम्भः'। अर्थात नदियां अपना जल खुद नहीं पीती बल्कि परोपकार के लिए देती हैं। ये जलधारा का ही निमित मात्र नहीं अपितु उनके भीतर प्राणियों व अनेकों वनस्पतियों का संसार रचा बसा है। नदियां न केवल मनुष्य बल्कि जैव विविधता का भी केंद्र रही हैं। नदियों के तट पर सदियों से अनेकों सभ्यताएं पनपी हैं। भूत हो या वर्तमान या फिर भविष्य, सभ्यताओं का विस्तार न तो नदियों के बगैर संभव था न संभव होगा। नदियां हमारी आस्थाओं का केंद्र भी रही हैं। किसी भी स्थान का भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक परिदृश्य नदियों पर बहुत कुछ निर्भर करता है। हमारी संस्कृति इन्हीं के किनारे फली-फूली है, इसलिए हम अपनी सभ्यता को 'गंगा की सभ्यता' कहते हैं। इसी कारण हम स्वयं को 'गंगा जमुनी संस्कृति' से जोड़ते हैं। संस्कृति एक तरह का निर्देश भी है और पुरातन काल में नदियों को मां मानने का निर्देश था।