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सम्पादकीय
हिमालय जैसे रिश्ते: सॉफ्ट-पॉवर से ही ड्रैगन के दबाव से मुक्ति
Gulabi Jagat
19 May 2022 6:06 AM GMT
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हिमालय जैसे रिश्ते
कुछ समय पहले तक भारत-नेपाल के रिश्तों में जो बर्फ जमी थी प्रधानमंत्री के हालिया दौरे से वह पिघलती नजर आई। नेपाली प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के निमंत्रण पर बुद्ध जयंती के मौके पर लुंबिनी गये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा भी कि भारत व नेपाल के रिश्ते हिमालय जैसे प्राचीन व अटूट हैं। दोनों देशों के बीच शिक्षा, संस्कृति व विद्युत परियोजना को लेकर हुए छह समझौते इस बात की गवाही देते हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण यह है कि नेपाल को अपने पाले में लाने की कोशिश में जुटे बीजिंग के प्रभाव को कैसे कम किया जाए। भारत व नेपाल में रोटी-बेटी का रिश्ता रहा है। हमारे सदियों पुराने सांस्कृतिक व आध्यात्मिक संबंधों का विकल्प चीन कदापि नहीं बन सकता। लंबी राजनीतिक अस्थिरता के बाद प्रधानमंत्री बने देउबा के कार्यकाल में रिश्तों में आई गर्मजोशी रिश्तों की प्राचीनता का अहसास कराती है। बहरहाल, चीन के साम्राज्यवादी मंसूबों से छोटे देशों की अस्मिता को उत्पन्न खतरे को अब नेपाल भी महसूस करने लगा है।
उसे अहसास हो चुका है कि भारत-नेपाल के रिश्ते महज कारोबारी नहीं हैं। दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों द्वारा इंडिया इंटरनेशनल सेंटर फॉर बौद्ध कल्चर एंड हेरिटेेज की आधारशिला इसका जीता-जागता प्रमाण है, जिससे दुनिया भर के बौद्ध पर्यटकों को आकर्षित किया जा सकेगा। निस्संदेह वर्ष 2016 के बाद चीन ने नेपाल में भारी निवेश किया है और आज बड़े विकास प्रोजेक्टों में उसकी भूमिका है। जिस दिन प्रधानमंत्री नेपाल की यात्रा पर थे उसी दिन लुंबिनी से कुछ ही दूर 76 मिलियन डॉलर से चीनी कंपनी द्वारा बनाये गये अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे का उद्घाटन किया गया। इस हवाई अड्डे का उपयोग न करके, हेलीकॉप्टर से नेपाल जाकर प्रधानमंत्री ने चीन को संदेश भी दिया। बहरहाल, चीन के सुर में भारत विरोध करने वाले नेपाली शासकों के दौर को अब बीते दिनों की बात मान लेना चाहिए। रिश्तों में हालिया गर्मजोशी उसकी बानगी है। दरअसल, चीन की साम्राज्यवादी नीतियों व महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड परियोजना का भान नेपाल को होने लगा है।
श्रीलंका समेत कई देशों की संप्रभुता जिस तरह खतरे में पड़ी है, उसने नेपाली हुकमरानों को सचेत किया है। निस्संदेह, भारत व्यापार, ऊर्जा, बुनियादी ढांचे के विकास, कला व संस्कृति जैसे क्षेत्रों में सहयोग करके नेपाल को ड्रैगन के दबदबे से राहत दिला सकता है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री की दूसरी पारी की पहली नेपाल यात्रा को महत्वपूर्ण माना जा रहा है। कह सकते हैं कि दोनों देशों के संबंधों में यह नये दौर की शुरुआत है। बीते वर्षों में जिस तरह से भारत के खिलाफ कम्युनिस्ट पार्टी के नेता विष वमन कर रहे थे, वह हमारे लिये कष्टकारी ही था। तब आशंका पैदा हो गई थी कि सदियों पुराना मित्र देश चीन का पिट्ठू बनने जा रहा है।
लेकिन भारत ने बीती बातों को नजरअंदाज करके एक नई शुरुआत की है। वैसे नेपाल को भी अब अच्छी तरह अहसास हो गया है कि उसकी अर्थव्यवस्था भारत के सहयोग के बिना नहीं चल सकती। सात दशक पूर्व दोनों देशों के बीच हुई संधि इस बात की पर्याय रही है। जिससे दोनों देश आपसी सहयोग से आगे का रास्ता तय करते रहे हैं। जिसके मूल में धार्मिक, सांस्कृतिक व ऐतिहासिक रिश्तों की ताकत भी रही है।
जिसे दोनों देशों की बड़ी हिंदू व बौद्ध आबादी और मजबूत बनाती है। कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री की लुंबिनी यात्रा उदार कूटनीति का ही हिस्सा रही है। ऐसे में विश्वास किया जाना चाहिए कि अब चीन नेपाल को भारत के खिलाफ इस्तेमाल नहीं कर पायेगा। साथ ही सीमा और अन्य मुद्दों पर जो विवाद हैं उनका निस्तारण बातचीत के जरिये करने के प्रयास होंगे। देर से ही सही, नेपाल को अब लगाने लगा है कि भारत-नेपाल के रिश्ते सामरिक व आर्थिक महत्वाकांक्षाओं से परे हैं, जबकि चीन नेपाल में अपने साम्राज्यवादी हित तलाशता रहा है। बहरहाल, दोनों देशों के रिश्तों में आई गर्मजोशी सुखद ही कही जायेगी। निस्संदेह, भू-राजनीतिक लक्ष्यों की दृष्टि से नेपाल का भारत के लिये विशेष महत्व भी है।
दैनिक ट्रिब्यून के सौजन्य से सम्पादकीय
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Gulabi Jagat
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