सम्पादकीय

तालिबान से रिश्ते: काबुल में आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल भेजने की नई पहल

Neha Dani
21 Jun 2022 2:41 AM GMT
तालिबान से रिश्ते: काबुल में आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल भेजने की नई पहल
x
मान्यता देने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। इस मामले में वैश्विक मत और रुख के अनुसार ही उसे फैसला करना चाहिए।

वर्ष 1998 में पाकिस्तान के बारे में दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का यह बयान कि 'हम दोस्त तो बदल सकते हैं, पड़ोसी नहीं बदल सकते', अफगानिस्तान के नए रूढ़िवादी तालिबान शासन के लिए ज्यादा प्रासंगिक एवं यथार्थवादी है, क्योंकि भारत ने काबुल में आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल भेजने की नई पहल की है, जिससे इतिहास के गहरे रिश्तों को सामान्य बनाने में मदद मिल सकती है। दोनों देशों के रिश्तों में वर्ष 1999 से 2021 के बीच प्रगाढ़ता आई, क्योंकि अमेरिका ने अफगानिस्तान के लोगों की प्रगति और विकास में भागीदार बनने के भारत के उत्साह का समर्थन किया। भारत के लोग भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अफगान के समर्थन, सीमांत गांधी कहे जाने वाले खान अब्दुल गफ्फार खान के योगदान और उन महत्वपूर्ण क्षणों को याद कर सकते हैं, जब ठीक सौ वर्ष पहले काबुल में पहली निर्वासित भारत सरकार महाराजा महेंद्र प्रताप और मौलाना बरकतुल्लाह द्वारा बनाई गई थी। अफगानिस्तान के शासक रहे बादशाह अमानुल्लाह खान ने एक बार महाराजा से कहा था कि जब तक भारत स्वतंत्र नहीं होता, अफगानिस्तान सही मायनों में स्वतंत्र नहीं है।


भले ही अभी काबुल के शासकों की पाकिस्तान के साथ निकटता हो, पर इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि अफगानिस्तान के लोग भारत के प्रति सद्भावना रखते हैं, क्योंकि भारत सरकार ने पिछले दो दशकों में वहां तीन अरब डॉलर का निवेश किया है। विदेश मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, भारत अफगानिस्तान का विकास-साझेदार रहा है, जिसने वहां के 34 प्रांतों में से प्रत्येक में पांच सौ से अधिक परियोजनाओं का विकास किया है और खासकर बिजली, पानी की आपूर्ति, सड़क संपर्क, स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, कृषि और क्षमता निर्माण जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अफगानिस्तान की कायापलट कर दी है। ये परियोजनाएं अफगानिस्तान सरकार को सौंप दी गई हैं और तालिबान ने मुल्क के विकास में भारत के योगदान को सराहा है। भारत ने वहां 200 से अधिक सार्वजनिक और निजी स्कूलों का निर्माण किया है, 1,000 से अधिक छात्रवृत्तियां प्रायोजित की है और 16,000 से अधिक अफगान छात्रों की मेजबानी की है। पिछले दो दशकों के दौरान भारत-अफगानिस्तान के बीच संबंधों की कोई सीमा नहीं थी, जो अमेरिका की वापसी से पहले और अगस्त, 2021 में तालिबान द्वारा कब्जा किए जाने तक कायम थी।

मौजूदा स्थिति की जरूरत के मद्देनजर तालिबान के साथ रिश्तों में जमी बर्फ पिघलाने की भारत की पहल की तालिबान शासकों ने प्रशंसा की है और इसे दोनों देशों के रिश्तों को मजबूत बनाने के लिए एक अच्छी शुरुआत बताया है। वरिष्ठ राजनयिक जेपी सिंह के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल ने अफगानिस्तान के तालिबान शासन के कार्यवाहक विदेश मंत्री अवलावी अमीर खान मुत्ताकी के साथ बातचीत की, जिन्होंने बैठक के बाद ट्वीट किया, 'यह बैठक भारत-अफगानिस्तान कूटनीतिक संबंधों, द्विपक्षीय व्यापार और मानवीय सहायता पर केंद्रित
थी।' विशेषज्ञों का कहना है कि इन मुद्दों पर बातचीत केंद्रित रहने का मतलब है कि भविष्य में दोनों देशों के रिश्ते बेहतर हो सकते हैं। तालिबान के सत्ता में आने के बाद अफगानिस्तान ने भूख और गरीबी का सामना किया है।
भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची के मुताबिक, विदेश मंत्रालय के अधिकारियों की यात्रा से यह अर्थ लगाना ठीक नहीं होगा कि भारत तालिबान शासन से रिश्ते जोड़ना चाहता है। भारत ने कोविड-19 वैक्सीन की पांच लाख खुराक, 13 टन दवाएं, लगभग 20,000 टन गेहूं और सर्दियों के कपड़े दान किए हैं, जबकि और अधिक दवा और खाद्यान्न काबुल के रास्ते में हैं। विगत अगस्त में अफगानिस्तान में अपना दूतावास बंद कर देने के बाद भारत सरकार की मौजूदा पहल दोतरफा संबंध बनाए रखने की उत्सुकता को दर्शाती है, अलबत्ता राजनयिक संबंधों के सामान्य होने के बारे में कुछ भी निश्चित नहीं है। पर स्थानीय कर्मचारी अब भी अपना काम कर रहे हैं और काबुल स्थित भारतीय दूतावास का उचित रख-रखाव करते हैं, जो भविष्य में दूतावास को फिर से खोलने की भारत की इच्छा को दर्शाता है। भारतीय राजदूत ने पिछले साल कतर की राजधानी दोहा में तालिबान के प्रतिनिधियों से मुलाकात की थी। भारतीय राजदूत और तालिबान के राजनीतिक कार्यालय के प्रमुख शेर मोहम्मद अब्बास स्टेनकजई के बीच वह बैठक सकारात्मक माहौल में संपन्न हुई थी। यह कूटनीतिक लाभ लेने की कोशिश करने वाले पाकिस्तान को हैरान करने के लिए काफी था। तब बीजिंग ने भी उस बैठक के महत्व को कम करने की कोशिश की थी।
जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय के चांसलर और पाकिस्तान के पूर्व उच्चायुक्त जी. पार्थसारथी कहते हैं कि, आम धारणा के विपरीत, अफगानिस्तान एक अखंड देश नहीं है। वहां 14 अलग-अलग जातीय एवं भाषायी समुदाय हैं। पार्थसारथी के मुताबिक, चीन और अन्य देशों की अफगानिस्तान में दिलचस्पी का एक प्रमुख कारण उसके खनिज और भौतिक संसाधन हैं। चीन इस पूरे क्षेत्र में वित्त और बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए अपनी योजना का विस्तार करना चाहता है, ताकि पश्चिम एशिया के बाजारों तक बेल्ट ऐंड रोड की पहुंच हो सके। इस पृष्ठभूमि में तालिबान, पाकिस्तान और चीन की तिकड़ी यह सुनिश्चित करेगी कि पाकिस्तान के बलूचिस्तान इलाके में भारत परेशानी पैदा न करे। तालिबान चीन को अपना मित्र बताते हैं और चीन हमेशा भारत को दूर रखने की कोशिश करेगा, जो उसके सहयोगी पाकिस्तान की मदद से होगा। हालांकि पाकिस्तान और तालिबान के रिश्तों में खटास भी देखने को मिली है।
तालिबान की एक मुख्य चिंता सीमा से लगी बाड़ है, जिसे वे यह दावा करते हुए विभिन्न स्थानों पर हटा रहे हैं, कि पाकिस्तान के पास डूरंड रेखा पर बाड़ लगाने का अधिकार नहीं है। भारतीय दूतावास के आंकड़ों के अनुसार, अफगानिस्तान को भारत करीब एक अरब डॉलर का निर्यात करता है, जबकि अफगानिस्तान से भारत का आयात लगभग 53 करोड़ डॉलर है। भारत को अफगानिस्तान के साथ रिश्ते सामान्य बनाने की पहल अवश्य करनी चाहिए, लेकिन उसे मान्यता देने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। इस मामले में वैश्विक मत और रुख के अनुसार ही उसे फैसला करना चाहिए।

सोर्स: अमर उजाला

Next Story