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शोभना जैन
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में दो वर्ष पूर्व 15-16 जून 2020 को चीन की सेना पीएलए द्वारा भारतीय सैनिकों पर किए गए खूनी हमले के बाद हुई झड़पों के बाद से दोनों देशों के बीच रिश्तों में तनाव बना हुआ है या यूं कहें कि चीन की बढ़ती आक्रामकता की वजह से दोनों के रिश्ते बहुत ठंडेपन के दौर में हैं.
दोनों देशों के बीच 2020 से तनाव कम करने के लिए आपसी सहमति से शुरू हुई पंद्रह दौर की सैन्य वार्ता के बाद भी चीन के रवैये की वजह से स्थिति जस की तस बनी हुई है.
चीन ने नहीं निभाया अपना वचन
वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अतिक्रमण वाले क्षेत्र से सेना हटाने और पीछे करने के बारे में चीन के साथ हुई सहमति के बाद भी चीन ने न केवल अपने वचनों का पालन नहीं किया है बल्कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर वह अपना सैन्य आधारभूत ढांचा बढ़ा रहा है और आबादी के लिए गांवों को बसा
रहा है.
नई चिंता की बात यह है कि लद्दाख में उसने भारतीय सीमा के अंदर मानी जाने वाली भूमि से पेंगोंग झील पर अपने इलाके से वास्तविक नियंत्रण वाले क्षेत्र तक एक पुल बना लिया है. गलवान संघर्ष से पहले अप्रैल 2020 तक भारतीय सैनिक हमारे जिस क्षेत्र पर गश्त लगाते रहे हैं, अब वह भारतीय सैनिकों को वहां गश्त लगाने नहीं देता है. भारत भी अपना रक्षात्मक सुरक्षा ढांचा बढ़ा रहा है. सीमा के दोनों ओर सैन्य गतिविधियों में बढ़ोत्तरी हुई है.
भारत अब भी शांति बहाल के पक्ष में है
क्षेत्र में आधुनिक हथियारों की तैनाती की जा रही है, बुनियादी ढांचे के विकास सहित सेनाओं की ओर से युद्धाभ्यास लगातार जारी है. हालांकि भारत का यही मानना है कि भारतीय सेना का मकसद चीन की सेना पीएलए के साथ विश्वास और शांति को फिर से बहाल करना है लेकिन निश्चय ही ये एकतरफा मामला नहीं हो सकता है. गतिरोध को खत्म करने के लिए चीन को भी इसके लिए पहल का जवाब देने की जरूरत है.
वास्तविक नियंत्रण रेखा पर पूर्वी लद्दाख में चीन न केवल गलवान सहमति के बावजूद पूरी तरह से अपनी सेनाएं वापस नहीं हटा रहा है, बल्कि अपना सैन्य ढांचा वहां निरंतर बढ़ा रहा है, हालांकि दोनों देशों के बीच व्यापार लगातार बढ़ रहा है.
चीन के बढ़ते कदम को रोकने के लिए 'क्वाड गठबंधन' का हुआ गठन
अहम बात यह है कि एशिया प्रशांत क्षेत्र में विशेष तौर पर चीन की बढ़ती आक्रामकता और विस्तारवादी एजेंडे से चिंतित होकर भारत सहित अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया जैसे देश 'क्वाड गठबंधन' के तहत अपने सुरक्षा, आर्थिक और राष्ट्रीय हितों की खातिर उसको टक्कर देने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन स्थिति यह है कि चीन की आक्रामकता के खिलाफ बड़ी शक्तियों की एकजुटता के बावजूद चीन की आक्रामकता बेलगाम होती जा रही है।
चाहे वह वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर भारत के साथ सीमा अतिक्रमण हो, हिंद प्रशांत क्षेत्र हो या दक्षिण सागर क्षेत्र, दक्षिण एशिया क्षेत्र में वर्चस्व स्थापित करना हो. यानी विस्तारवाद को येन केन प्रकारेण आगे बढ़ाना ही उसका साफ एजेंडा है.
भारत के पहल के बाद भी चीन नहीं चाहता है मतभेद सुधारना
पिछले दो वर्षों में चीन की आक्रामकता से ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता है कि वह भारत के साथ इस मुद्दे को सुलझाना चाहता है. वर्ष 2020 में गलवान संघर्ष के बाद दोनों देशों के बीच तनाव घटाने के बारे में जिन कदमों पर सहमति जताई गई थी, उनका चीन ने न केवल निरादर किया है बल्कि वह यह जता रहा है ये सहमतियां उसके लिए बेमायने हैं.
बहरहाल, गत मार्च में विदेश मंत्री डॉ. जयशंकर और चीन के विदेश मंत्री वांग यी के बीच हुई मुलाकात के बाद इसी सप्ताह राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने चीन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के साथ पांच देशों की वर्चुअल ब्रिक्स बैठक में हिस्सा लिया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अगले सप्ताह चीन में आयोजित वर्चुअल ब्रिक्स शिखर बैठक में हिस्सा लेंगे, जिसमें चीन के राष्ट्रपति शी भी हिस्सा लेंगे.
सीमा पर दोनों देशों की सेना डटी हुई है
गलवान संघर्ष के दो वर्ष बाद अब भी वास्तविक नियंत्रण सीमा पर दोनों देशों के लगभग 60000 सैनिक अत्याधुनिक हथियारों के साथ आमने-सामने डटे हुए हैं. हालांकि फिलहाल तो यही लग रहा है कि दोनों पक्षों के बीच तनाव वाल क्षेत्र में कुछ झड़पें भले ही हों लेकिन तनाव गंभीर नहीं होगा, लेकिन जब तनाव के माहौल में फौजें आमने-सामने डटी हों तो तनाव के उग्र रूप लेने का खतरा बना ही रहता है.
इस तनाव को कम करने के लिए राजनयिक प्रयासों के साथ सैन्य वार्ताओं का दौर जारी है लेकिन बेहद जरूरी है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन गलवान संघर्ष से पहले यानी 2020 की स्थिति पर अपने सैनिकों को वापस तैनात करे. बहरहाल, चीन की घरेलू राजनीति के दबाव, नए-नए अंतरराष्ट्रीय समीकरणों और तनाव कम करने की भारतीय पहल के जवाब को लेकर निश्चय ही चीन को दिखाना होगा कि आखिर उसकी मंशा क्या है.
पीछे हटने का नाम नहीं ले रहा है चीन
हालांकि, यह इबारत भी साफ पढ़ी जा सकती है कि अंतरराष्ट्रीय जगत में चीन के अपने विस्तारवादी एजेंडा और आक्रामकता के चलते अलग-थलग पड़ते जाने के बावजूद उसकी आक्रामकता न केवल जस की तस है बल्कि बढ़ती जा रही है. जरूरी है कि वह न केवल भारत के साथ अब तनाव कम करने की पहल पर सकारात्मक रवैया अपनाए बल्कि अंतरराष्ट्रीय जगत में अपने आक्रामक विस्तारवादी एजेंडा की वजह से लगातार अलग-थलग पड़ जाते रहने की स्थिति को भी समझे.
Rani Sahu
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