सम्पादकीय

सामाजिक समरसता के प्रतिबिंब : क्या श्रीराम का जीवन कलियुग में प्रासंगिक है? रामायण केवल आस्था का विषय नहीं

Neha Dani
23 Oct 2022 2:44 AM GMT
सामाजिक समरसता के प्रतिबिंब : क्या श्रीराम का जीवन कलियुग में प्रासंगिक है? रामायण केवल आस्था का विषय नहीं
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श्रीराम द्वारा स्थापित आदर्श— व्यक्ति, समाज और विश्व को अधिक सहज और सुखमय बनाने का भाव रखते है।
क्या द्वापर युग-त्रेता युग संधिकाल के श्रीराम का जीवन कलियुग में प्रासंगिक है? वास्तव में, रामायण केवल आस्था का विषय नहीं, अपितु यह उन सब जीवन मूल्यों का समावेश है, जो व्यक्ति, समाज और विश्व को सुखी और संतुष्टमयी रहने का मार्ग दिखाता है। राम की जीवन यात्रा का विवेचनात्मक अध्ययन, बहुत से स्थापित मिथकों को ध्वस्त करता है।
आज वनवासियों को 'वंचित', 'अशिक्षित', 'असभ्य', तो वनों को 'अविकसित' के रूप में परिभाषित किया जाता है। राम के समय सभी नागरिक एक समान थे, कुछ वनवासी थे, तो शेष नगरवासी। वे शिक्षा ग्रहण करने वन स्थित ऋषि-मुनियों के आश्रम गए। जिन महान तपस्वियों, साधु-संतों ने श्रुति-स्मृति का निर्माण किया, वे सभी वनवासी थे- अर्थात्, सनातन भारत में वन ज्ञान, तपस्या और अध्यात्म का केंद्र थे।
एक मनुष्य को प्रत्येक स्थिति में कैसा आचरण करना चाहिए, उसके लिए श्रीराम आदर्श हैं। पिनाक (शिव धनुष) का टूटना श्रीराम के जीवन की एक अद्वितीय घटना है। उनके लिए यह उत्सव और सफलता का क्षण है। लक्ष्मण के व्यंग्यों से महान शिवभक्त परशुरामजी क्रोधित हो उठे। दोनों ओर उत्तेजना चरम पर है और भीषण टकराव की आशंका है।
तब राम सफलता के उत्कृष्ट क्षण में अपने विनम्र व्यवहार और मधुर-वाणी से स्थिति को संभालते हैं और क्रोधित परशु रामजी शांत होकर हिमालय चले जाते हैं। सफलता के शिखर पर पहुंचकर भी एक व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिए, उसमें श्रीराम अनुकरणीय हैं।
श्रीराम सामाजिक समरसता के प्रतिबिंब हैं। अपने जीवन के सबसे कष्टमयी कालखंड में श्रीराम ने सहयोगी और सलाहकार वनवासियों को ही बनाया, जिसमें केवट निषाद, कोल, भील, किरात और भालू सम्मिलित रहे। यदि श्रीराम चाहते तो, अयोध्या या जनकपुर से सहायता ले सकते थे। परंतु उनके साथी वह जन बने, जिन्हें आज आदिवासी, दलित, पिछड़ा या अति-पिछड़ा कहा जाता है। इन सभी को श्रीराम ने 'सखा' कहकर संबोधित किया, तो वनवासी हनुमान को लक्ष्मण से अधिक प्रिय बताया। सुनु कपि जिय मानसि जनि ऊना। तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना॥
भील समुदाय की शबरी माता का पिछड़ापन दोहरा है, क्योंकि वह गैर-अभिजात वर्ग की स्त्री हैं। श्रीराम शबरी के जूठे बेर सप्रेम ग्रहण करते हैं। राम को देखकर शबरी कहती हैं, अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महं मैं मतिमंद अघारी।। इस पर रघुनाथ कहते हैं- कह रघुपति सुनू भामिनि बाता। मानउं एक भगति कर नाता।। जाति पांति कुल धर्म बड़ाई। धनबल परिजन गुन चतुराई।। भगति हीन नर सोइह कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा।।
अर्थात्- मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध मानता हूं। जाति, पांति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता- इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल। मां सीता की रक्षा में अपने प्राणों की बाजी लगाने वाले मांसाहारी गिद्धराज जटायु, जोकि वर्तमान में एक निकृष्ट पक्षी है— उसे श्रीराम कर्मों से देखते हैं और एक पितातुल्य बोध के साथ उसका अंतिम-संस्कार करते हैं। यह सूचक है कि श्रीराम के लिए केवल कर्म ही महत्व रखता है, शेष निरर्थक।
रावण कौन था? वह पुलस्त्य कुल में जन्मा ब्राह्मण, प्रकांड पंडित, महाप्रतापी, महान शिवभक्त, स्वर्ण लंका का सर्वशक्तिशाली स्वामी था। परंतु वह आचरण से दुराचारी, कामुक और भ्रष्ट था। इसलिए हनुमान जी ने अधर्म के प्रतीक लंका का दहन, तो श्रीराम ने रावण का वध किया।
इस घटना से रेखांकित होता है कि आध्यात्मिक मूल्यों और सामाजिक व्यवस्था की रक्षा हेतु सभ्य समाज को पद-कद-वर्ग आदि की चिंता किए बिना इन जीवनमूल्यों के शत्रुओं को दंडित करना चाहिए। यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस मूल्य को पुनर्स्थापित किया जाए, तो हम स्वस्थ समाज की रचना कर सकते हैं।
श्रीराम सदैव मर्यादा की परिधि में रहे, इसलिए वे मर्यादापुरुषोत्तम कहलाए। राजधर्म की कीमत होती है, जिसे राम ने चुकाया। जब वह अयोध्या नरेश बने, तब उनके लिए प्रजा सर्वोपरि और शेष निज-संबंध गौण हो गए। एक धोबी, जो वर्तमान नैरेटिव में दलित है— उसके कहने पर अपनी प्रिय सीता का त्याग कर दिया।
महर्षि वाल्मिकी प्रणीत रामायण में श्रीराम कहते हैं, प्रत्ययार्थं तु लोकानां त्रयाणां सत्य संश्रय:। उपेक्षे चापि वैदेहीं प्रविशन्तीं हुताशनम्।। अर्थात्- तीनों लोकों के प्राणियों को विश्वास दिलाने हेतु एकमात्र सत्य का सहारा लेकर मैंने अग्नि में प्रवेश करती विदेह कुमारी सीता को रोकने की चेष्ट नहीं की।
भारतीय वांग्मयों की मार्क्स-मैकॉले मानसपुत्रों ने अपने कुटिल एजेंडे के अनुरूप विवेचना की है। उनका उद्देश्य सामाजिक कुरीतियों को मिटाना नहीं, अपितु उनका उपयोग करके 'असंतोष' का निर्माण करना है। जहां अन्याय नहीं होता, वहां वे झूठे नैरेटिव के बल पर 'असंतोष' को गढ़ते है। ऐसे ही कई मिथकों से वर्ग-संघर्ष अर्थात् हिंसा को जन्म दिया जाता है।
रामायण, महाभारत इत्यादि के साथ भी वामपंथियों ने यही किया है। राम अपने जीवन काल में मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए, तो उनके द्वारा प्रदत्त मूल्य वर्तमान में आज भी प्रासंगिक है। श्रीराम द्वारा स्थापित आदर्श— व्यक्ति, समाज और विश्व को अधिक सहज और सुखमय बनाने का भाव रखते है।

सामाजिक समरसता के प्रतिबिंब : क्या श्रीराम का जीवन कलियुग में प्रासंगिक है? रामायण केवल आस्था का विषय नहीं

सोर्स: अमर उजाला

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