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- ‘लाल आतंक’ कब तक?
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By: divyahimachal
नक्सली दो साल के बाद, छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में ही, एक बड़ा और भयानक हमला करने में कामयाब रहे हैं। हमले में हमारे 10 जवान और एक ड्राइवर ‘शहीद’ हुए हैं। इससे पहले 4 अप्रैल, 2021 को बीजापुर, सुकमा जिले के बॉर्डर पर नक्सली हमले में 22 जवान ‘शहीद’ हुए थे। दंतेवाड़ा नक्सली गतिविधियों का मुख्यालय माना जाता है। इतिहास का सबसे भयावह और त्रासद हमला 6 अप्रैल, 2010 को दंतेवाड़ा में ही किया गया था, जिसमें सीआरपीएफ के 76 जांबाज ‘शहीद’ हो गए थे। अप्रैल और दंतेवाड़ा के नाम हमारी बदकिस्मती और त्रासदी की कई कहानियां दर्ज हैं। नक्सली आंदोलन और सुरक्षा बलों के टकराव ‘सनातन’ रहे हैं। हालांकि बीते 12 सालों में ‘लाल आतंकवाद’ करीब 77 फीसदी कम हुआ है, लेकिन आज भी देश के 70 से अधिक जिलों में नक्सलवाद मौजूद और सक्रिय है। यह आंकड़ा कम नहीं है। मौजूदा हमला हमारी रणनीति की नाकामी भी है, क्योंकि फर्जी सूचनाएं मिलती रही हैं, लिहाजा सुरक्षा बलों के ऑपरेशन किए जाते रहे हैं। ऐसे ही ऑपरेशनों के दौरान हमारे जवान नक्सली साजिश का शिकार होते रहे हैं।
कमाल है कि बारूदी सुरंग बिछाने या विस्फोटक लगाने का जवाब हम आज तक नहीं दे पाए हैं। ये साजिशें जारी रही हैं। इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ। ‘लीड’ मिली थी कि दंतेवाड़ा में नक्सलियों का एक बड़ा नेता मौजूद है। करीब 250 जवानों के दस्तों का ऑपरेशन शुरू किया गया, लेकिन तीन दिनों की गहन तलाशी के बावजूद कोई भी नक्सली नहीं मिला, तो डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड (डीआरजी) के जवान लौट रहे थे। उसी दौरान नक्सलियों ने आईईडी से विस्फोट किया। बताते हैं कि 40 किलोग्राम से ज्यादा विस्फोटक का इस्तेमाल किया गया, जिससे मुख्य सडक़ पर ही 15 फुट चौड़ा और 7 फुट गहरा गड्ढा हो गया। विस्फोट इतना ताकतवर था कि वाहन का चेसिस और पहिया 50 मीटर दूर पड़े थे। गाड़ी के परखच्चे उड़ गए थे और शहीद जवानों के हथियार टूट-फूट गए थे। नक्सलवाद को खत्म करने की रणनीतियां भारत सरकार के स्तर पर बनती रही हैं। कभी सेना को भेजने का विचार आता रहा है, लेकिन नक्सली घने जंगलों में अड्डे बनाकर रहते हैं, जहां बीते 50 सालों के दौरान कोई भी सरकारी अफसर या सुरक्षा बल के जवान नहीं घुस सके हैं। वहां का भूगोल तक हमारी सरकारें नहीं जान पाई हैं, तो गुरिल्ला लड़ाई से मुकाबला कैसे संभव है? नक्सलियों पर सर्जिकल स्ट्राइक का मुद्दा भी उठा है, लेकिन ऐसे पलटवार हमले में मासूम लोग, बच्चे, बूढ़े और महिलाएं भी मारे जा सकते हैं। नतीजतन वह मानवाधिकार और राजनीतिक चीखा-चिल्ली का बड़ा मुद्दा बन सकता है। तो फिर सवाल है कि ‘लाल आतंकवाद’ कब तक जारी रहेगा? हालांकि औसतन 400 नक्सली हर साल आत्म-समर्पण कर रहे हैं। यह खुलासा बस्तर रेंज के पुलिस महानिरीक्षक पी. सुंदरराज ने किया है। इस तरह नक्सली मुख्यधारा में आ रहे हैं और ‘लाल आतंकवाद’ के खिलाफ रणनीति तय करने में भी असरदार साबित हो रहे हैं, लेकिन किसानों को न्याय और जमीन मुहैया कराने के जुमलों से शुरू किया गया नक्सली आंदोलन आज ‘हत्यारा आतंकवाद’ बनकर रह गया है। क्या उसके समूल विनाश की कोई कारगर रणनीति हम नहीं बना सकते? यह चुनौती भी सामने है। हम नक्सली या माओवादी आतंकियों के मंसूबे पूरे होते नहीं देख सकते, क्योंकि उनका संसदीय लोकतंत्र में भरोसा ही नहीं है। नक्सली सिर्फ जंगल तक ही सीमित नहीं हैं, उनके आर्थिक मंसूबे भी व्यापक और देशविरोधी हैं।
Rani Sahu
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