सम्पादकीय

लाल बुझक्कड़ बूझ गए

Gulabi
23 Nov 2021 5:31 AM GMT
लाल बुझक्कड़ बूझ गए
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एक साल बाद थूल-मिट्टी वाला चाटने से तो बच जाते

जुम्मन मस्ती में गाते हुए तेज़ कदमों से बढ़े जा रहे थे, 'देख अभी है कच्चा दाना, पक जाए तो खा।' अचानक ़फुम्मन उन्हें रोकते हुए बोले, 'अमां यार! बिना वीज़ा के कहां अमेरिका दौड़े जा रहे हो? कम से कम एक सवाल का जवाब तो देते जाओ।' जुम्मन ने रुकते हुए उन्हें सवालिया नि़गाहों से देखा तो पूछने लगे, 'थूक के चाटना बेहतर है या चाट के थूकना? हां, ज़रा लगे हाथ यह भी बता दो कि पंछी कच्चा दाना खाए या पका हुआ?' जुम्मन हँसते हुए बोले, 'अगर अपना हो तो कोई हर्ज़ नहीं। चाहे थूक के चाटो या चाट के थूको। लेकिन अकेले में। पब्लिक के सामने थूकोगे तो हँसी का पात्र बनोगे। जहाँ तक दाने की बात है अगर गोदाम कच्चा भी आ जाए तो उसकी प्रोसेसिंग हो सकती है।' बातों-बातों में ़फुम्मन उन्हें अपने घाट पर खींच लाए थे। बस धोना बा़की था। कपड़ों की तरह उन्हें पानी में डुबोते हुए बोले, 'मियाँ! आप तो कृषि बिलों के घोर समर्थक थे। अचानक पलटी खाने पर क्या बोलोगे?

आसन्न चुनावों के मद्देनज़र आपके कृषि विकास, किसान कल्याण, राष्ट्रवाद और देशहित ने थूक के चाटा या चाट के थूका?' किसी मँझे नेता की तरह जुम्मन ने बेशर्मी के एक डाल से दूसरे डाल पर गुलाटी मारी और हँसते हुए बोले, 'हम क्या लाल बुझक्कड़ से कम हैं? समय रहते हमने सब बूझ लिया कि नहीं। जब हिरन पाँव में चक्की बाँध के कूद सकता है तो हम संवेदनशील क्यों नहीं हो सकते। देखो, हमने साल पूरा होने से पहले ही किसान आंदोलन के 358वें दिन कृषि ़कानून वापिस लिए या नहीं। हमने पहले ही कहा है कि देशहित में हम कुछ भी कर सकते हैं। बशर्ते अपनी कुरसी सलामत रहे। अगर कुरसी के पाए टूट गए तो बैठेंगे कहाँ? देश सेवा तो तभी होगी न जब कुरसी पर बैठे होंगे। तुमने तो देखा है कि सत्ता छिटकते ही लोग कैसे नज़रें फेर लेते हैं। यहाँ तक कि चम्मचों की तरह साया भी घटाटोप हो जाता है। रही बात हमारी, हमने जब किसानों पर कृषि बिल थोपे थे, तब भी किसानों के कल्याण के लिए प्रतिबद्ध थे और आज जब कृषि ़कानून वापिस लेने की घोषणा की है, तब भी उनके कल्याण के लिए प्रतिबद्ध हैं। किसानों ने हमसे अपना कल्याण करने के लिए नहीं कहा था। बस हमीं थे जो उनका भला करना चाहते थे।
देशहित में कृषि ़कानून लाए थे, राष्ट्रहित में वापिस ले लिए। इस तरह थूका भी हमारा था और अब चाटा भी हमारा।' फुम्मन गंभीर होते हुए बोले, 'क्या अगले बरस किसानों की आय दोगुनी करने का प्रधान सेवक का संकल्प ़खातों में आने वाले 15 लाख रुपए की तरह केवल जुमला साबित होगा? प्रधान सेवक ने सच्चे मन बताया कि उनकी तपस्या में कमी रही होगी जिसके चलते दीये के प्रकाश जैसा सत्य कुछ किसान भाइयों को नहीं समझा पाए। सवाल है कि क्या कृषि ़कानून झूठे मन से बनाए थे, जो अब सच्चे मन से बताना पड़ रहा है। तपस्या किसने की? किसानों या सरकार ने। बिना मेनका के नाचे ही सरकार की तपस्या टूट गई। भूल गए कि पब्लिक के सामने ज़बरदस्ती भला थूका और बेबसी में चाट भी लिया। जिस टूलकिट से सहारे किसानों को टुकड़े-टुकड़े गैंग कहा जा रहा था, वह गैंग तो अंत तक जुड़ी रही। पता नहीं आंदोलन में किसान बैठे थे या आढ़ती? दलाल थे, आतंकी या माओवादी? लेकिन आरोपों के इस भँवर में तथाकथित टूलकिट, स्टूलकिट में बदल गया। कृषि ़कानूनों पर मुझे एक कहावत याद आ रही है 'रोए भी गँवाई, ससुराल भी ना गई।' अगर थूक के ताज़ा-ताज़ा चाट लिया होता तो कम से कम जीभ का स्वाद तो कसैला न होता। एक साल बाद थूल-मिट्टी वाला चाटने से तो बच जाते।'
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं
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