सम्पादकीय

फिर बिछने लगा लाल गलीचा

Rani Sahu
27 July 2023 2:26 PM GMT
फिर बिछने लगा लाल गलीचा
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चुनाव करीब हैं और नेता जी अपने शासनकाल की सफलता का लेखा-जोखा करने चले हैं। पिछली बार जब चुनाव जीते थे, उन्होंने वायदों के लाल गलीचे बिछा दिए थे। कहा था, वायदे का पक्का हूं, अपने शासनकाल में एक भी आदमी भूख से मरने नहीं दूंगा। एक भी बेकार को नौकरी के लिए छटपटाने नहीं दूंगा। लोगों के दफ्तरी काम चौबीस घंटे में करवा देने का वायदा तो पुरानी बात है, अब नई बात यह कि सरकारी कारिंदा आपके घर से आपके काम की गुजारिश नहीं, आप से काम का हुक्म लेकर जाएगा, और काम पूरा करने की सूचना सरकारी हस्ताक्षर सहित आपके घर पहुंचा कर दम लेगा। यह वायदा केवल एक सूबे से नहीं मिला था, जहां-जहां जिस सूबे में नए चुनाव की दुंदुभि बजी, वहां-वहां बेचारे लोगों (जो अब चुनाव के करीब जनता जनार्दन कहलाये जा रहे थे) ने पाया कि लगभग हर चुनाव में उतरने सूबे के गद्दीधारकों ने कम-ज्यादा ऐसे ही वचन देकर पिछली चुनावी महाभारत जीती थी। अब फिर जीतना चाहते थे।
जब चुनावों का इन सब राज्यों में प्रचार भोंपू बजा तो गद्दी के अहलकारों ने फरमाया कि ‘भाई जान, हमारा शासक उम्मीद से अधिक कामयाब रहा है। सरकार बहादुर ने गद्दी पर बैठते हुए जो वायदे किये थे, इनमें से पच्चीस प्रतिशत पूरे कर दिये हैं, जो बाकी पन्द्रह प्रतिशत रह गये थे, वे वोट पडऩे में जो बाकी दिन रह गये हैं, उनमें पूरे कर दिये जायेंगे।’ इसलिए आप पिछले वायदे पूरे हुए कि नहीं, इसकी चिन्ता छोडिय़े। हमारे लेखे-जोखे सब पूरे हुए। यह मान लोगे तभी तो हमें नये सोनपंखी वायवीय वचनों के लाल गलीचे बिछाने का अवसर मिलेगा। ऐसा होता है, सदा ही ऐसे होता है। वायदों की अधूरी इमारत को अधर में लटका नई इमारत की नींव रख दी जाती है। वोट पड़ गये तो अधूरी इमारतें अपनी कहानी सुनाने के लिए श्रोता भी तलाश नहीं कर पाती।
आधी छोड़ पूरी की और भागे, दुविधा में दोनों गये, न माया मिली न राम। नहीं यहां यह बात फिट नहीं बैठेगी। यहां तो अधूरी इमारतों, अधूरे वचनों की बारात सजी है। मतदाता को दूल्हा बनने का अवसर मिलता है, सिर्फ मतदान दिवस पर। उसके बाद तो वह पांच बरस अपनी खो गई बारात, या शुरू हो गई बैंड, बाजा और बारात ही तलाशता रहता है। लेकिन जिन्होंने वायदा किया था, उन्होंने पूरी वायदाखिलाफी की हो, ऐसा अंधेर भी नहीं है। जगह-जगह आपको खुदी हुई सडक़ें, अधूरे बने पुल आज भी अपनी अपूर्णता का रोना रोते नजर आते हैं। जैसे कहते हों, देखो वचन देने वालों की नीयत में खोट नहीं था। अब बीच में सौदा पटाने वाला दलाल या ठेकेदार ही छूमन्तर हो गया। उसे घर से मना कर लाने से तो रहे। क्या करें कभी मालिक की नीयत में खोट हो गया, कभी कामगार ने मुंह फेर लिया। पास करने वाले अफसर की नाक के नीचे हमारी पेश की गयी डाली नहीं आई, तब काम तो रुकना ही रुकना था। फिर अभी अगले चुनाव भी तो कोसों दूर थे, बस नेताओं को इस परिवार पोषण का मर्ज और जनता के प्रति स्मृति भ्रम का रोग हो गया। जनता गुम हो गई इसी भूलभलैया में। सदियों के रोग हैं, दशकों में थोड़ा निबट जाते। यहां बालाई आमदनी की गौरवशाली परम्परा है, हर बरस उसकी श्रीवृद्धि हो रही है। फिर इस बीच अधूरे पुल कैसे पूरे हो जाते, खुदी हुई सडक़ें कैसे भर जातीं? इस देश के लोगों में भी असीम धीरज है भय्या। बस इन्हीं खुदी हुई सडक़ों और अधूरे पुलों से ही काम चला लेते हैं। शुक्र करो, कम से कम यहां इनके निशां तो नजर आ जाते हैं, जो बता देते हैं कि वायदा करने वालों की नीयत इनती बुरी न थी।
सुरेश सेठ
By: divyahimachal
Rani Sahu

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