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हृदयनारायण दीक्षित: जीवन अस्तित्व का प्रसाद है और मृत्यु भी। जीवन और मृत्यु अलग-अलग नहीं हंै। मृत्यु जीवन में ही घटित होती है। यह जीवन का ही अंतिम अध्याय है। अंतिम सत्य है। जन्म और मृत्यु हमारा चयन नहीं होते। जन्म हुआ है तो मृत्यु सुनिश्चित है। सभी मनुष्य जीवन को सुखमय बनाने के लिए सत् कर्म करते हैं। यश, प्रतिष्ठा और सम्मान पाने या दूसरों को सम्मान देने के प्रयत्न करते हैं। यही सब करते हुए जीवन में मृत्यु की घड़ी आती है। यहां प्रियजनों-स्वजनों की अंतिम विदाई सम्मानपूर्वक की जाती है। यह भारत की प्राचीन परंपरा है, लेकिन कोरोना काल में प्रियजनों के शव गंगा जैसी पवित्र नदी में उतराते-सड़ते देखे जा रहे थे। अनेक स्थानों में शवों को नदी तट के बालू में दबाने या खुला छोड़ने के अपकृत्य भी हुए। सम्मानपूर्वक अंत्येष्टि न किया जाना दुखद है। जिनके साथ रहे, जीवन का आनंद मिला, उन्हीं की अंतिम विदाई में ऐसी निर्ममता आहत करने वाली है। अंत्येष्टि की प्राचीन परंपरा और विधि पर पुर्निवचार की आवश्यकता है। केवल महामारी की आपदा में ही नहीं, वरन हमेशा के लिए अंत्येष्टि के नए मार्गदर्शी सूत्रों का गठन जरूरी है।
धर्म सुखपूर्ण जीवन की आदर्श आचार संहिता है