सम्पादकीय

उमर अब्दुल्ला की हकीकत-बयानी

Triveni
27 Jun 2021 2:05 AM GMT
उमर अब्दुल्ला की हकीकत-बयानी
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जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमन्त्री व नेशनल कान्फ्रेंस के नेता श्री उमर अब्दुल्ला ने यह कह कर भारत की जनता का ‘मन’ जीत लिया है कि यह सोचना कि रियासत में अनुच्छेद 370 फिर से लागू होगा नितान्त ‘मूर्खता’ होगी।

आदित्य चोपड़ा | जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमन्त्री व नेशनल कान्फ्रेंस के नेता श्री उमर अब्दुल्ला ने यह कह कर भारत की जनता का 'मन' जीत लिया है कि यह सोचना कि रियासत में अनुच्छेद 370 फिर से लागू होगा नितान्त 'मूर्खता' होगी। उमर साहब का यह कथन जमीनी हकीकत को इस तरह बयान करता है कि कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक हर भारतवासी नागरिक के अधिकार बराबर हैं और किसी भी राज्य के नागरिक के पास किसी प्रकार के विशेष अधिकार नहीं हैं। पूर्व मुख्यमन्त्री की स्वीकृति बताती है कि जम्मू-कश्मीर में विगत 5 अगस्त, 2019 के बाद जमीनी सच्चाई बदली है और इस तरह बदली है कि हर कश्मीरी नागरिक की जयहिन्द का नारा बुलन्द करने में बराबरी की शिरकत है। जम्मू-कश्मीर भारत की आजादी वाले दिन 15 अगस्त, 1947 को भारतीय संघ का हिस्सा नहीं था मगर इसी साल 26 अक्तूबर को जब यह महान भारतीय लोकतान्त्रिक देश का अभिन्न हिस्सा बना तो हमारी फौजों से लेकर साधारण नागरिकों ( खास कर कश्मीरी बकरवालों) ने हजारों कुर्बानियां दी थीं। अतः उमर अब्दुल्ला के बयान के ऐतिहासिक मायने भी हैं और वर्तमान सन्दर्भों में हकीकत बयानी भी ।

कश्मीर की रवायतों को बरकरार रखने के लिए इसके 'बागबां' को हर हिन्दोस्तानी ने कुछ न कुछ कुर्बानी देकर जरूर सींचा है। अतः श्री अब्दुल्ला ने हर हिन्दोस्तानी का एहतराम किया है और कबूल किया है कि खाली विशेष दर्जा देने से किसी कौम का दिल नहीं जीता सकता है बल्कि उसे मुल्क के हर गोशे में इज्जत बख्श कर उसका दिल जीता जा सकता है। जम्मू-कश्मीर की दूसरी राजनीतिक पार्टियों के लिए भी यह यह सबक होना चाहिए कि कश्मीर की तरक्की के लिए भारत के मूल संविधान में शामिल होना कितना जरूरी है। गौर से देखें तो यह हमारा संविधान ही है जो भारत देश की व्याख्या करता है और इसे बनाता है। यह हर बंगाली को कश्मीरी से जोड़ता है और हर मलयाली को उत्तर प्रदेश से बावस्ता रखता है। यह संविधान ही था जिसने कश्मीर को भारत से जोड़ा था और यह संविधान ही है जिसने खुद को कश्मीर में पूरी तरह लागू किया है। अलग विशेष दर्जा लेकर कश्मीर का जब पिछले 70 सालों में कोई फायदा नहीं हुआ तो एसे संवैधानिक उपबन्ध की उपयोगिता क्या थी?
हमें आज भाजपा या कांग्रेस की तरह नहीं सोचना है बल्कि एक भारतीय की तरह सोचना है और यह जहन में रख कर चलना है कि हर नागरिक पहले सच्चा भारतीय है बाद में कश्मीरी या बिहारी। इसका राष्ट्रवाद से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि संविधान से लेना-देना है। क्योंकि संविधान ने ही कश्मीर को खास रुतबा बख्शा था और संविधान ने ही संसद की मार्फत यह रुतबा उससे ले लिया। जहां तक एक अन्य पूर्व मुख्यमन्त्री श्रीमती महबूबा मुफ्ती का सवाल है तो वह नाहक ही 'ज्यादा कश्मीरी' दिखने की कवायद कर रही हैं क्योंकि उनके दिमाग में सिर्फ वे लोग हैं जो कश्मीर को 'त्रिपक्षीय' समस्या मानते हैं। मगर क्या फिजा बदली है जम्मू-कश्मीर की कि आज इस रियासत में हुर्रियत कान्फ्रेंस का कोई नामलेवा नहीं बचा है और हर तरफ से आवाज आ रही है कि राज्य में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया जल्द से जल्द शुरू हो। क्या इसके लिए देश के सभी राजनीतिक दल अपने दलीय हितों का स्वार्थ छोड़ कर गृहमन्त्री अमित शाह को बधाई नहीं दे सकते? बेशक उनसे लाख मतभेद हों मगर जब बात भारत की एकता और कश्मीर की हो तो हमें दलगत भावना से ऊपर उठ कर काम करना चाहिए। अभी तक कहा जाता रहा था कि कश्मीर एक राजनीतिक समस्या है। क्या दिल्ली में हुई बैठक के बाद इसका हल विशुद्ध राजनीतिक तरीके से निकालने की शुरूआत नहीं हुई? इसलिए सवाल न उमर अब्दुल्ला का है और न केन्द्र सरकार का बल्कि सवाल हिन्दोस्तान के 'इकबाल' का है। इस इकबाल को पामाल करने की हर कोशिश का मुंहतोड़ जवाब देने की कूव्वत हुकूमतें हिन्द में होनी चाहिए। इस मोर्चे पर प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह सब्र से काम लेते हुए कश्मीर के राजनीतिक 'तापमान' को राष्ट्रीय 'थर्मामीटर' में उतारा है उससे कश्मीर की सियासत में माकूल बदलाव आया है। यह कोई साधारण या छोटी बात नहीं है कि शेख अब्दुल्ला के पोते व वारिस उमर अब्दुल्ला आज स्वीकार कर रहे हैं कि 370 के मुगालते में कश्मीरियों को रखना मूर्खता होगी ।
यह नहीं भूलना चाहिए कि इस सूबे में पिछले तीस साल से पाकिस्तान की शह पर जिस दहशतगर्दी को नाजिल किया जा रहा था उसकी शिकार यहां की राजनैतिक पार्टियों को भी होना पड़ा है और शायद सबसे ज्यादा नेशनल कान्फ्रेंस के कारकुनों ने ही अपनी जान गंवाई है। इस राज्य की युवा पीढ़ी को विशेष दर्जे का 'झुनझुना' पकड़ा कर यहां के राजनीतिक दल उसकी तरक्की का रास्ता नहीं खोल पाये। अतः उमर साहब ने हकीकत के मद्देनजर जो इजहारे ख्याल किया है वह हर हिन्दोस्तानी में ताजगी भर रहा है और भीतर से वह सोच रहा है,
'देखना तकरीर की लज्जत कि जो उसने कहा
मैंने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है।'


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