सम्पादकीय

महामहिम के सामने यथार्थ

Rani Sahu
26 July 2022 6:43 PM GMT
महामहिम के सामने यथार्थ
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अब भारत गणराज्य की 15वीं राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू हैं। शपथ के बाद उन्होंने कार्यभार संभाल लिया है

By: divyahimachal

अब भारत गणराज्य की 15वीं राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू हैं। शपथ के बाद उन्होंने कार्यभार संभाल लिया है। वह प्रथम आदिवासी महिला हैं, देश के असंख्य गरीबों, दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों की प्रतिबिम्ब हैं, वह देश के युवाओं, बेटियों और महिलाओं का एक आदर्श चेहरा हैं, प्राथमिकता हैं और सामथ्र्य की झलक हैं, वह स्वतंत्र भारत में जन्मीं बेटी हैं, जो देश की राष्ट्रपति हैं, वह भारतीय लोकतंत्र की शक्ति का उदाहरण हैं कि एक गरीब, पिछड़ी, अंधेरों में घिरी बेटी और दूरदराज के आदिवासी इलाकों की एक चेहरा आज भारत के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आसीन हैं। राष्ट्रपति मुर्मू ने एक नया सूत्र-वाक्य दिया है-'सबका प्रयास, सबका कत्र्तव्य।' बेशक यह प्रधानमंत्री मोदी के सूत्र-वाक्य का ही विस्तार है। राष्ट्रपति देश के औसत नागरिक को प्रयास और उसके कत्र्तव्य का बोध भी करा रही हैं। महामहिम द्रौपदी मुर्मू का जि़न्दगीनामा और अभावों, विरोधाभासों के बीच संघर्षों का स$फरनामा देश के सामने अब एक खुली किताब है। अब उनके संवैधानिक जीवन का नया अध्याय शुरू हुआ है, लिहाजा उसी आधार पर मूल्यांकन किया जाना चाहिए कि महामहिम मुर्मू क्या निर्णय लेती हैं। वह 'ज़हरीली राजनीति' की प्रतिनिधि हैं अथवा 'मूत्र्ति' साबित होंगी, ऐसी कीचडऩुमा राजनीति पीछे छोड़ देनी चाहिए, क्योंकि आज वह संपूर्ण भारत की राष्ट्रपति हैं।
फिलहाल अच्छी-अच्छी बातें करने या मुर्मू का स्तुतिगान करने की परंपरा रही है, लिहाजा आलोचना वक़्त पर ही करनी चाहिए, लेकिन आदिवासी समाज के कुछ कुरूप यथार्थ भी हैं, जो महामहिम मुर्मू के संज्ञान में भी होंगे। फिर भी प्रसंगवश हम कुछ आंकड़े पेश कर रहे हैं। 21वीं सदी के भारत और विकास के दावों के बावजूद करीब 73 फीसदी ग्रामीण आदिवासी घरों में शौचालय नहीं हैं। करीब 21 फीसदी घरों में बिजली नहीं है। करीब 75 फीसदी घरों में जल का स्रोत नहीं है। करीब 91 फीसदी घरों की रसोई तक साफ ईंधन की पहुंच नहीं है। करीब 78 फीसदी लोगों के पास पक्का घर नहीं है। मात्र 1.4 फीसदी ग्रामीण आदिवासी ही पक्के घर में रहते हैं, जिनमें बिजली, पानी और शौचालय की व्यवस्था है। करीब 35 फीसदी किसानी करते हैं, तो करीब 45 फीसदी खेतिहर मज़दूर हैं। उनके पास ज़मीन या तो नगण्य है अथवा विवादास्पद् है। वनों पर आदिवासियों का ही प्रथम अधिकार होना चाहिए, यह बहस दशकों से जारी है। आंदोलन भी किए गए हैं, लेकिन वस्तुस्थिति कुछ और ही है। आदिवासियों में 5 साल की उम्र तक के करीब 45 फीसदी बच्चों का वजन कम है, क्योंकि वे कुपोषित हैं। करीब 26 फीसदी स्कूलों में पेयजल ही नहीं है और करीब 71 फीसदी स्कूलों में बिजली नहीं है। करीब 86 फीसदी स्कूलों की चारदीवारी पक्की नहीं है। स्कूलों से बच्चों का 'ड्रॉप आउट' औसत भी चिंताजनक है। बहरहाल ये सभी आंकड़े कम-ज्यादा हो सकते हैं, क्योंकि आदिवासियों पर फोकस बढ़ा है।
ताज़ा जनगणना के आंकड़े जब सामने आएंगे या मोदी सरकार खुलासा करेगी कि आदिवासियों के लिए उसने क्या-क्या किया है, क्या परियोजनाएं बनाई जा रही हैं, तभी आदिवासियों के हालात और भी स्पष्ट होंगे। द्रौपदी मुर्मू जब पहली बार विधायक बनी थीं और ओडिशा की बीजद-भाजपा सरकार में मंत्री थीं, तब उनके प्रयासों से ही उनके गांव में बिजली पहुंची थी। वहां एक नदी थी, जो बरसात के दिनों में परेशान करती थी, उस पर मुर्मू ने ही पुल बनवाया था। बहरहाल मुर्मू का राष्ट्रपति बनना आदिवासियों के यथार्थ तक ही सीमित नहीं है। उसके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आयाम भी हैं। आदिवासी कभी भी भाजपा के वोटर नहीं रहे। वे कांग्रेस का ही परंपरागत वोट बैंक थे, लेकिन अब बदलाव हो रहा है। आदिवासियों का 5-6 फीसदी तक धु्रवीकरण भाजपा के पक्ष में होगा, यह गुजरात, हिमाचल और उसके बाद के चुनावों से साफ़ हो जाएगा। भाजपा को तीन बार महामहिम बनाने का मौका मिला है। उसने अल्पसंख्यक, दलित के बाद आदिवासी महिला को राष्ट्रपति बनवाया है। इससे भाजपा के बुनियादी जनाधार में विस्तार दिख रहा है और आगे भी होगा, क्योंकि आदिवासियों का भाजपा व प्रधानमंत्री मोदी से जुड़ाव स्वाभाविक है।
Rani Sahu

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