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- भारत में वास्तविक...
हमारे देश में नयी और पुरानी पेंशन योजनाओं के गुणों को लेकर गंभीर चर्चा चल रही है. विभिन्न आधारों पर नये समूहों के लिए आरक्षण और कोटा की मांग भी की जा रही है. सेना में छोटी अवधि के लिए जवानों की भर्ती योजना के लिए सरकार की बड़ी आलोचना हुई थी. इन सभी मामलों में और इस तरह की स्थितियों में नकदी की कमी से जूझ रही सरकार से असीम समाधान और वेतन की मांग हो रही है. ‘वित्तीय समझ’ पर ‘प्रतिस्पर्धी पॉपुलिज्म’ हावी हो रहा है. आर्थिक सुधारों से अपेक्षा थी कि वे ऐसा नहीं होने देंगे, लेकिन जिस तरह से उन्हें लागू किया गया, वे ऐसा नहीं कर पाये. तो अब हम ‘दूसरी पीढ़ी’ के सुधारों- अधिक खुलापन, सेवाओं से सरकार का और अधिक अलग होना और उदारीकृत व्यवस्था में निजी क्षेत्र पर अधिक निर्भरता- की चर्चा सुन रहे हैं. ऐसे में यह सरल सवाल पूछा जाना चाहिए कि डॉ मनमोहन सिंह जैसे अनुभवी अर्थशास्त्री के तहत हुए पहले चरण के सुधारों के परिणाम अपेक्षित नहीं रहे, तो दूसरे चरण के खरे उतरने की अपेक्षा क्यों है. हमारी संस्थाओं की तैयारी और क्षमता, शासन तंत्र की गुणवत्ता एवं इनके संचालन की मानसिकता तथा भरे पड़े भ्रष्ट तत्वों को परे रखने से संबंधित बड़े प्रश्न भी हैं. यह समय नये सुधारों को लाने से पहले इन प्रणालियों को परखने और ठीक करने का है.
सोर्स: prabhatkhabar