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सामने आया तालिबान का असली चेहरा, भारत के लिए यह चौकन्ना रहने का समय
तिलकराज। एक लंबी कशमकश और मशक्कत के बाद आखिर काबुल में तालिबान की नई सरकार गठित हो गई है। इस अंतरिम सरकार गठन के साथ ही तालिबान की छवि चमकाने के सभी प्रयासों पर भी पानी फिर गया। जो लोग कह रहे थे कि समय के साथ तालिबान का रवैया बदल गया है और इस कारण उन्हें एक अवसर दिया जाना चाहिए, उनकी दलीलें भी बेदम साबित हुईं। तालिबान सरकार के गठन और उनकी गतिविधियों से यही प्रतीत होता है कि पुराने तालिबान और मौजूदा तालिबान में कोई अंतर नहीं है। आखिर जिस सरकार के मुखिया मुल्ला हसन अखुंद जैसे लोग हों, जिनकी निगरानी में बामियान में भगवान बुद्ध की प्रतिमाएं ध्वस्त की गई हों या फिर जिस सरकार में गृह मंत्रलय की कमान उस सिराजुद्दीन हक्कानी के हाथ में है जो अंतरराष्ट्रीय इनामी आतंकी रहा हो तो उससे भला अच्छे शासन की उम्मीद कैसे की जा सकती है? तालिबान ने समावेशी सरकार की उम्मीदों को लेकर भी नाउम्मीद किया। इस 33 सदस्यीय अंतरिम सरकार में न तो कोई अल्पसंख्यक समुदाय का प्रतिनिधि है और न ही किसी महिला को इसका हिस्सा बनाया गया है।
तालिबान की कट्टर सोच में किंचित परिवर्तन नहीं आया
तालिबान से निराशा केवल मंत्रिमंडल के ढांचे को लेकर ही नहीं हुई है, बल्कि उसकी अभी तक की गतिविधियां भी बताती हैं कि उसकी कट्टर सोच में किंचित परिवर्तन नहीं आया है। उसने पंजशीर में जिस प्रकार बल प्रयोग किया और उसमें पाकिस्तान की मदद लेने से भी नहीं हिचका, उससे दो बातें स्पष्ट हुई हैं। पहली यह कि वह हिंसा के दम पर ही समस्त अफगान भूमि को अपने आधिपत्य में लेना चाहता है और दूसरी यह कि उसे अफगानिस्तान के अंदरूनी मामलों में पाकिस्तानी मदद लेने से कोई गुरेज नहीं। पाकिस्तान और तालिबान के नाभिनालबद्ध संबंधों से तो पूरी दुनिया परिचित है, मगर दुनिया की आंखों में धूल झोंकने के लिए उन्होंने एक पर्दा जरूर रखा, जो बीते दिनों की बेशर्मी में पूरी तरह से उघड़ गया। इसकी शुरुआत पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ के मुखिया फैज हमीद के काबुल दौरे से हुई। माना गया कि हमीद सरकार गठन में आंतरिक मतभेदों को दूर करने के लिए ही काबुल गए थे।
तालिबान की अंतरिम सरकार में अधिकांश चेहरे दुर्दात आतंकी
यह भी एक दुर्योग ही कहा जाएगा कि हमीद के काबुल दौरे के दौरान पंजशीर में भीषण रक्तपात हुआ और हवाई हमले तक किए गए, जिनके पीछे पाकिस्तानी मदद प्रत्यक्ष थी। इससे उपजे आक्रोश का ही परिणाम था कि आम अफगानों ने काबुल की सड़कों पर पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाए। इसमें कोई संदेह नहीं कि अंतरिम सरकार में अधिकांश चेहरे दुर्दात आतंकी हैं, जो संयुक्त राष्ट्र से लेकर अमेरिकी खुफिया एजेंसियों की वांछित सूची में शामिल रहे हैं। कई पर करोड़ों का इनाम भी रहा है। तालिबान भी इससे बखूबी परिचित है कि सरकार के इन चेहरों से वैश्विक स्तर पर अच्छा संदेश नहीं गया। अमेरिका जैसे देशों की आधिकारिक प्रतिक्रिया में यह अभिव्यक्त भी हुआ है
दुनिया को बरगलाने का तिकड़म
तालिबान तर्क दे रहा है कि यह सिर्फ अंतरिम सरकार है। यह कुछ और नहीं, दुनिया को बरगलाने की ही तिकड़म है। असल में तालिबान जल्द से जल्द अंतरराष्ट्रीय समुदाय की स्वीकार्यता चाहता है। यदि एक बार ऐसी मान्यता मिल जाए तो तमाम देशों और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से मिलने वाली मदद पर लगी रोक हटने का रास्ता खुल जाएगा और उसकी गाड़ी दौड़ने लगेगी। हालांकि, हाल-फिलहाल उसकी यह मंशा पूरी होती नहीं दिखती। चीन और पाकिस्तान को छोड़कर कोई अन्य देश तालिबान को मान्यता देने की जल्दबाजी नहीं दिखा रहा। यहां तक कि आरंभ में जिस रूस को तालिबान के पक्ष में माना जा रहा था वह भी संभलकर कदम चल रहा है। वह भू-राजनीतिक समीकरणों का नए सिरे से आकलन कर रहा है। इसीलिए रूसी सामरिक प्रतिष्ठान के कर्ताधर्ताओं ने बीते दिनों भारतीय समकक्षों से वार्ताएं भी की हैं।
अशरफ गनी विश्व बैंक में थे अर्थशास्त्री
दुनिया के कई हिस्सों में तालिबान जितने न सही, लेकिन उसके जैसे चरमपंथी धड़े सत्ता संभाल रहे हैं। अंतर यह है कि उनमें से अधिकांश के पास शासन का एक एजेंडा और उसे चलाने का व्यवस्थित ढांचा है। इसके विपरीत तालिबान के पास ऐसा कुछ नहीं। हिंसक गतिविधियों और कट्टरता के अलावा तालिबान को कुछ नहीं आता। तालिबान से पहले सत्ता संभाल रहे अशरफ गनी विश्व बैंक में अर्थशास्त्री थे। उन्हें नीति-निर्माण और शासन-प्रशासन की समझ थी। ऐसे में बेहतर होता कि तालिबान भी अपनी सरकार में कुछ ऐसे उदार चेहरों को शामिल करता और अल्पसंख्यकों एवं महिलाओं को हिस्सेदारी देता। इससे न केवल अंतररराष्ट्रीय समुदाय में उसके प्रति राय बदलती, बल्कि उसकी सरकार को स्वीकार्यता मिलने में भी सहूलियत होती
तालिबान के उभार के भारत के लिए भी गहरे निहितार्थ
बहरहाल तालिबान सरकार अब एक वास्तविकता है और विश्व समुदाय को उसके साथ संवाद करना ही होगा। हालांकि, संवाद का अर्थ मान्यता प्रदान करना नहीं होता, परंतु संवाद के माध्यम से आप दूसरे पक्ष को एक प्रकार की स्वीकृति तो अवश्य प्रदान करते हैं। चूंकि अफगानिस्तान में आसन्न मानवीय संकट की दुहाई देकर अंतरराष्ट्रीय सहयोग एवं समर्थन के पक्ष में मुहिम चलाई जा रही है इसलिए संभव है कि संयुक्त राष्ट्र अधिकारियों को हक्कानी के साथ मंच साझा करना पड़े। यह भी एक विडंबना ही होगी कि एक अंतरराष्ट्रीय आतंकी के साथ विश्व की सबसे बड़ी संस्था को सामान्य शिष्टाचार के दायरे में भेंट करनी पड़े। तालिबान के उभार के भारत के लिए भी गहरे निहितार्थ हैं। इससे जहां कश्मीर घाटी में जिहादी गतिविधियों में बढ़ोतरी हो सकती है, वहीं चीन और पाकिस्तान के साथ मिलकर सीमा पर भी तालिबान भारत का सिरदर्द बढ़ा सकता है। ऐसे में भारत को और सतर्क रहने के साथ ही तालिबान को दो-टूक लहजे में समझाना होगा कि उसकी धरती से भारत विरोधी गतिविधियां बर्दाश्त नहीं होंगी।
भारत के लिए यह चौकन्ना रहने का समय
दोहा में भारतीय राजदूत के साथ वार्ता के दौरान अफगान प्रतिनिधि ने भारतीय पक्ष को अपनी ओर से आश्वस्त करने का प्रयास अवश्य किया कि उन्हें पाकिस्तानी एजेंट न समझा जाए और वे अफगान पहले हैं। तालिबान के ये दावे और वादे सुनने में तो अच्छे लगते हैं, लेकिन उन्हें पूरे करने के लिए उसे अपनी कथनी और करनी में भेद समाप्त करना होगा। कुल मिलाकर भारत के लिए यह समय चौकन्ना रहने का है।