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नियामक प्राधिकरणों तक पहुंच बनी रहेगी, वे भोले-भाले खरीदारों की कीमत पर पैसा कमाते रहेंगे।
अधिकांश भारतीयों के लिए सबसे बड़े वित्तीय फैसलों में से एक खुद का घर खरीदना होता है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक अब्राहम मास्लो ने अपने सिद्धांत, 'जरूरतों की प्राथमिकताएं', में रोटी, कपड़ा और मकान की आवश्यकता को अच्छी तरह से व्यक्त किया है। वर्षों से लोग शहरों और बड़े शहरों की ओर प्रवासन करने के साथ ही उन नए शहरों में घर खरीदना चाहते हैं, जहां वे जाते हैं। इसके अलावा, कम ब्याज दरों के साथ आसान होम लोन ने समाज के एक बड़े वर्ग के लिए घर खरीदना आसान बना दिया है।
घरों की इतनी बड़ी मांग के चलते शहरों में रियल एस्टेट डेवलपर्स और बिल्डर्स भी पनप गए, जिससे लोगों को घर के अपने सपनों को साकार करने में मदद मिली। इसने खरीदारों और विक्रेताओं के बीच लालच को जन्म दिया। उदाहरण के लिए, परियोजना के चरण में एक नए घर की लागत निर्माण शुरू होने के बाद की लागत से कम होती है और जब यह पूरा होने के करीब होता है, तो घर की कीमत बढ़ जाती है। यही कारण है कि पूरी तरह से तैयार रहने लायक घर की कीमत और भी अधिक होती है।
भारी मांग के दौर में जब खरीदार ज्यादा थे, बिल्डरों ने भी तेजी से कई परियोजनाएं एक साथ शुरू कर दीं। समस्या तब शुरू हुई, जब कई खरीदारों ने एक फ्लैट होने के बावजूद इस उम्मीद में नए फ्लैट की बुकिंग शुरू कर दी कि आने वाले समय में इनकी कीमत बढ़ जाएगी। सटोरियों के लिए यह तब तक काम करता रहा, जब तक कि मांग स्थिर होकर ध्वस्त न हो गई। वर्ष 2006 से 2010 के बीच की अवधि में सट्टेबाजों का उदय देखा गया, जिन्होंने 2008 में वैश्विक वित्तीय बाजार के ध्वस्त होने तक भारी मुनाफा कमाया।
वैश्विक वित्तीय बाजार के पतन के कारण कई सट्टेबाजों को भारी नुकसान हुआ और कई बिल्डरों को कई परियोजनाओं को पूरा करने के लिए धन की कमी के कारण धन गंवाना पड़ा। इन सबको कुछ वर्षों में रेरा (रियल एस्टेट रेगुलेटरी ऑथरिटी) के गठन के साथ संबोधित किया गया, जिसे 2016 में इस बात की निगरानी के लिए गठित किया गया कि बिल्डर ने जिन परियोजनाओं के लिए खरीदारों से धन लिया, उसे उन्हीं परियोजनाओं में लगाया गया या नहीं।
यह एक अच्छा निवारक है, जिसने बिल्डरों को एक परियोजना के लिए एकत्र किए गए धन का उपयोग दूसरे में इस्तेमाल करने से रोका। सुस्त मांग और बढ़ती इनपुट लागत ने भी कई बिल्डरों को कई परियोजनाओं को अधूरी छोड़ने के लिए मजबूर किया, जिसने हजारों खरीदारों को मुश्किल में डाल दिया है। खरीदार अपनी मेहनत की कमाई को एक आवासीय परियोजना में इस उम्मीद में लगाता है कि वह घर का मालिक बने, आगे उसमें रहे, अपने किराये के खर्च को कम करे, जो कि हाउसिंग लोन पर ईएमआई की भरपाई करेगा, जिससे उसे अपने पैसे का सुचारू प्रबंधन करने और संपत्ति बनाने में मदद मिलेगी।
इन सभी सपनों और गणनाओं ने कई मेहनती लोगों को प्रेरित किया और उन्होंने अपनी मेहनत की कमाई घर खरीदने में लगाई। बहुत से लोग अपने घरों में बस भी गए, पर अनगिनत दुर्भाग्यपूर्ण लोगों की कहानी ने सुपरटेक, आम्रपाली और यहां तक कि जेपी इंफ्रा की कहानियों को सामने लाया। ये बड़े नामी बिल्डर हैं, जिन्होंने सफलतापूर्वक कई परियोजनाएं पूरी की हैं। हालांकि हाल के वर्षों में कड़े नियमों और कर्जदाता द्वारा आसान ऋण नहीं मिलने के कारण ये अपने कर्ज का पुनर्भुगतान नहीं कर पाए।
सुपरटेक का दिवालिया होना इसका उदाहरण है कि कैसे एक सफल बिल्डर ने हजारों घर खरीदारों को अधर में छोड़ दिया है। बिल्डरों ने नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) से संपर्क किया है और दिवालिया होने की अर्जी दाखिल की। ऐसे में खरीदारों को मुश्किलें झेलनी पड़ती हैं। कुछ दिनों पहले, एनसीएलटी द्वारा सुपरटेक को लगभग 1,200 करोड़ रुपये के कर्ज के साथ दिवालिया घोषित किया गया था, जिसमें अकेले यूनियन बैंक ऑफ इंडिया के 150 करोड़ रुपये के ऋण शामिल थे।
यूनियन बैंक ने लगभग 432 करोड़ रुपये के बकाया का भुगतान न करने के लिए बिल्डर के खिलाफ एक याचिका दायर की और 100 घर खरीदारों के एक समूह ने भी सुपरटेक के खिलाफ मामले दायर किए, जिसमें सुपरटेक से कम से कम 100 करोड़ रुपये की मांग की गई थी। दुर्भाग्य से, अभी जिन खरीदारों की परियोजनाएं बिल्डर पूरा नहीं कर पाया, वे देनदारों की सूची में अंतिम में हैं, जिनके पैसे का निपटान तब होगा, जब परिसमापन प्रक्रिया शुरू होगी। यही कहानी जेपी विश टाउन के खरीदारों की है, जो अधर में लटके हुए हैं।
एनसीआर में सुपरटेक की अन्य परियोजनाओं के लगभग 11,000 घर खरीदार यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि सुपरटेक को दिवालिया घोषित किए जाने के बाद अब उनके फ्लैटों का क्या होगा। पिछला इतिहास देखें, तो इन खरीदारों के पास तत्काल कोई सहारा नहीं है। सुपरटेक समूह ने कहा है कि वह एनसीएलएटी के समक्ष इसे चुनौती देगा, यह दिवाला सुपरटेक की अन्य कंपनियों को प्रभावित नहीं करता है। इसका मतलब है कि सुपरटेक के मालिक आराम से रहेंगे, जबकि खरीदार फ्लैटों के लिए गुहार लगाएंगे।
दुर्भाग्य से खरीदारों को अब तक खर्च किए गए धन का रिफंड मिलना आसान नहीं और कई परियोजनाओं, जो पहले ही पांच-सात साल देरी से चल रही हैं, में और देर लगेगी। जो भी एजेंसी अधूरी परियोजनाओं को पूरा करने के लिए आएगी, वह केवल असहाय खरीदारों द्वारा अतिरिक्त पैसे खर्च करने पर ही ऐसा करेगी। इससे खरीदारों के लिए घर की लागत कल्पना से परे हो जाएगी। यह विडंबना ही है कि रेरा के गठन के बावजूद डेवलेपर्स और बिल्डरों को जवाबदेही से मुक्त कर दिया गया है। जब तक बिल्डरों को राजनीतिक संरक्षण मिलता रहेगा और जब तक उनकी अपने प्रति उदार नियामक प्राधिकरणों तक पहुंच बनी रहेगी, वे भोले-भाले खरीदारों की कीमत पर पैसा कमाते रहेंगे।
सोर्स: अमर उजाला
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