सम्पादकीय

भगत सिंह के याद में नारे लगाने से ज्यादा जरूरी है किताबें पढ़ना...

Rani Sahu
27 Sep 2021 9:28 AM GMT
भगत सिंह के याद में नारे लगाने से ज्यादा जरूरी है किताबें पढ़ना...
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जब-जब किसी देश भक्‍त शहीद का जिक्र होता है, तब-तब हमें जगदंबा प्रसाद मिश्र 'हितैषी' की ये पंक्तियां याद आती हैं

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ज्योतिर्मय रॉयशहीदों की चिताओं पर लगेगें हर बरस मेले,
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशां होगा.
जब-जब किसी देश भक्‍त शहीद का जिक्र होता है, तब-तब हमें जगदंबा प्रसाद मिश्र 'हितैषी' की ये पंक्तियां याद आती हैं. आज देश शहीदे आजम भगत सिंह की जयंती मना रहा है. उनकी तस्वीर पर फूल माला चढ़ाने और नारे लगाने से ज्यादा जरूरी काम है, उनके विचारों को सुनना. उन किताबों के बारे में जानना, जिन्हें भगत सिंह ने पढ़ा और अपने मार्गदर्शन के लिए नोट्स बना कर रख लिया था.
अपनी जेल डायरी के अंतिम पृष्ठ पर साइमन कमीशन की रिपोर्ट के पेज 22 का उल्लेख करते हुए भगत सिंह ने लिखा था- 'और काम का सबसे कठिन हिस्सा होगा झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने वालों के दिमाग में कुछ बेहतरी की इच्छा को बिठाना.' देश में कुछ बेहतरी की इच्छा जगाना आज की भी सबसे बड़ा और कठिन कार्य है. यह कार्य पुस्तकों के बिना सम्भव नहीं है.
आजादी के लिए अपनी जान न्योछावर करने वाले भगत सिंह का जन्म 27 सितंबर 1907 को लायलपुर जिले के बंगा में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है. उस समय उनके चाचा अजीत सिंह और श्‍वान सिंह भारत की आजादी में अपना सहयोग दे रहे थे. ये दोनों करतार सिंह सराभा द्वारा संचालित गदर पाटी के सदस्‍य थे. भगत सिंह पर इन दोनों का गहरा प्रभाव पड़ा था.
भगत सिंह बचपन से ही अंग्रेजों से घृणा करने लगे थे. 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह के बाल मन पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला. करीब बारह वर्ष के भगत सिंह अपने स्कूल से 12 मील पैदल चलकर जलियाँवाला बाग पहुँच गए. बाद में लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह 1920 में महात्‍मा गांधी द्वारा चलाए जा रहे अहिंसा आंदोलन में शामिल हो गए थे.
गांधी जी के असहयोग आंदोलन को रद्द कर देने के कारण उनमें थोड़ा रोष उत्पन्न हुआ और वे स्‍वतंत्रता की हिंसात्मक क्रांति की ओर मुड़ गए. 1928 में साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिए भयानक प्रदर्शन हुए. प्रदर्शन के दौरान, अंग्रेजी शासन के लाठी चार्ज में लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई. इसे भगत सिंह से हत्या माना और अपने साथियों के साथ पुलिस सुपरिटेंडेंट स्काट को मारने की योजना बनाई. भगत सिंह और राजगुरु ने 17 दिसम्बर 1928 को एएसपी सॉण्डर्स को गोली मार दी.
भगत सिंह यद्यपि रक्तपात के पक्षधर नहीं थे, इसलिए अंग्रेजी शासन को सचेत करने को केंद्रीय एसेंबली में बम फेंकने की योजना बनाई थी. भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को केंद्रीय एसेंबली में ऐसे स्थान पर बम फेंका, जहां कोई मौजूद न था. भगत सिंह चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें दण्ड स्वीकार है चाहें वह फांसी ही क्यों न हो.
बम फटने के बाद उन्होंने 'इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद-मुर्दाबाद!' का नारा लगाया और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल दिए. इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गई और दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया.
26 अगस्त, 1930 को अदालत ने भगत सिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 और 6 एफ तथा आईपीसी की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिद्ध किया. 7 अक्तूबर, 1930 को अदालत के द्वारा 68 पृष्ठों का निर्णय दिया, जिसमें भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई.
तथ्य बताते हैं कि भगत सिंह की फांसी की सज़ा माफ़ करवाने हेतु महात्मा गांधी ने 17 फरवरी 1931 को वायसराय से बात की, फिर 18 फरवरी, 1931 को आम जनता की ओर से भी वायसराय के सामने विभिन्न तर्को के साथ सजा माफी के लिए अपील दायर की. मगर, माफी भगत सिंह को मंजूर नहीं थी. 23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फांसी दे दी गई.
फांसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और जब उनसे उनकी आखिरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए.
भगत सिंह मात्र 23 वर्ष की उम्र में शहीद हो गए. उनके इस छोटे से जीवन की गाथा का सबसे बड़ी भूमिका बंदूक और पुस्तक की थी. भगत सिंह के मित्रों में से एक शिव वर्मा ने एक जगह लिखा है कि भगत सिंह हमेशा एक छोटा पुस्तकालय लिए चलते थे. मुझे एक भी मौक़ा याद नहीं जब वे कुछ किताबें न लिए हों. दो चीज़ें हमेशा उनेक साथ रहती थीं- पिस्तौल और पुस्तक. मैंने उन्हें चीथड़ों में देखा है लेकिन हमेशा उनकी जेब में किताबें रहती थीं.
भगत सिंह को बचपन से पढ़ने का शौक था. किताब के कारण जेब फटने पर मां से डांट खायी मगर शहादत के पहले तक किताब को दूर नहीं कर पाए. उन्होंने अपने कारावास की अवधि में भी किताब पढ़ने का सिलसिला जारी रखा. वे अक्सर किताबें पढ़ते और डायरी में नोट्स बनाते. इसके अलावा वे कविता और शायरी लिखते थे.
भगत सिंह की 404 पेज की जेल डायरी विभिन्न प्रकार के विषयों पर लिखे गये अंश, नोट्स और उदाहरणों से भरी है. भगत सिंह ने अपनी डायरी में कार्ल मार्क्स वा फेड्रिक एंगेल्स द्वारा 1848 में लिखित कम्युनिस्ट घोषणापत्र ,रूसी साहित्यकार मैक्सिमम गोर्की ,दार्शनिक वार्टन्ड रेल, प्रसिद्ध अंग्रेजी कवि विलियम वर्ड्सवर्थ लेनिन,रूसो, रवींद्रनाथ ठाकुर जैसे कितने महान चिंतकों की पुस्तकों को पढ़कर नोट्स लिए थे.
'शहीदे आज़म की जेल नोटबुक' शीर्षक से संग्रहित जेल डायरी भगत सिंह के विचारों और इन विचारों का आधार जानने का एकमात्र माध्यम हो सकता है. इस जेल डायरी में भगत सिंह ने लिखा है कि क्रान्ति परिश्रमी विचारकों और परिश्रमी कार्यकर्ताओं की पैदावार होती है. दुर्भाग्य से भारतीय क्रान्ति का बौद्धिक पक्ष हमेशा दुर्बल रहा है. इसलिए क्रान्ति की आवश्यक चीजों और किये गये काम के प्रभाव पर ध्यान नहीं दिया गया. इसलिए एक क्रान्तिकारी को अध्ययन-मनन को अपनी पवित्र जिम्मेदारी बना लेना चाहिए.
भगत सिंह के ये विचार यह स्थापित करने के लिए पर्याप्त हैं कि हमें आज सबसे ज्यादा किताबें पढ़ने की जरूरत है ताकि सूचनाओं और अफवाहों के विस्फोट के युग में हमें सच पता चल सके.
'भीड़ का प्रतिशोध' शीर्षक से भगत सिंह ने नोट्स लिया है, 'तब कुल्हाड़ी से जड़ पर ही प्रहार करो, और सरकारों को मानवता सिखा दो. ये उनकी खूंखार सजाएँ ही हैं जो मानवजाति को भ्रष्ट करती हैं…. जनसामान्य के सामने प्रदर्शित इन क्रूर दृश्यों का प्रभाव संवेदनशीलता को ख़त्म करने या प्रतिशोध भड़काने के रूप में सामने आता है, तथा विवेक के बजाय आतंक के द्वारा लोगों पर शासन करने की इसी निकृष्ट और झूठी धारणा के जरिये वे मिसाल बनते हैं. ' (राइट्स ऑफ़ मैन, (पृष्ठ 32), टी. पेन)
जेल डायरी में मानव और मानव जाति के विषय पर उन्होंने लिखा था, 'मैं एक इंसान हूं और मानव जाति को प्रभावित करने वाली हर चीज से मेरा सरोकार है.' आज देश में होने वाली हर घटना, हर परिवर्तन से हर नागरिक का सरोकार होना चाहिए. यह उपयुक्त समय है कि भगत सिंह को अपना आदर्श मान कर केवल नारे लगाने वालों को उनके विचारों का अनुसरण करना ही चाहिए. यही उनके प्रति श्रद्धांजलि भी होगी. आखिर, भगत सिंह ने ही अपनी जेल डायरी में विण्डेल फिलिप के हवाले से लिखा था:
'यदि कोई ऐसी चीज़ हो जो मुक्त चिन्तन को बरदाश्त न कर सके, तो वह भाड़ में जाये.'
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)


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