सम्पादकीय

इमरान खान के छल-कपट, अहंकार और हल्केपन से तंग आ चुके हैं रावलपिंडी के जनरल

Gulabi Jagat
5 April 2022 1:33 PM GMT
इमरान खान के छल-कपट, अहंकार और हल्केपन से तंग आ चुके हैं रावलपिंडी के जनरल
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पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनने के करीब एक साल बाद इमरान खान ने जनरल जावेद बाजवा के कार्यकाल को तीन साल के लिए बढ़ा दिया
के वी रमेश।
पाकिस्तान (Pakistan) के प्रधानमंत्री बनने के करीब एक साल बाद इमरान खान (Imran Khan) ने जनरल जावेद बाजवा के कार्यकाल को तीन साल के लिए बढ़ा दिया था. बाजवा को नवंबर 2016 में पूर्व पीएम नवाज शरीफ ने सेना प्रमुख (Army Chief) के रूप में नियुक्त किया था. नवंबर 2019 में वे 58 साल के हो चुके थे और सेवानिवृत्त होने वाले थे. लेकिन इमरान खान ने भारत-पाकिस्तान के साथ तनाव के बीच "क्षेत्रीय सुरक्षा वातावरण" के मद्देनज़र उन्हें तीन साल का विस्तार दे दिया. इतना ही नहीं, उस समय तालिबानी आतंकवादियों और अमेरिका के बीच चल रहे अफगान शांति वार्ता में पाकिस्तान एक अहम भूमिका भी निभा रहा था.
लेकिन यह इमरान और सेना के बीच हनीमून का दौर था. इन्हीं मधुर संबंधों की बदौलत पीएमएल (एन) और पीपीपी के खिलाफ भ्रष्टाचार अभियान चलाया गया, कई छोटे राजनीतिक दलों के साथ-साथ दो सबसे बड़े विपक्ष के नेताओं को पीटीआई में शामिल करवाया गया और फिर 2018 के चुनावों में इमरान की जीत सुनिश्चित हुई. अब जब वे अपने कार्यकाल का आधा समय पूरा कर चुके हैं तो रावलपिंडी में इमरान खान और जनरलों के बीच संबंधों में खटास आ चुकी है.
सेना ने इमरान खान को प्रधानमंत्री बनाया था
इसके बहुत सारे कारण हैं. लेकिन इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि इमरान खान इस भ्रम जाल में फंस गए हैं कि पाकिस्तान में वे ही सत्ता चलाते हैं. वे यह भूल गए कि पाकिस्तान में सेना ही देश का मालिक होती है और देश चलाती है. पाकिस्तान में सियासतदान तो महज एक "फिगरहेड" (नाम मात्र का शासक) हैं. सेना ने इमरान खान को प्रधानमंत्री बनाया था लेकिन अब वही सेना उनसे काफी खफा है. इसके कई कारण थे: जैसे इमरान की खुद की राजनीतिक शिक्षा काफी कम थी, हमेशा चाटुकारों को प्रोत्साहित करते रहते थे, चाटुकार भी उन्हें वही बताते थे जो वो सुनना चाहते थे, अपनी खुद की तथाकथित शासन-नीतियों पर उनका भरोसा नहीं था और इससे भी बढ़कर वे खुद को देश का सबसे लोकप्रिय राजनेता मानने लगे थे.
रावलपिंडी में जनरलों को पहली बार झटका तब लगा जब मीडिया ने इमरान खान से पूछा कि क्या पाकिस्तान फिर से अमेरिका को "बेस " देने की पेशकश करेगा. इस पर इमरान का जवाब था- "बिल्कुल नहीं". फौज ये नहीं चाहती थी कि इमरान ऐसा कहें. आख़िरकार अति उदार अमेरिकी फौज के साथ संबंधों में पाकिस्तानी सेना ज्यादा सहज है बनिस्पत कि कंजूस चीनी सेना के.
और ये भी एक हकीकत है कि हर पाकिस्तानी सैन्य अधिकारी का सपना होता है कि उनके बच्चे और पोते-पोतियां अमेरिका में बस जाएं न कि बीजिंग में. और वे अपने ख्वाब को टूटते नहीं देखना चाहते हैं. राष्ट्रपति बाइडेन के इमरान को फोन करने से इनकार (उन्होंने अब तक उन्हें एक भी कॉल नहीं किया है) और इमरान की यह खीज भरी टिप्पणी कि वह उस कॉल के लिए "इंतजार नहीं कर रहे थे" ने सेना को और चिंतित कर दिया.
पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे बिगड़ने लगी
संबंधों में खटास पिछले अगस्त महीने से उजागर होने लगी. लगभग उसी समय इमरान के पसंदीदा आईएसआई प्रमुख फैज हमीद काबुल की शर्मनाक यात्रा पर थे जब तालिबान शहर में प्रवेश करने लग गए थे. गौरतलब है कि इमरान के इशारे पर ही हमीद की यह हाई प्रोफाइल यात्रा और तालिबान लीडरों के साथ उनकी बैठक का आयोजन किया गया था. इसमें जनरल बाजवा की रजामदी नहीं थी. हालांकि एक समय था जब हमीद पूरी तरह से बाजवा के इशारे पर चलते थे लेकिन बाद में गुपचुप तरीके से उन्होंने खुद को इमरान के करीबी घेरे में स्थापित कर लिया था.
जनरल बाजवा ने सरकार को एक सिफारिश भेजी कि वे लेफ्टिनेंट जनरल नदीम अंजुम को हमीद के उत्तराधिकारी के रूप में नियुक्त कर रहे हैं और हमीद को पेशावर कोर का कमांडर नियुक्त किया जाएगा. इमरान ने नियुक्ति को मंजूरी देने से इनकार कर दिया और जोर देकर कहा कि हमीद आईएसआई प्रमुख बने रहेंगे. बाजवा ने अपने रूख को कठोर करते हुए पीटीआई में अपने लोगों के जरिए इमरान को ये संदेश भेजवाया कि वे बात मान लिया करे. लेकिन इमरान का रवैया शिष्टाचार के मुताबिक सही नहीं था.
बहरहाल, गुस्सैल इमरान ने इसे बुरी तरह से लिया. और सरकार और सेना के बीच मतभेद दिखने लगे. खास तौर से तब जब प्रमुख विपक्षी दलों ने तीन-पक्षीय गठबंधन की स्थापना की, जिससे पीटीआई सरकार के लिए एक बड़ा खतरा पैदा हो गया. देश की अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे बिगड़ने लगी. इमरान अपनी सरकार की नीतियों के अलावा सभी को दोषी ठहराने लग गए. सरकार ने बहुत ही अपमानजनक शर्तों पर अनिच्छुक सऊदी अरब से ऋण लिए. बीजिंग से पाकिस्तानी सरकार ने बेल-आउट के लिए प्रार्थना की, लेकिन इस पर भी उसे बीजिंग से अभद्र प्रतिक्रिया ही मिली.
पाकिस्तानी सेना एक बार फिर अमेरिका से दोस्ती बढ़ाना चाहती है
फौज को जल्द ही ये एहसास हो गया कि इमरान अब विश्वास के लायक नहीं रहे. सेना को यह एहसास हो गया कि उन्हें बतौर मुल्क के "फिगरहेड नेता" स्थापित करने में बहुत गलत चुनाव किया गया था. इमरान को जल्द ही इस बात का एहसास हुआ और वे सभी पर चिल्लाने लगे. और उधर विपक्ष ने भी दबाव बनाना शुरू कर दिया था. सेना ने अपना हाथ वापस खींच लिया और मीडिया रिपोर्टों में ये कहा जाने लगा कि सेना इन मामलों में तटस्थ रहेगी. इन सब बातों से इमरान और भी क्रोधित हो गए.
12 मार्च को लोअर दीर जिले में एक राजनीतिक रैली को संबोधित करते हुए, इमरान ने कहा कि "अल्लाह ने हमें तटस्थ रहने की अनुमति नहीं दी है, क्योंकि केवल जानवर ही तटस्थ रहते हैं." पीएम ने कहा कि जानवर अच्छे और बुरे में फर्क नहीं करते. इमरान ने कहा था, "इंसान अंतःकरण की आवाज के मुताबिक काम करते हैं. सिर्फ जानवर ही तटस्थ रहते हैं." लेकिन फौज शांत रही और सेना के पब्लिसिटी विंग के प्रमुख बाबर इफ्तिखार ने पिछले हफ्ते कहा कि वर्तमान राजनीतिक नाटक में सेना की कोई भूमिका नहीं है. उन्होंने ये जोर देकर कहा कि रावलपिंडी देश में चल रहे अशोभनीय सर्कस से बाहर रहना चाहेगा.
इसी पृष्ठभूमि के मद्देनज़र बाजवा की विदेश नीति में बदलाव को देखने की जरूरत है. विश्व शक्तियों के लिए संकेत बहुत स्पष्ट है. जनरल सभी को ये बताना चाहते हैं कि इमरान सरकार अपना जनादेश खो चुकी है और अब वह सत्ता से बेदखल होने की राह पर है. साथ ही सेना ये भी बताना चाहती है कि इमरान की विदेश नीति वैसी नहीं है जिसका सेना समर्थन कर सके. पाकिस्तानी सेना एक बार फिर पश्चिम यानि कि अमेरिका से दोस्ती बढ़ाना चाहती है.
पश्चिमी ब्लॉक के लिए पाकिस्तानी धुन में ये बदलाव बहुत मायने रखता है
इस्लामाबाद सिक्योरिटी डायलॉग सम्मेलन में उन्होंने कहा कि बिना किसी के साथ संबंधों को प्रभावित किए हुए पाकिस्तान चीन और अमेरिका दोनों के साथ संबंधों को व्यापक और विस्तारित करना चाहता है. इसके अलावा, यूरोपीय संघ, यूनाइटेड किंगडम, खाड़ी देशों, दक्षिण-पूर्व एशिया और जापान के साथ संबंध भी पाकिस्तान की प्रगति के लिए महत्वपूर्ण हैं. इन्हीं विचारों के तहत यूक्रेन में रूस की सैन्य कार्रवाई का वर्णन "आक्रामकता" के रूप में किया गया. निस्संदेह ही ये पश्चिमी देशों के लिए काफी कर्णप्रिय रहा होगा. उससे भी अधिक संतुष्टिदायक यह टिप्पणी है कि पाकिस्तान के द्विपक्षीय संबंध किसी अन्य देश अर्थात अमेरिका की कीमत पर नहीं होंगे.
भारत-पाकिस्तान संबंधों के बारे में अच्छी अच्छी बात करने से पश्चिम देशों की भावनाएं भी शांत होंगी. और यहां तक कि पाकिस्तान को FATF की काली सूची से बाहर निकलने में भी मदद मिल सकती है. बाजवा ने यूक्रेन पर रूस के "आक्रमण" को एक "बड़ी त्रासदी" करार दिया और मांग की कि इसे "तुरंत रोका जाना चाहिए." उन्होंने एक चेतावनी भी जोड़ दी: "रूस की वैध चिंताओं के बावजूद, एक छोटे देश के खिलाफ उसकी आक्रामकता को माफ नहीं किया जा सकता है." पश्चिमी ब्लॉक के लिए पाकिस्तानी धुन में ये बदलाव बहुत मायने रखता है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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