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- रानिल विक्रमसिंघे की...

आदित्य नारायण चोपड़ा: यूनाइटेड नेशनल पार्टी के नेता रानिल विक्रम सिंघे ने श्रीलंका के नए प्रधानमंत्री के रूप में पदभार संभालते ही देश के आर्थिक संकट से निपटने के लिए प्रयास शुरू कर दिए हैं। श्रीलंका की 225 सदस्यीय संसद में रानिल विक्रमसिंघे की केवल एक सीट है लेकिन उन्हें अंतरिम प्रशासन का नेतृत्व करने के लिए सभी दलों का समर्थन मिला है। उनकी सरकार छह महीने चल सकती है। विक्रम सिंघे चार बार प्रधानमंत्री रह चुके हैं। उन्हें अक्टूबर 2018 में तत्कालीन राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरिसेना ने प्रधानमंत्री पद से हटा दिया था। हालांकि उन्हें इस पद पर दो माह बाद बहाल कर दिया गया था। आर्थिक संकट से निपटने में सरकार की नाकामी से नाराज लोगों के हिंसक प्रदर्शनों के बाद महिंदा राजपक्षे प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर किसी सुरक्षित स्थान पर शरण लेने को बाध्य हुए हैं। रानिल विक्रमसिंघे के सामने सबसे बड़ी चुनौती देश के नागरिकों को भर पेट भोजन उपलब्ध कराना है। अर्थव्यवस्था को खंडित बताते हुए उन्होंने देशवासियों को धैर्य रखने की अपील करते हुए आश्वासन दिन है कि वे चीजों को पटरी पर लाएंगे। हालांकि उन्होंने यह भी कहा है कि सुधार से पहले स्थिति और बिगड़ेगी। श्रीलंका में आज जो कुछ हो रहा है वो कहानी आर्थिक संकट के रूप में शुरू हुई थी लेकिन इस आर्थिक संकट का असर राजनीतिक संकट के रूप में दुनिया के सामने है। रानिल विक्रमसिंघे ने सरकार का कामकाज सुचारू रूप से चलाने और संकट का सामना करने के लिए विपक्ष से भी हाथ मिलाने का संकेत दिया है। प्रधानमंत्री पद पर चार बार आसीन होने के अवसरों के दौरान उन्होंने भारत के साथ व्यक्तिगत संबंध बनाए और चार बार भारत का दौरा किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी श्रीलंका की दो बार यात्रा की। विक्रमसिंघे को श्रीलंका में ऐसा नेता माना जाता है जो अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की कमान संभाल सकते हैं। उन्होंने अपने साढ़े चार दशक के राजनीतिक करियर में कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया है। श्रीलंका के साथ भारत का रिश्ता सदियों पुराना है। कोई ढाई हजार वर्ष पहले सम्राट अशोक ने अपने बेटे महेंद्र और बेटी संघमित्रा को बौद्ध धर्म का उपहार लेकर श्रीलंका भेजा था, वहां के राजा ने उनसे प्रभावित होकर बौद्ध धर्म को स्वीकार किया और आज श्रीलंका की 70 फीसदी से ज्यादा आबादी बुद्ध की पूजा करती है। दोनों देशों पर अंग्रेजों का शासन रहा। भारत 1947 में आजाद हुआ और श्रीलंका इसके एक वर्ष बाद। दोनों ही आजादी की 75वीं सालगिरह मना रहे हैं। आजादी के बाद श्रीलंका ने सबसे बड़ा संकट उस समय देखा जब 1980 के दशक में वहां तमिल अल्पसंख्यक के लिए अलग देश की मांग ने हिंसक रूप ले लिया। 1983 में वहां जो गृहयुद्ध छिड़ा वो 26 वर्ष बाद 2009 में जाकर खत्म हुआ। श्रीलंका के संकट के इस दौर में भारत ने भी भूमिका निभाई। भारत ने श्रीलंका की मदद के लिए वहां शांति सेना भी भेजी। इसे लेकर बहुत सवाल भी उठे। भारत का सरोकार केवल इतना था कि भारतीय मूल के तमिलों के हित सुरक्षित रहें। इसी संकट के चलते भारत के प्रधानमंत्री रहे राजीव गांधी की आत्मघाती बम धमाके में हत्या कर दी गई। श्रीलंका सरकार ने तमिल चरमपंथी संगठन लिट्टे के खिलाफ आक्रामक अभियान चलाया जो आखिरकार 2009 में खत्म हुआ। युद्ध के आखिरी वर्षों से लेकर युद्ध खत्म होने के 13 वर्षों तक भारत-श्रीलंका के संबंधों में कभी घनिष्ठता नहीं बन सकी। इसका सबसे बड़ा कारण था चीन। श्रीलंका चीन से कर्ज जाल में फंसता चला गया लेकिन उसके आर्थिक संकट की एकमात्र वजह चीन नहीं है बल्कि सरकार की बदइंतजामी भी है। श्रीलंका के संकट के इस दौर में भारत उसके साथ खड़ा है जबकि चीन उसकी मदद के लिए कोई हाथ आगे नहीं बढ़ा रहा। कुछ अर्सा पहले श्रीलंका में भारत विरोधी तबका हमेशा यह दिखाने की कोशिश करता था कि चीन उनका भारत से ज्यादा बेहतर दोस्त है लेकिन संकट की इस घड़ी में श्रीलंका की आम जनता के बीच बनाया गया यह भ्रम टूट चुका है। भारत श्रीलंका की लगातार डॉलरों की मदद भी दे रहा है। खाद्य सामग्री और दवाइयां भी लगातार भेज रहा है। केवल भारत की मदद से श्रीलंका का आर्थिक संकट दूर होने वाला नहीं है। नए प्रधानमंत्री रानिल विक्रम सिंघे भारत के महत्व को जानते हैं और उन्होंने भारत के साथ करीबी संबंध कायम करने की इच्छा जताते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आभार भी व्यक्त किया है। भारत के लिए श्रीलंका एक बड़ा अवसर है। भारत हिंद महासागर में अपने खोए हुए भू राजनीतिक स्थान को दोबारा हासिल कर सकता है। रानिल विक्रम सिंघे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से ऋण लेने की कोशिशें कर रहे हैं। भारत भी श्रीलंका को विभिन्न बुनियादी ढांचा परियोजनाओं और तकनीकी सहायता देकर मदद करने को तैयार है लेकिन रानिल विक्रमसिंघे को भी भारत प्रथम वाली प्रतिबद्धता को दिखाना होगा। श्रीलंका की अस्थिरता भारत के लिए भी चिंता का सबब है। उम्मीद है कि रानिल विक्रमसिंघे सूझबूझ से काम लेते हुए स्थिति को सामान्य बनाने में सफल होंगे।