सम्पादकीय

रोशनी के रंगों का विस्तार

Subhi
12 Oct 2022 6:14 AM GMT
रोशनी के रंगों का विस्तार
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दीपोत्सव आने वाला है और इसमें अभिव्यक्त सामूहिक खुशियों का अर्थ शानदार, महंगे आयोजन और कीमती वस्तुओं, कपड़ों, गहनों और पटाखों तक सीमित नहीं है। दरअसल, उत्सव के रूप में दीपोत्सव परंपरा का वह उज्ज्वल रूप है जो व्यक्ति की आतंरिक भावनाओं और सामाजिक मूल्यों से भी जुड़ा है।

मीना बुद्धिराजा; दीपोत्सव आने वाला है और इसमें अभिव्यक्त सामूहिक खुशियों का अर्थ शानदार, महंगे आयोजन और कीमती वस्तुओं, कपड़ों, गहनों और पटाखों तक सीमित नहीं है। दरअसल, उत्सव के रूप में दीपोत्सव परंपरा का वह उज्ज्वल रूप है जो व्यक्ति की आतंरिक भावनाओं और सामाजिक मूल्यों से भी जुड़ा है।

यह उत्सव समाज के सभी वर्गों और मनुष्यों को एकसूत्र में बांध कर प्रेम और सौहार्द के धरातल पर एक साथ आनंदित होने का अवसर भी प्रदान करता है। सभी तरह के तनाव, संकीर्णताओं और संघर्षों को भुलाकर कुछ समय के लिए ताजगी और जीवन में सामूहिक रूप से सकारात्मक बदलाव का प्रतीक बन जाता है।

परंपराओं और मान्यताओं का स्वस्थ और समसामयिक दोहराव हमें एक दूसरे के करीब भी ले आता है और समाज के प्रति हमें अधिक संवेदनशील और जिम्मेदार भी बनाता है। वर्तमान समाज में जहां आपसी संवाद-संपर्क कम और वैमनस्य अधिक होता जा रहा है, तब ये उत्सव हमें अपने सुख-दुख और संवेदनाओं को संप्रेषित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

आज बाजारवाद की बेतहाशा आंधी ने हमारे अस्तित्व को, मान्यताओं को और हमारी मूल्य व्यवस्था को झकझोर कर रख दिया है और उसे मात्र उपभोक्ता के रूप में बदल दिया है। इस परिवेश में ये उत्सव हमारी संवेदनाओं और साझी संस्कृति को जीवित रखने में विशेष महत्त्व रखते हैं। रोशनी का महत्त्व अंधेरे से जुड़ा है और घना अंधकार भी रोशनी की एक किरण से मद्धिम पड़ जाता है।

मानवीय एकता के प्रकाश और सकारात्मक आलोक के एक कतरे को धूमिल करने के लिए सभी नकारात्मक विचारों और वैमनस्य का अंधेरा अपना पूरा प्रयास करता है। पर रोशनी का यह उत्सव प्रतीक बन जाता है कि अंधकार को अदृश्य करके अंत में स्थायी अस्तित्व रोशनी और प्रकाश का है जो मानवता को आलोकित और स्पंदित करता है। यह प्रतीक मानव जीवन के सौंदर्य और आलोक को बचा लेता है, क्योंकि उम्मीद की एक लकीर भी अंधेरे के साम्राज्य को चीर देती है। वह रोशनी जो हमारी मायूसियों में उम्मीद के मद्धिम होते चिरागों को प्रज्ज्वलित करती है।

यह आलोक जीवन की सतरंगी छवि है जो हमारे अनुभव और चिंतन को सार्थक और समाज के लिए हितैषी बनाता है। खुद को बेहतर रूप में खोजने की आकांक्षा और दीपक की तरह कालिमा और निराशा से भरी राहों में जलकर उन्हें प्रकाशित करना, सघन अंधेरे को अपने दृढ़ संकल्प से उजालों में परिवर्तित करना, सकारात्मक प्रयासों से जीवन-मूल्यों का समन्वय करते विविधताओं में भी प्रेम और सहिष्णुता की दीपशिखा को जलाए रखना, यही वर्तमान समय में इस उत्सव की सार्थकता है। अपने अंत:करण को प्रेम और ज्ञान से प्रदीप्त करके अपना दीपक स्वयं बनना होगा।

समाज में आपसी सद्भाव, अनुराग और मानवीय गरिमा का दीपक हमेशा जलता रहे और आशाएं झिलमिलाती रहें। जीवन में नित्य नए उजास के रंग और स्वर भरते रहें। दुख, विषाद और संघर्ष में आशा, उत्साह और संकल्प की यह रोशनी कभी मद्धिम न हो। किसी भी सामूहिक दुख, त्रासदी के घने अंधकार के बाद भी मनुष्यता की आस्था रोशन रहे।

घर की देहरी से लेकर सभी के हृदय को यह रचनात्मक प्रकाश आलोकित करता रहे। अंधेरे का अस्तित्व तभी तक है, जब तक इसके प्रतिरोध में रोशनी का आगमन नहीं होता और इसके आने के साथ ही सभी वस्तुएं और भावनाएं अपने सहज और वास्तविक रूप में साकार होने लगती हैं। कठोरता और निर्ममता के विरुद्ध आपसी प्रेम, सरलता और आत्मीयता का प्रकाश मानव-समाज के पथ को आलोकित करता रहे।

अतिशय तीव्र, उपभोक्तावादी जीवन और भौतिक तकनीकी विकास की अंधाधुध होड़ में अपने नैतिक मूल्यों, आदर्शों, कर्तव्यों और परंपराओं को भी इस अवसर पर हम पुनर्मूल्यांकित करते रहें। एक सार्थक बेहतर समाज की परिकल्पना इस रोशनी के दायरे का निरंतर विस्तार करती रहे। मानवीय संबंधों और संवेदनाओं का उत्कर्ष सामाजिकता का पथ प्रशस्त करता रहे। यही वास्तविक उत्सवधर्मिता है।

हमारी रीति-रिवाजों, उत्सवों, त्योहारों, गीतों और नृत्यों से भरी भारतीय जीवन पद्धति पहले कभी मनुष्य को अकेला नहीं छोड़ती थी। वर्तमान समय में इस जीवनशैली की सबसे ज्यादा जरूरत है, जब व्यावसायिकता और मुक्त बाजारवाद ने व्यक्ति को सुख-सुविधाएं तो दीं, लेकिन उसके अस्तित्व को खंडित करके, संवेदनशून्य बना कर आंतरिक रूप से नितांत अकेला कर दिया है।

इस उत्सव में सत्य, प्रेम, ज्ञान से आलोकित दीपक की रोशनी अंदर के तिमिर को समाप्त करके मानवता के दायरे को वैश्विक रूप से भी उज्ज्वल कर सके और भविष्य की नई सकारात्मक दिशाओं की ओर हम अग्रसर हो सकें। मानसिक, वैचारिक और सांस्कृतिक रूप से आत्मिक प्रकाशपुंज के रूप में अपने समाज की गरिमा को चरम उत्कर्ष तक आदर्श के रूप में स्थापित कर सकें। यही अपेक्षा है।


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