सम्पादकीय

अभिव्यक्ति का दायरा

Subhi
23 Sep 2022 4:44 AM GMT
अभिव्यक्ति का दायरा
x
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि इसे लेकर केंद्र सरकार चुप क्यों है। पिछले दो सालों में यह तीसरी बार है जब सर्वोच्च न्यायालय ने सख्त लहजे में घृणा भाषण पर टिप्पणी की है।

Written by जनसत्ता: सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि इसे लेकर केंद्र सरकार चुप क्यों है। पिछले दो सालों में यह तीसरी बार है जब सर्वोच्च न्यायालय ने सख्त लहजे में घृणा भाषण पर टिप्पणी की है।

इसके अलावा भी बीच-बीच में वह सवाल उठाता रहा है। चैनलों और सामाजिक मंचों पर नफरत फैलाने वाली प्रस्तुतियों और पक्षपातपूर्ण समाचार परोसने की प्रवृत्ति पर नागरिक जमात लंबे समय से एतराज जताता रहा है। अब तो विपक्षी दल सार्वजनिक मंचों से सीधे सरकार की तरफ अंगुली उठा कर मीडिया के दुरुपयोग पर सवाल खड़े करते हैं।

हालांकि अदालत की टिप्पणी पर एकाध बार सरकार का रुख कुछ सख्त जरूर दिखा, मगर इस प्रवृत्ति पर रोक लगती नहीं दिखती। कुछ महीने पहले सूचना प्रसारण मंत्रालय ने कुछ टीवी चैनलों को सख्त निर्देश जारी किया था कि वे समाचारों की प्रस्तुति में मर्यादा का खयाल रखें। पर उसका भी कोई असर नहीं हुआ। ताजा बयान के वक्त सर्वोच्च न्यायालय ने उदाहरण देते हुए कहा कि इंग्लैंड में एक चैनल पर भारी जुर्माना भी लगाया गया था। मगर हमारे यहां यह प्रणाली नहीं है।

यह छिपी बात नहीं है कि किस तरह अधिकतर टीवी चैनल और डिजिटल समाचार चैनल एक खास मकसद से खबरों का चुनाव और उन पर बहसें आयोजित करते हैं। उन बहसों में आमंत्रित वक्ता या तथाकथित विशेषज्ञ भी चैनल वाले अपने मकसद के अनुरूप चुनते हैं। वे बहस के नाम पर समाज में नफरत फैलाने का काम करते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी ताजा टिप्पणी में कहा है कि इससे राजनीतिक दल पूंजी बनाते और टीवी चैनल उनके लिए एक मंच का काम करते हैं। अदालत ने इसके लिए एक नियामक तंत्र बनाने पर जोर दिया है। मगर सरकार अगर ऐसा तंत्र बनाने की पहल करती है, तो उसका स्वरूप क्या होगा, देखने की बात होगी। मीडिया संस्थानों के प्रति सरकार की दृष्टि को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं।

कुछ विपक्षी दल तो खुलेआम समाचार चैनलों के मालिकों और सरकार के बीच गठजोड़ का उल्लेख करते रहते हैं। टीवी चैनलों में बढ़ती इस प्रवृत्ति के मद्देनजर विधि आयोग ने भी घृणा भाषण के मामले को अपराध कानून के तहत लाने की सिफारिश की थी। मगर वह सिफारिश जस की तस पड़ी हुई है। ऐसे में सरकार सर्वोच्च न्यायालय के ताजा बयान को कितनी गंभीरता से लेगी, कहना मुश्किल है।

समाचार माध्यमों का मकसद निरपेक्ष और तटस्थ रह कर सूचनाएं परोसना है, न कि किसी दलगत भावना से काम करना। मगर वे इस तकाजे को भूल गए या जानबूझ कर भुला चुके हैं, तो इसकी वजहें भी छिपी नहीं हैं। सत्तारूढ़ दल, जिसके पास कानूनों को पालन कराने का दायित्व है, उसी के नेता सार्वजनिक मंचों से नफरत फैलाने वाले बयान देने से नहीं हिचकते।

फिर उनके खिलाफ न तो वह दल कोई कड़ी कार्रवाई करता देखा जाता है और न कोई कानूनी कार्रवाई होती है। इस तरह जब टीवी चैनलों पर उन्हीं विषयों को लेकर बहसें कराई जाती हैं, तो वे एक तरह से उस घृणा भाषण को उचित ठहरा रही होती हैं। समाचार माध्यम अभी तक स्वनियमन के तहत काम करते रहे हैं, अब अगर उन पर शिकंजा कसने के लिए किसी तंत्र की जरूरत रेखांकित की जा रही है, तो उन्हें सोचने की जरूरत है कि आखिर वे इस तरह कितने दिन तक पत्रकारिता करते रहेंगे।


Next Story