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- विकास की सीमा
Written by जनसत्ता; देश के मेट्रो शहर या महानगर हों या फिर छोटे-छोटे शहर, बरसात हुई नहीं कि सभी जगहों से जलजमाव और कमजोर जर्जर मकानों के धराशयी होने की खबरें सुर्खियों में आने लगती हैं। बरसात से सड़कों की पोल खुलनी शुरू हो जाती है। खस्ता और जर्जर हुई सड़कों का खमियाजा आम जनता को ही भुगतना होता है। पिछले दिनों हुई लगातार बारिश ने सिलिकान सिटी, बंगलुरु प्रशासन की पोल खोल कर रख दी है।
वहां आम लोगों के साथ नौकरीपेशा कर्मियों को ज्यादा ही परेशान होना पड़ा। जगह-जगह जलजमाव के चलते उन्हें अपने दफ्तरों तक पहुंचने के लिए मजबूरीवश ट्रैक्टरों तक का सहारा लेना पड़ा। शहर के कई हिस्सों में मकानों और उनके नीचे बने बेसमेंट मे दो-दो तीन-तीन फुट तक पानी भर गया। रोजमर्रा की जिंदगी में एक ठहराव-सा आ गया। छोटे-बड़े शहरों में होती इस तरह की घटनाएं यह साबित करती हैं कि विकास के नाम पर अंधाधुंध किए गए निर्माण कार्य कभी भी आपदा बन कर सामने आ सकते हैं।
होता यह है कि तेजी से तरक्की की होड़ में शहरों मे खराब जल निकासी और उचित योजनाओं के अभाव के चलते लोगों को जलभराव की समस्याओं से जूझना पड़ता है। निर्माण कार्यों के बुनियादी ढांचों मे पाई जानी वाली कमियों की वजह से थोड़ी देर की बरसात से तबाही के मंजर नजर आने लगते हैं। सभी शहरों में मानसून-पूर्व नालियों-नालों की साफ-सफाई के लिए किए जाने वालों कार्यों की पोल परवान चढ़ते बारिश के मौसम के साथ खुलने लगती हैं। बारिश आने से पहले सड़कों की मरम्मत और उन्हें ठीक करने के बारे मे उचित रूप से सोचा नहीं जाता है।
सड़कों को मरम्मत करने के नाम पर टूटी-फूटी सड़कों पर पैबंद लगा कर उन्हें नया बनाया गया है, यह घोषित किया जाता है। अफसरों की मिलीभगत और कागजी खानापूर्ति के लिए की गई ये खोखले काम अलग-अलग शहरों से हकीकत में तबाही की खबरें लाती हैं। जब तक शासन-प्रशासन और आम जनता विकास के नाम पर किए जाने वाले निर्माण कार्यों को तरीके से नहीं करेंगे, हर बरस जलजमाव, मकानों के धराशयी होने और खस्ताहाल सडकों के दुष्परिणाम भुगतने ही होंगे। हम विकास के कितने ही दावे क्यों न कर लें, प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने के कामों के फल प्रकृति ही अपने प्रलयंकारी अंदाज में देती है, यह नहीं भूलना चाहिए।