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By लोकमत समाचार सम्पादकीय
समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया, जिनकी आज 12 अक्तूबर को पुण्यतिथि है, प्रायः कहा करते थे कि सच्चे लोकतंत्र की जीवनीशक्ति सरकारों के उलट-पलट में बसती है. कांग्रेस के प्रभुत्व के उन दिनों में 'असंभव' माने जाने वाले इस उलट-पलट के लिए उन्होंने अपनी आखिरी सांस तक कोई कोशिश उठा नहीं रखी.
इन कोशिशों के प्रति उनकी बेचैनी ऐसी थी कि उनमें विफल हुए तो भी हिम्मत नहीं हारी, विफलता को तात्कालिक माना और इस विश्वास को अगाध बनाए रखा कि एक दिन उनकी कोशिशें जरूर रंग लाएंगी. उनका यह कथन कि 'लोग मेरी बात सुनेंगे, पर मेरे मरने के बाद' इसी का परिचायक था.
फरवरी, 1962 में लोकसभा के तीसरे आम चुनाव में करारी हार से 'उलट-पलट' के उनके अरमानों को जोर का झटका लगा तो भी 23 जून, 1962 को नैनीताल में अपने ऐतिहासिक भाषण में उन्होंने कार्यकर्ताओं को 'निराशा के कर्तव्य' बताकर उन पर अमल करने को कहा. फिर तो गैरकांग्रेसवाद के उनके नारे ने 1967 के चुनावों में कांग्रेस की चूलें हिला डालीं. केंद्र में न सही, कई राज्यों में उसे सत्ता से बेदखल कर डाला.
दूसरे पहलू पर जाएं तो डॉ. लोहिया ने चुनावी हार-जीत को कभी ज्यादा महत्व नहीं दिया. हमेशा मानते रहे कि चुनाव हार-जीत से कहीं आगे अपनी नीतियों व सिद्धांतों को जनता के बीच ले जाने के सुनहरे अवसर होते हैं.
इतिहास गवाह है कि 1962 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री पं. नेहरू को चुनौती देने के लिए उनके निर्वाचन क्षेत्र फूलपुर से वे खुद प्रत्याशी बने तो इस सुनहरे अवसर का भरपूर इस्तेमाल किया. हर हाल में संसद पहुंचने की लिप्सा से परहेज के कारण उनका संसदीय जीवन लंबा नहीं रहा. वे कहते थे कि उनकी सबसे बड़ी ताकत यह है कि देश के वंचित व कमजोर लोग उन्हें अपना आदमी समझते हैं.

Rani Sahu
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