सम्पादकीय

नेहरू की छवि का रक्षाबंधन

Rani Sahu
19 Sep 2021 6:54 PM GMT
नेहरू की छवि का रक्षाबंधन
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राजनीति से ऊपर होना या विषयों को गैरराजनीतिक चश्मे से देखना आज की स्थिति में नेताओं को अपराधी बना सकता है

राजनीति से ऊपर होना या विषयों को गैरराजनीतिक चश्मे से देखना आज की स्थिति में नेताओं को अपराधी बना सकता है या यह नामुमकिन है कि कोई सियासी शख्स इस तरह सोचने लगे। हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार राजनीतिक विद्वेष के बाहर या पार्टी लाइन से कहीं आगे निकलने की कोशिश में बार-बार पकड़े जाते हैं। वर्तमान सियासत के दौर में पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की प्रतिमा के उद्धार के लिए यह भाजपा नेता अपनी जेब से एक लाख का योगदान करके न केवल अचंभित करते हैं, बल्कि इस घटनाक्रम से कई पाप धुल जाते हैं। पालमपुर में स्थापित नेहरू की मूर्ति का खस्ता हाल शांता कुमार को भाव विह्ल कर देता है और वह पार्टी के हालिया बयानों से बाहर निकल कर देश के प्रथम प्रधानमंत्री की प्रतिमा को उपेक्षित होने से बचा लेते हैं। यह असंभव सा दिखने वाला व्यवहार शांता कुमार के सहज व्यवहार की पराकाष्ठा हो सकता है, लेकिन भाजपा के इस दौर को शायद ही स्वीकार्य हो। देश की राजनीति में नेहरू के खिलाफ कई गढ़े मुर्दे उखाड़े जाते हैं और शिकायतों के माहौल में सबसे अधिक कठघरे दिवंगत प्रधानमंत्री के खिलाफ खड़े हैं।

ऐसे में शांता कुमार के प्रशंसनीय कार्य के आलोच्य पक्ष की सियासत सामने आ रही है। यह विडंबना है कि राजनीति के मसौदों ने इतिहास को भी दीवारों के भीतर खड़ा कर दिया है। पालमपुर या देश की सियासत का एक छोर अब यह कबूल नहीं करता कि नेहरू की छवि का रक्षाबंधन कोई भाजपा का नेता करे, लेकिन इसके विपरीत राष्ट्रीय आईने को यह स्वीकार नहीं कि राजनीति विद्वेष के कीचड़ से स्वतंत्रता के प्रतीकों को पोता जाए। जाहिर तौर पर शांता के दिल की आवाज जिस किसी संवेदनशील नागरिक ने सुनी होगी, वह इससे राजनीति के धवल पक्ष की धड़कन सुन रहा होगा। इससे पहले भी हिमाचल की राजनीति में ऐसा सदाचार रहा है, जहां सत्ता की छतरी के नीचे विपक्षी नेता भीगने से बार-बार बचे। यह विडंबना है कि राष्ट्र निर्माण के दावों के बीच सियासी दुश्मनी इस कद्र हावी हो रही है कि संसदीय उल्लेख अब गैर मुमकिन लगते हैं। ठिठोली भरा माहौल गायब रहता है और एक तरह की सीनाजोरी का आलम संसद से विधानसभाओं तक देखने को मिलता है।
हो सकता है नेहरू की गलतियों को लेकर देश का इतिहास कुछ ठोकरें खाने को विवश हुआ या जरूरत से ज्यादा राष्ट्रीय संस्थानों का नामकरण प्रथम प्रधानमंत्री से जुड़ गया हो, लेकिन अतीत के बादलों के पीछे भी वही सूरज था जो आज भी देश को रोशन करता है। यह एक लंबी बहस है कि नेहरू-गांधी परिवार ने देश की प्रतिमाओं पर कहीं अधिक कब्जा कर लिया, लेकिन जो इतिहास के लम्हे बनकर दर्ज हैं, उन्हें मिटाया भी तो नहीं जा सकता। पालमपुर में शांता कुमार के हस्तक्षेप से नेहरू की मूर्ति का उत्थान वास्तव में राजनीतिक चरित्र का भी उत्थान हो सकता है, बशर्ते पार्टी इसका समर्थन करे। नेहरू के प्रतीक को भाजपा के वरिष्ठ नेता द्वारा दिखाए जा रहे सम्मान का जिक्र अलग-अलग तरह की वकालत है। जो नेहरू के खिलाफ गर्जते-बरसते या उन्हें इतिहास की कोठरी में बंद करने का बहाना ढूंढते हैं, उनके लिए यह क्षण भारी होंगे। कश्मीर पर भाजपा की निगाहें हमेशा से नेहरू की आलोचना में कोई भी बहाना नहीं छोड़ना चाहेंगी, फिर भी आचरण की मर्यादा पर शांता कुमार उनकी छोटी सी प्रतिमा को गौरव प्रदान करते हैं। यह कार्य देश की निगाहों में राजनीति को पवित्र बना सकता है, अगर नेता एक-दूसरे की छवि को कब्र में धकेलना बंद कर दें।

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