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पवित्रता और संवेदनशीलता खो दे, इसे मन के भीतर गहरे समेट लीजिये।
ये डोर अटूट है। गर्भनाल के सूत्रों से बंधी। केवल रेशम का धागा मात्र नहीं ये वही सूत्र हैं जो माँ के रक्त को दो एकदम अलग अलग लोगों में पोषित-प्रवाहित करते हैं और उससे भी आगे सिर्फ भावनाओं के ताने-बाने में गुँथकर एक हो जाते हैं। चाहे रक्त सम्बंध हो या न हो। भाई-बहन शब्द की भावना मन से बहकर मन तक जाती है। इसलिए रक्षाबंधन की डोर अटूट कहलाती है।
रक्षाबंधन का त्योहार केवल सेलिब्रेशन या अवसर नहीं। यह मात्र उपहारों के आदान प्रदान का मसला भी नहीं। बाकी त्योहारों की तरह इसमें केवल उल्लास, उत्साह और धूम नहीं है। इसमें है एक रिश्ते को निभाने की जिम्मेदारी, एक दायित्व पर खरा उतरने की भावना और सबसे बढ़कर एक-दूसरे के सम्मान की रक्षा के लिए चुनौतियों से लड़ जाने का साहस। इसलिए ये रिश्ता सबसे अलग और सबसे खरा है और यही कारण है कि चाहे कितनी भी उम्र हो जाये, भाई-बहन के मन में एक-दूसरे के प्रति दिखावे की परत का चढ़ना मुश्किल होता है। वो वैसे ही परस्पर स्नेह की डोर में बंधे होते हैं जैसे बचपन में थे। रक्षाबंधन इसी भावना को एक सूत्र में बांधता है।
भाई बहन के स्नेह का प्रतीक
मात्र 11 वर्ष की उम्र थी तब। उत्साह और उमंगों से भरी हुई। उस छोटे से कस्बे में जहां नर्मदा के पानी के साथ ढेर सारा अपनापन भी लोगों के मन को तर रखता था, पापा के साथ हम भी ट्रांसफर होकर आ गए। कुछ ही दिनों में हर गली अपने घर के बरामदे सी लगने लगी। सामाजिक और रचनात्मक गतिविधियों को गति देने के लिहाज से पापा ने कस्बे के कुछ लोगों को एक छोटा सा संस्थान बनाने का सुझाव दिया और लोग तुरन्त एकजुट हो इसके विस्तार में लग गए। पहला कार्यक्रम तय हुआ संगीत का। इसमें बिना किसी भेदभाव कोई भी भाग ले सकता था और यहीं से मैंने पहली बार जाना दीदी शब्द की गहराई को।
वो एक आम दिन था जब शाम के समय हम सब संगीत के कार्यक्रम की रिहर्सल के लिए क्लब में जुट रहे थे। हम बच्चों की रिहर्सल पहले करवा दी जाती थी ताकि हम समय पर घर पहुंच सकें। मैं दरवाजे पर खड़ी अंदर चल रही एक रिहर्सल को सुनते हुए अभी अपनी बारी आने का इंतज़ार ही कर रही थी कि पीछे से एक स्वर आया-'दीदी थोड़ा सा अग्गे हो जाओ।' मैंने ज्यूँ ही पलट कर देखा- नाटे कद का एक धोती और बंडी धारी चमकते काले रंग वाला आदमी लाल आंखें और सफेद दांत निपोरे मेरे सामने हाथ जोड़े खड़ा था। मुझे गाने में खलल पड़ने से ज्यादा गुस्सा खुद को दीदी पुकारे जाने पर आया। ये उम्र में मुझसे कम से कम तिगुना आदमी क्या मेरा मजाक उड़ाने को मुझे दीदी कह रहा है! क्योंकि अपने राम की कद काठी हमेशा से गामा पहलवान को टक्कर देने वाली रही है। चूंकि वो उम्र में बड़े थे और बदतमीजी न करने के संस्कार घर और स्कूल दोनों जगह बारहखड़ी की जगह सिखाये गए थे, मैं मन मसोस कर रह गई और उन सज्जन के रास्ते से हट गई। जितनी देर उन्होंने गाया मैं उनको घूरती रही और वो मस्त अपने गाने में मग्न थे। आवाज़ उनकी वाकई बहुत अच्छी थी। बाद में पता चला कि वह असल मे लोगों के कपड़े धोने और इस्त्री करने का काम किया करते थे।
घर आकर जितनी झल्लाहट के साथ मम्मी से शिकायत कर सकती थी की -'मम्मी वो अंकल ने मुझे दीदी बोला!' मम्मी कुछ नहीं बोलीं और मुस्कुराती रहीं। तवज्जो न मिलने पर मैंने फिर अपना प्रश्न फेंका और इस बार मम्मी ने जवाब दिया, उतनी ही शांति से। 'बेटा दीदी शब्द का मतलब सिर्फ उम्र से नहीं होता। दीदी एक सम्मान सूचक शब्द है जो किसी भी उम्र का व्यक्ति, किसी भी उम्र की लड़की या महिला के लिए भी यूज कर सकता है। इसलिए वो अंकल ने कुछ गलत नही कहा।' वो दिन है और आज का दिन, मेरे लिए मैडम सम्बोधन से कहीं प्यारा दीदी शब्द है। ये शब्द भीतर तक भिगोता है अब भी।
रक्षा और जिम्मेदारी का भावपर्व
भाई- बहन का रिश्ता केवल एक माँ-पिता से जुड़ा भर नही है। हमारे समाज में भैया शब्द भी उतना ही आदरसूचक है जितना दीदी। चाहे वो अपने रक्त सम्बन्धी भाई के लिए हो या किसी अनजान के लिए। भाई बोलते वक्त मन से अपने आप सामने वाले के लिए आशीष निकल जाते हैं।
रक्षाबंधन के आने का पता बाजार से भी चलता है। ढेर सारी रंग बिरंगी राखियों, उपहारों से बाजार गुलजार हो जाता है। टीवी व अन्य माध्यमों पर भी राखी की आहट सुनाई और दिखाई देने लगती है। विज्ञापनों से लेकर वस्तुओं तक, सबकुछ भावनाओं के रंग में रंग जाता है। कुछ दिनों पहले ऐसे ही एक विज्ञापन ने ध्यान आकर्षित किया। विज्ञापन थोड़ा पुराना है लेकिन इसमें भावनाएं सदाबहार थीं। भाई अपनी बहन के घर राखी बंधवाने आया है और बहन-जीजाजी के साथ उसकी ठिठोली चल रही है। राखी बांध बहन अपने भाई का मुंह मीठा कराने को अपने हाथों बनाई खीर उठाती है और भाई एक चम्मच खाते ही पूरा बड़ा कटोरा यह कहते हुए ले लेता है कि वो पूरी खीर उसके साथ उसके घर जाएगी। अंत यह कि बहन के हाथ से खीर में बजाय शकर के नमक पड़ गया था और भाई उसकी भावनाओं का सम्मान रखते हुए झूठी तारीफ कर, उसकी गलती को सबके सामने छुपाने के उपक्रम में था। बहन को पता चल गया और वो यह भी जान गई कि अब तक ठिठोली कर रहा उसका नन्हा भाई, अब जिम्मेदार आदमी की भूमिका में आ गया।
इस विज्ञापन में मन भिगो दिया और आंखें भी। मुझे याद आया 8 साल छोटे भाई का करियर के शुरुआती दिनों में अकेले-अनजान शहर में रहने का संघर्ष। जिस भाई को सब्जी पसन्द न आने पर माँ अक्सर चुपचाप पराठे अचार दे दिया करती थी। वो मात्र एक साल में अच्छा खाना बनाना सीख गया और आज हर तरह का खाना दक्षता से बना लेता है। उसे खाना पकाना पसन्द है और हमेशा यही कहता है कि खाना बनाना केवल औरतों की ही जिम्मेदारी क्यों बनकर रहे? आदमी भी तो जिम्मेदारियां बांट सकते हैं।
भाइयों की ये नई पीढ़ी असल में भाई-बहनों से इतर स्त्री-पुरुष के मन में आपसी सम्मान और समन्वय की भावना को पुष्ट करती है। सच ही तो है यही सम्मान स्त्री-पुरुष को समाज में इंसान होने की भावना की ओर ले जाने की पहली सीढ़ी है। इसलिए इस भावना का सम्मान कीजिये और इससे पहले की रक्षाबंधन का यह पवित्र त्योहार अपनी भावनाएं, पवित्रता और संवेदनशीलता खो दे, इसे मन के भीतर गहरे समेट लीजिये।
सोर्स: अमर उजाला
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