सम्पादकीय

राज्यसभा की जरूरत है या नहीं: स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ पर ये सवाल क्यों ना फिर उठाया जाए?

Tara Tandi
15 Aug 2021 12:53 PM GMT
राज्यसभा की जरूरत है या नहीं: स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ पर ये सवाल क्यों ना फिर उठाया जाए?
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राज्यसभा सेक्रेटेरियट की ओर से प्रकाशित एक एक पुस्तिका है

जनता से रिश्ता वेबडेस्क | नीरज पाण्डेय| राज्यसभा सेक्रेटेरियट की ओर से प्रकाशित एक एक पुस्तिका है- 'RAJYA SABHA : ITS CONTRIBUTION TO INDIAN POLITY'. इसकी प्रस्तावना इसी सवाल से शुरू होती है कि संसद में दूसरे सदन की क्या आवश्यकता है. इसके जवाब में लोकतांत्रिक तौर पर जिन महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक हस्तियों का उल्लेख है, उनमें संयुक्त राज्य अमेरिका के संस्थापकों में शुमार दो नेताओं का उदाहरण काफी है. बेंजामिन फ्रैंकलिन का कहना था कि दूसरा सदन एक दोमुंहे सांप जैसी परिस्थिति पैदा करता है. वो ऐसे कि 'मान लीजिए दो मुंह वाला सर्प पानी पीने निकला है. रास्ते में एक झाड़ी आ गई. एक मुंह कहता है बाईं तरफ से चलो, दूसरा मुंह कहता है कि दाईं ओर से चलो. इसी चक्कर में समय निकल जाता है और सांप प्यास के मारे मर जाता है'.

लेकिन जॉर्ज वाशिंग्टन इससे इत्तेफाक नहीं रखते थे. उन्होंने एक घटना के ज़रिये अपनी बात रखी. एक बार जॉर्ज वाशिंग्टन और थॉमस जैफरसन दूसरे सदन की आवश्यकता के मुद्दे पर ही बातचीत के लिए नाश्ते की टेबल पर बैठे थे. जैफरसन ने दूसरे सदन के गठन को गैरजरूरी बताया. इस पर वाशिंग्टन ने उनसे पूछा तुम कॉफी को तश्तरी में क्यों डाल रहे हो? इसपर जैफरसन बोले- ताकि कॉफी ठंडी हो सके. वाशिंग्टन ने कहा- हम कानूनों को भी कई बार ठंडा होने के लिए सांसदों के बीच रखते हैं. (इशारा इस ओर था कि उच्च सदन किसी मुद्दे को कानून के रूप में पारित करने से पहले उसपर तसल्ली से विचार करता है).

मूल धारणा ये है कि निचले सदन में कोई कानून अगर राजनीतिक महात्वाकांक्षाओं, संख्या बल या समीकरणों इत्यादि की वजह से जल्दबाजी में पास हो गया है तो ऊपरी सदन उस कानून पर ठंडे दिमाग से विचार करेगा. कमोबेश इसी वैचारिक बुनियाद पर 1787 में द्विसदनीय व्यवस्था की शुरुआत हुई, जब अमेरिकी संविधान के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई और आज दुनिया की 79 संसदों (यानी करीब 41%) में यही सिस्टम है.

भारत में ऊपरी सदन यानी राज्यसभा 3 अप्रैल, 1952 से प्रभावी है और इसका पहला सत्र उसी साल 13 मई को शुरू हुआ था. लेकिन उसके पहले संविधान सभा में राज्यसभा की जरूरत को लेकर जो बहस हुई, उसमें इसके विरोध में कई ठोस तर्क सामने आए थे.

अनुच्छेद 370 को ड्राफ्ट करने वाले अय्यंगर ने पेश किया राज्यसभा गठन का प्रस्ताव

28 जुलाई, 1947 को दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में संविधान सभा की बैठक सुबह 10 बजे शुरू हुई. डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद सभा की अध्यक्षता कर रहे थे. उस दिन लोकसभा और राज्यसभा (Council of States and House of the People) के गठन का प्रस्ताव उन्हीं गोपालस्वामी अय्यंगर ने पेश किया, जिन्होंने कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 का मसौदा तैयार किया था, जो 1937 से 1943 तक कश्मीर के प्रधानमंत्री रह चुके थे. वही गोपालस्वामी अय्यंगर जिन्हें नेहरू मंत्रिमंडल में 'मिनिस्टर विदाउट पोर्टफोलियो' भी बनाया गया था (हालांकि कश्मीर का मसला वही देखते थे और सरदार पटेल के ऐतराज पर नेहरू ने स्पष्ट तौर पर कहा था अय्यंगर को कश्मीर की जिम्मेदारी उनके कहने पर दी गई है). अय्यंगर ने ही संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर के मसले पर बतौर भारतीय प्रतिनिधि ये बयान दिया था कि एक बार शांति स्थापित हो जाए तो कश्मीर में जनमत संग्रह कराया जाएगा. चूंकि यहां राज्यसभा की बात हो रही है तो महत्वपूर्ण ये भी है कि यही अय्यंगर राज्यसभा के पहले 'लीडर ऑफ हाउस' भी बने. (यानी वो पद जो अभी पीयूष गोयल के पास है).

खैर, हम फिर से कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में लौटते हैं, जहां स्वतंत्रता का सवेरा आने से सिर्फ 18 दिन पहले एक अहम बहस शुरू होने वाली थी. राज्य सभा के गठन का प्रस्ताव पेश करने के बाद सदस्यों ने बोलना शुरू किया. कई सदस्यों ने कहा कि दो सदन गैरज़रूरी हैं. मिसाल के तौर पर मुस्लिम लीग से कांग्रेस में शामिल हुए, बाद में बिहार के पूर्णिया और किशनगंज से जीतकर लोकसभा में पहुंचने वाले मोहम्मद ताहिर ने कहा कि राज्यसभा की कोई दरकार नहीं है. मोहम्मद ताहिर ने तर्क दिया कि दो सदनों की व्यवस्था अंग्रेजी मानसिकता की गुलामी से ज्यादा कुछ भी नहीं है. अंग्रेज ऊपरी सदन के जरिये मनोनीत सदस्यों के सामने निर्वाचित सदस्यों का प्रभाव कम करना चाहते थे, अब उसी सिद्धांत को आगे बढ़ाना ठीक नहीं है. उन्होंने सवाल उठाया- 'क्या मैं पूछ सकता हूं कि भारत में कोई सभा मौजूदा संविधान सभा से बेहतर रही है? एक ही सदन काम कर रहा है और संविधान को बना रहा है. तो क्या इस संविधान सभा को भंग करके इसे दो सदनों में तब्दील कर दिया जाए? मैं इस सिद्धांत में यकीन नहीं करता कि दो सदन आवश्यक हैं. उच्च सदन साम्राज्यवाद की रचना है.'

जब शिब्बन लाल सक्सेना ने कहा तरक्की की राह में रोड़ा न बन जाए राज्यसभा

इसी तरह संयुक्त प्रांत से संविधान सभा में आने वाले शिब्बन लाल सक्सेना ने कहा- 'अध्यक्ष जी, प्रस्ताव रखा गया कि दो सदन होने चाहिए- लोकसभा और राज्यसभा. लेकिन हमारा अनुभव यही है कि उच्च सदन तरक्की के रास्ते में रोड़ा बन जाता है. दुनिया में हर जगह उच्च सदन को लेकर यही अनुभव रहा है. इसकी वजह से विकास की रफ्तार में बाधा आती है. हमें अंतरराष्ट्रीय जगत में रूस और अमेरिका के बराबर जगह बनानी होगी. इसके लिए 50 वर्षों का विकास हमें 5 से 10 वर्षों में पूरा करना होगा. मुझे नहीं लगता कि दो सदनों की व्यवस्था हमारे नए कार्यक्रमों को अमल में आने देगी. इसलिए राज्यसभा गठन के प्रस्ताव पर दोबारा विचार किया जाना चाहिए'.

ध्यान देने की बात ये है कि राज्यसभा के गठन का विरोध करने वाले वो लोग थे, जो ज़मीन से जुड़े और आम लोगों में बेहद लोकप्रिय नेता थे. मिसाल के तौर पर महराजगंज के पहले सांसद शिब्बन लाल सक्सेना पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांधी और लेनिन कहलाते थे. एक किसान को जिंदा जला दिए जाने की घटना के बाद महात्मा गांधी के कहने पर शिब्बन लाल महाराजगंज गए थे. जमींदारों के अत्याचार को खत्म करने के लिए शिब्बनलाल ने गांवों में जाकर लोगों को संगठित किया. सन 1931 में ईख संघ की स्थापना की. इतना संगठित होकर आंदोलन किया कि ब्रिटिश हुकूमत को गन्ना एक्ट लागू करना पड़ा और गन्ने की कीमत दो आना प्रति मन से बढ़ाकर पांच आना प्रति मन कर दी गई. इतना ही नहीं किसानों के सरकार को झुकना पड़ा और जमीन का सर्वे कराकर महराजगंज के करीब सवा लाख किसानों को जमीन पर मालिकाना हक दिलाया गया. अगर ऐसे शिब्बन लाल सक्सेना ने राज्यसभा को तीव्र तरक्की के रास्ते में अवरोध बताया था, तो इसे एकदम से खारिज नहीं किया जा सकता.

लेकिन, आखिर में इस प्रस्ताव को पेश करने वाले गोपालस्वामी अय्यंगर ने जो बात कही, वो भी बेहद महत्वपूर्ण है. अय्यंगर ने कहा – 'राज्यसभा से हमारी सबसे बड़ी अपेक्षा ये है कि वहां अहम मुद्दों पर सम्मानजनक बहस होगी. राज्यसभा उन कानूनों को पास करने में वक्त भी लेगी, जो लोकसभा में हड़बड़ी में पास हो गए रहेंगे.'

पुर्जे उछालने और मेज पर चढ़ने की कल्पना तो नहीं थी राज्यसभा को लेकर

आखिर में प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया. लेकिन, यानी 15 अगस्त 1947 से 18 दिन पहले हुई इस बहस में दो तरह के विचार सामने आए- पहला विचार, राज्यसभा की कोई ज़रूरत नहीं है और दूसरा विचार, राज्यसभा से सार्थक और सम्मानजनक बहस की उम्मीद की जाती है. लेकिन अब 75 वर्षों बाद 15 अगस्त के ठीक पहले राज्यसभा में जिस तरह से आसन की तरफ पुर्जे उछाले गए, मेज पर चढ़कर फाइल फेंकी गई, मार्शल के साथ धक्का-मुक्की हुई, क्या फिर एक बार मोहम्मद ताहिर और शिब्बन लाल सक्सेना जैसे सदस्यों का सवाल सामने नहीं दिख रहा है- आखिर राज्यसभा की जरूरत क्या है?

और अंत में : देश के सम्मानित टैक्सपेयर्स को पता होना चाहिए कि राज्यसभा के सदस्यों को हर महीने 50 हजार रुपये मिलते हैं. सत्र के दौरान उपस्थित रहने पर प्रतिदिन 2000 रुपये दैनिक भत्ता मिलता है. (दैनिक भत्ता तभी मिलता है, जब सदस्य इस प्रयोजन से रखी गई पंजिका में हस्ताक्षर करता है). इसके अलावा प्रति माह 45 हजार रुपये निर्वाचन क्षेत्र भत्ता और 45 हजार रुपये कार्यालय व्यय भत्ता भी मिलता है. रेल यात्रा, हवाई यात्रा, फोन, बिजली,पानी, वाहन इत्यादि की सुविधा अलग है. भूतपूर्व हो जाने पर भी पेंशन लाभ, मुफ्त रेल यात्रा और चिकित्सा सुविधा दी जाती है. इतने सब के बदले एक सार्थक बहस की उम्मीद करना चांद-सितारे मांगना तो नहीं है ?

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