सम्पादकीय

Rajya Sabha Elections: राज्यसभा पार्किंग स्लॉट नहीं, इसकी जरूरत जितनी कल थी उतनी ही आज भी है

Rani Sahu
1 Jun 2022 2:39 PM GMT
Rajya Sabha Elections: राज्यसभा पार्किंग स्लॉट नहीं, इसकी जरूरत जितनी कल थी उतनी ही आज भी है
x
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मनीष तिवारी (Manish Tewari) ने राज्यसभा चुनाव-2022 (Rajya Sabha Election) के मात्र 10 दिन पहले एक अहम सवाल उठा दिया है

शंभूनाथ शुक्ल |

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मनीष तिवारी (Manish Tewari) ने राज्यसभा चुनाव-2022 (Rajya Sabha Election) के मात्र 10 दिन पहले एक अहम सवाल उठा दिया है. उन्होंने कहा है, कि आज़ादी के 75 साल हो गए हैं, अब राज्यसभा की ज़रूरत क्या है? उन्होंने यह भी कहा है, कि राज्यसभा ने अपनी ज़िम्मेदारियों से मुंह मोड़ लिया है. अब तो वह सिर्फ़ एक पार्किंग स्लॉट है. मनीष तिवारी के इस बयान से उनकी अपनी पार्टी में भूचाल आ गया है, क्योंकि उनके बयान के निहितार्थ ये हैं कि कांग्रेस (Congress) में स्वतंत्र चिंतन का घोर अभाव है और सिर्फ़ नेहरू-गांधी परिवार अपनी स्वामिभक्ति चाहती है. लेकिन यह प्रश्न भी फिर से उभरने लगा है, कि राज्यसभा की ज़रूरत क्या है!
मालूम हो कि उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीस गढ़, महाराष्ट्र, राजस्थान, कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्र, ओडीसा, पंजाब और हरियाणा के कोटे से 57 राज्यसभा ख़ाली होनी हैं. ये सीटें जून और जुलाई में रिक्त हो जाएंगी. इसीलिए दस जून को चुनाव है. इनमें से सर्वाधिक 11 सीटें उत्तर प्रदेश से भरी जाएंगी. महाराष्ट्र और तमिलनाडु से 6-6 सीटें, बिहार से 5 तथा राजस्थान, कर्नाटक व आंध्र प्रदेश से 4-4 सीटें रिक्त हो रही हैं. मध्य प्रदेश और ओडीसा के कोटे से 3-3 सीटें रहेंगी. जबकि पंजाब, हरियाणा, झारखंड, तेलंगाना और छत्तीस गढ़ से दो-दो सीटें हैं एवं एक सीट उत्तराखंड से आएगी.
क्यों बना था उच्च सदन?
पहले तो इस पर विचार किया जाए, कि राज्यसभा बनी क्यों थी? तो इसका जवाब है कि इंडियन पार्लियामेंट्री एक्ट 1919 और 1935 के तहत भारत में संसद की स्थापना के बारे में ब्रिटिश सरकार ने सोचा था. इन दोनों ही क़ानूनों में भारत में ग्रेट ब्रिटेन की तर्ज़ पर भारतीय संसद की स्थापना होनी थी. एक निचला सदन और एक उच्च सदन अर्थात् हाउस ऑफ़ कॉमन और हाउस ऑफ़ लॉर्ड्ज़. आज़ादी के बाद भी यह सवाल उठा कि हाउस ऑफ़ लॉर्ड्ज़ की स्वतंत्र भारत में क्या ज़रूरत है? किंतु हमारा संविधान जब तक बना, यानी 26 नवम्बर 1949 तक, भारत में प्रदेशों का विधिवत गठन नहीं हो पाया था और कई जगह पुराने राज्य (रियासतें) बने हुए थे. इनमें से कश्मीर, ज़ाम नगर और हैदराबाद का तब तक किसी भी प्रदेश में विलय नहीं हुआ था. इसलिए इन राज्यों (रियासतों) का संसद में प्रतिनिधित्त्व बना रहने देने के लिए हाउस ऑफ़ लॉर्ड्ज़ को रखा गया. यही हाउस ऑफ़ लॉर्ड्ज़ राज्यसभा है. इसमें देसी रियासतों की नुमाइंदगी होती थी. जब सभी राज्यों और रियासतों का विधिवत विलय हो गया, तब तक पहले आम चुनाव आ गए. और तब यह सोचा गया कि राज्यसभा (हाउस ऑफ़ लॉर्ड्ज़) को विशिष्ट जनों के लिए बनाया रखा जाए.
चोर दरवाज़े से संसद तक पहुंचना!
विशिष्ट जनों की श्रेणी में उनके बारे में सोचा गया, जो विद्वान चिंतक और सुधी लोग अपनी जाति, समुदाय या विचारधारा की अल्प संख्या की वज़ह से लोक सभा में नहीं पहुंच सकते. ऐसे लोग लोकसभा में भावनाओं में बह कर किए गए फ़ैसलों पर पुनर्विचार करने में सक्षम होंगे. ताकि सरकार के किसी फ़ैसले से आम नागरिक को उसके अधिकारों से वंचित न होना पड़े. यही कारण रहा, कि राज्यसभा में किसी भी तरह के जातीय या सामुदायिक आरक्षण की अनुशंसा नहीं हुई. किंतु बाद में राज्यसभा के ज़रिए संसद में प्रवेश का एक ऐसा दरवाज़ा मान लिया गया जिसमें वे सभी नेता पहुंच सकते थे जो लोकसभा का सामना नहीं कर सकते. सभी राजनीतिक दलों ने इसके औचित्य पर चुप साध ली. हालांकि यह सच है, कि राज्यसभा की अवधारणा संविधान सभा से पारित नहीं हुई. अर्थात् राज्यसभा संसद के लिए अपरिहार्य नहीं है. बाद में तो उद्योगपति और बड़े-बड़े व्यवसायी भी अपने पैसों के बूते राज्यसभा में घुसने लगे.
उच्च सदनों से बढ़ता वित्तीय बोझ
ऐसे में मनीष तिवारी के बयान को एक राजनेता का अनर्गल प्रलाप नहीं कहा जा सकता. राज्यसभा के औचित्य पर सवाल तो उठेगा. यही नहीं बहुत सारे प्रदेशों में विधान सभाएं भी ऐसे ही लोगों से भरी जाती हैं. आज़ादी के 75वें साल में इस पर विचार बहुत ज़रूरी है. जो लोग यह मानते हैं कि राज्यसभा लोक सभा के फ़ैसलों को चेक करती है, वह सही नहीं है. विधेयक लोक सभा में भी पारित हो जाते हैं, वे पुनर्विचार के लिए राज्यसभा में नहीं जाते. राज्यसभा में वही मामले जाते हैं जिनसे किसी तरह के संवैधानिक संकट का ख़तरा हो. इसके अतिरिक्त कभी-कभी संयुक्त सदन (दोनों सदन परस्पर मिल कर) की बैठक होती है और फ़ैसला पारित हो जाता है. फ़ाइनेंस बिल को लोकसभा में पास होने के बाद राज्यसभा में भेजा जाता है. पर यदि राज्यसभा 14 दिनों में उसे पास नहीं करती तो उसे पास मान लिया जाता है. इसी तरह संयुक्त सदन में लोकसभा सदस्यों का बहुमत होता है, इसलिए वहां पर भी राज्यसभा का कोई ख़ास असर नहीं पड़ता. इसीलिए राज्यसभा के औचित्य पर सवाल उठे हैं. कई प्रदेशों में तो उच्च सदन (विधान परिषद) है भी नहीं, क्योंकि इस सदन से उसके ऊपर अतिरिक्त वित्तीय बोझ पड़ता है.
फ़ेयर गेम कहां है?
लेकिन जो असली सवाल है, वह यह कि यदि राज्यसभा न हुई तो किसी भी तरह की भावनात्मक लहर में लोकसभा के अंदर अपार बहुमत से आई पार्टी अपने एजेंडे के तहत ऐसे फ़ैसले भी पारित करवा सकती है, जिससे भविष्य में देश की एकता, अखंडता ख़तरे में पड़ जाए. इसलिए यह आवश्यक है कि लोकसभा के ऐसे फ़ैसलों पर निगाह रखने के लिए एक उच्च सदन हो. यहीं पर यह प्रश्न भी उठता है, कि क्या राजनीतिक दल वास्तव में विशिष्ट चिंतकों और विद्वानों को राज्यसभा में भेजते हैं? बस, इसी सवाल से हर राजनीतिक दल का पानी उतरने लगता है. क्योंकि राजनीतिक दल जिस तरह के लोगों को राज्यसभा में भेजते हैं, वे कोई विशिष्ट जन नहीं होते हैं. मनीष तिवारी ने कांग्रेस उम्मीदवारों की सूची देख कर यह सवाल उठाया है. उन्होंने कहा है, कि 1947 में भारत में साक्षर लोगों की आबादी महज़ 12 प्रतिशत थी, इसीलिए उस समय तो इस सदन की उपयोगिता थी. पर धीरे-धीरे समाज जब आगे बढ़ने लगा, तब इसका क्या औचित्य है?
राहुल और प्रियंका में कलह
इस संबंध में मध्यप्रदेश और छत्तीस गढ़ के वरिष्ठ कांग्रेस चिंतक और छत्तीस गढ़ के पूर्व महाधिवक्ता कनक तिवारी का कहना है, कि मनीष की बात जायज़ है. राज्यसभा भले ही वरिष्ठ और विद्वान संविधान विशेषज्ञों को संसद में लाने हेतु बनाई गई हो, पर आज वहां किस तरह के लोग आ रहे हैं, यह सोचनीय है. दरअसल कांग्रेस ने जिन दस लोगों को अपने सिम्बल पर राज्यसभा के लिए उतारा है, वे उस राज्य से संबंध ही नहीं रखते. कोई भी लोकल उम्मीदवार नहीं है. कांग्रेस की इस सूची में छत्तीसगढ़ से राजीव शुक्ला और रंजीता रंजन हैं. हरियाणा से अजय माकन उसके प्रत्याशी हैं. कर्नाटक से जयराम रमेश, मध्य प्रदेश से विवेक तन्खा, महाराष्ट्र से इमरान प्रतापगढ़ी हैं.
राजस्थान से रणदीप सुरजेवाला, मुकुल वासनिक, प्रमोद तिवारी के नाम हैं. और तमिलनाडु से पी चिदंबरम को राज्यसभा में भेजा जाएगा. अब ऐसे संकट में, आने वाले विधान सभा चुनाव में कांग्रेस किस मुंह से वोट मांगेगी. कांग्रेस के भीतर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के बीच कलह है तो सोनिया गांधी अपने स्वास्थ्य के चलते मुखर नहीं हो पा रहीं. ऐसे में टिकट वितरण में जो जिसका आदमी था, वह परचा भर आया. इसके साथ ही कनक तिवारी का कहना है कि छत्तीस गढ़ के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र बघेल और राजस्थान के सीएम अशोक गहलौत ने ख़ुद ही पार्टी के भीतर कलह पैदा कर रखी है. उन्होंने ढाई-ढाई साल तक पद में रहने के नियम को नहीं माना. प्रियंका गांधी ने पंजाब और उत्तर प्रदेश में पार्टी का बंटाढार किया तो राहुल गांधी की महत्त्वाकांक्षा अब दिख रही है.
बीजेपी का दांव
यही कारण है, कि भारतीय जनता पार्टी जो राज्यसभा में अक्सर कमज़ोर पड़ती रहती है, वह अपनी राजनीतिक एकजुटता के बूते भारी पड़ जाती है. और 2022 में राज्यसभा की सीटों को भरने में भी बीजेपी ने बड़ी सफ़ाई से अपनी राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया है. उसने राज्यसभा चुनाव में भी जातीय समीकरण साध लिए हैं. यहां तक कि उत्तर प्रदेश में कुल तीन सीटों को जिता पाने में सक्षम समाजवादी पार्टी ने एक सीट निर्दलीय कपिल सिब्बल को और दूसरी सीट पर राष्ट्रीय लोक दल के मुखिया जयंत चौधरी को समर्थन दिया है. उधर राजस्थान में निर्दलीय सुभाष चंद्रा को और हरियाणा में कार्तिकेय शर्मा को समर्थन दे कर बीजेपी ने कांग्रेस के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी हैं. इस स्थिति को देख कर लगता है कि मनीष तिवारी सही कह रहे हैं कि कांग्रेस ने राज्यसभा को पार्किंग स्लॉट बना दिया है. और फिर तब राज्यसभा का औचित्य क्या है!

सोर्स -tv9hindi. com

Rani Sahu

Rani Sahu

    Next Story