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गांधी परिवार पार्टी पर अपना नियंत्रण कम करने के मूड में नहीं है।
पंद्रह राज्यों की 57 राज्यसभा सीटों पर आगामी दस जून को चुनाव होंगे। लगभग सभी पार्टियों ने अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर दी है। सबसे पहले बात करते हैं, देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की। कांग्रेस के प्रत्याशियों की सूची से उसकी दिशाहीनता और दुविधा स्पष्ट हो जाती है। कांग्रेस ने जिन दस उम्मीदवारों की सूची जारी की है, उनमें छत्तीसगढ़ से राजीव शुक्ल और रंजीता रंजन, हरियाणा से अजय माकन, कर्नाटक से जयराम रमेश, मध्य प्रदेश से विवेक तन्खा, महाराष्ट्र से इमरान प्रतापगढ़ी, तमिलनाडु से पी. चिदंबरम, राजस्थान से मुकुल वासनिक, रणदीप सुरजेवाला और प्रमोद तिवारी के नाम शामिल हैं।
इस सूची के नामों को देखें, तो इसमें कई संदेश छिपे हुए हैं। मोटे तौर पर इससे गांधी परिवार की हकदारी (इनटाइलमेंट) स्पष्ट होती है। स्पष्ट रूप से इसमें सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा के चहेतों को टिकट दिया गया है। जिन दो राज्यों में पार्टी की सरकार है, और जहां शीघ्र ही चुनाव होने वाले हैं, वहां स्थानीय लोगों की उपेक्षा की गई है। इससे यह समझ में नहीं आ रहा है, पार्टी ने ऐसा क्यों किया? अगर दूसरे राज्यों से उम्मीदवार को लाना ही था, तो जहां तीन सीटें हैं, वहां एक बाहर से और दो स्थानीय लोगों को प्रत्याशी बना सकते थे।
जाहिर है, इससे पार्टी में असंतोष फैल रहा है और कुछ लोगों ने खुलकर नाराजगी जाहिर भी की है। इससे कांग्रेस की दशा-दिशा का पता चलता है कि वह हकदारी की राजनीति से जूझ रही है। पार्टी ने इस पर विचार नहीं किया कि इससे राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव पर क्या असर पड़ेगा, जहां अभी उसकी सरकार है और आगे चुनाव जीतना है। प्रमोद तिवारी का राजस्थान से क्या लेना-देना, उन्हें वहां से क्यों टिकट दिया गया? इसके अलावा, सूरजेवाला को अगर राज्यसभा में लाना ही था, तो राजस्थान के बजाय हरियाणा से क्यों नहीं लाया गया?
इसके पीछे तर्क क्या है? छत्तीसगढ़ से दो प्रत्याशी चुने गए हैं, और दोनों बाहरी हैं, वहां से भी नाराजगी के संकेत हैं। चिदंबरम और जयराम रमेश को टिकट दिए गए हैं, दोनों अनुभवी और कद्दावर नेता हैं, जो सदन में पार्टी का पक्ष मजबूती से रखेंगे। यह ठीक है कि सबको खुश नहीं किया जा सकता और कहने से करना ज्यादा कठिन है, लेकिन पार्टी को स्थानीय और बाहरी लोगों के बीच एक संतुलन तो बनाना ही चाहिए था। असल में कांग्रेस की एक मुश्किल और है कि इसमें फैसले सार्वजनिक निर्णय से नहीं किए जाते।
जैसा कि हाल में राहुल का कैंब्रिज में दिया गया बयान। भाजपा के आरोप कि वह सवालों का जवाब नहीं दे पाए, को मानें या न मानें, पर राहुल ने वहां एक बड़ा बयान दिया कि 'भारत राज्यों का एक संघ है, राष्ट्र नहीं है। राष्ट्र तो पश्चिम की अवधारणा है और उसे किंगडम के रूप में देखा जाता है।' उन्होंने इतना बड़ा बयान दिया, लेकिन पार्टी के अंदर इस पर चर्चा भी नहीं हुई कि यह हमारी पॉलिसी होने वाली है। बिना पार्टी में चर्चा किए, बयान दिए जाते हैं और वह पार्टी की नीति हो जाती है! अब बात करते हैं, केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की।
मोदी की भाजपा ने एक भी मुस्लिम नेता को अपना राज्यसभा प्रत्याशी नहीं बनाया है, जिससे पार्टी की दिशा स्पष्ट है। जैसा कि उन्होंने मंत्रिमंडल में नए लोगों को शामिल किया था, उसी तरह से इस बार राज्यसभा का प्रत्याशी बनाते वक्त पार्टी ने जावड़ेकर और मुख्तार अब्बास नकवी को नहीं चुना, जबकि नकवी केंद्र सरकार में मंत्री भी हैं। जिन लोगों को प्रत्याशी बनाया गया है, वे ऐसे लोग हैं, जो मोदी की कार्यसंस्कृति में ढल गए हैं। जाहिर है कि मोदी अपनी नई टीम को सामने ला रहे हैं। महंगाई, बेरोजगारी, स्वास्थ्य, शिक्षा, कोविड में मौतें-इन सबके बावजूद लोग मोदी को ही चुन रहे हैं।
इसके कई कारण हैं-हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, लोककल्याणकारी कार्यक्रम, जिसका फायदा लोगों तक पहुंच रहा है। इसके अलावा, एक और कारण हो सकता है, जिससे लोग उनकी तरफ मुड़ रहे हैं, वह यह कि लोग कहते हैं, 'इनके आगे-पीछे कोई नहीं है। गलतियां होती हैं, लेकिन नीयत सही है।' आज हमारा देश नौजवानों का देश है। कई क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां परिवारवाद से ग्रस्त हैं। इसलिए आज हमारे देश में हकदारी की राजनीति के खिलाफ एक नई भावना पैदा हो रही है, जिसका फायदा मोदी को मिलता दिख रहा है।
पाठकों को याद होगा, हाल ही में जब एक अंग्रेजी दैनिक में एक नौकरशाह के स्टेडियम में कुत्ते घुमाने की खबर छपी थी, तो लोगों में काफी गुस्सा था, लेकिन जब उनका दूसरी जगह तबादला किया गया, तो लोगों ने उसका काफी स्वागत किया। आम आदमी पार्टी की सूची देखकर लग रहा है कि अरविंद केजरीवाल एक नई पार्टी का गठन कर रहे हैं। वह शुरू से नए लोगों को अपने साथ ला रहे हैं और इस बार भी उन्होंने उन लोगों को प्रत्याशी बनाया है, जिनकी सामाजिक हैसियत है और वे समाज के लिए कुछ काम करते रहे हैं।
राज्यसभा का असल मकसद भी तो यही है कि विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को उसका सदस्य बनाया जाए। असल में आप कांग्रेस और भाजपा का विकल्प देने की कोशिश कर रही है। समाजवादी पार्टी ने इसमें बहुत दिलचस्प खेल खेला है। अखिलेश ने रालोद के जयंत चौधरी को अपना प्रत्याशी बनाया है, जिसका स्पष्ट संदेश है कि सपा रालोद के साथ गठबंधन जारी रखना चाहती है। उसके बाद कपिल सिब्बल को समर्थन दिया है, जो सदन में स्वतंत्र आवाज होंगे। इसके अलावा, कपिल सिब्बल आजम खान के बहुत करीबी हैं।
इस बीच अखिलेश और आजम खान के बीच जो दूरियों की बातें हो रही थीं, कपिल सिब्बल उसे खत्म करने में अखिलेश की मदद करेंगे। इससे प्रतीत होता है कि सपा ने दूर की सोचकर राज्यसभा का प्रत्याशी चुना है। राज्यसभा के लिए पार्टियों द्वारा चुने गए प्रत्याशियों की सूची से जो बात उभरकर सामने आ रही है, उससे पता चलता है कि कौन-सी पार्टी कितने पानी में है और उसकी भावी दशा-दिशा क्या होगी। मोदी एक नई टीम खड़ी कर रहे हैं, आम आदमी पार्टी नए लोगों को ला रही है, सपा विपक्षी पार्टियों के एक बड़े गठबंधन की तरफ बढ़ना चाह रही है और कांग्रेस की सूची देखकर लगता है कि गांधी परिवार पार्टी पर अपना नियंत्रण कम करने के मूड में नहीं है।
सोर्स: अमर उजाला
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