सम्पादकीय

Rajpath for Kartavya Path: भाषा, ज्ञान और शिक्षा का स्वदेशीकरण कीजिए, नाम बदलने भर से ही नहीं मिट जाएंगे गुलामी के प्रतीक

Rani Sahu
14 Sep 2022 10:22 AM GMT
Rajpath for Kartavya Path: भाषा, ज्ञान और शिक्षा का स्वदेशीकरण कीजिए, नाम बदलने भर से ही नहीं मिट जाएंगे गुलामी के प्रतीक
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By लोकमत समाचार सम्पादकीय
Rajpath for Kartavya Path: मार्गों या इमारतों के नाम बदलने को वास्तविक स्वदेशीकरण नहीं कहा जा सकता है. असली स्वदेशीकरण तो तब होता जब भाषा, ज्ञान और शिक्षा का स्वदेशीकरण किया जाता. दिक्कत यह है कि यह काम न एक झटके में किया जा सकता था और न ही इसके साथ शिलान्यास या मूर्ति अनावरण के कार्यक्रम जुड़े हो सकते थे.
अगर आजादी के बाद इस तरह के स्वदेशीकरण का कार्यक्रम लिया जाता, तो कम-से-कम पच्चीस साल लंबा एक ब्लू प्रिंट बनाना पड़ता. राष्ट्र-निर्माण की एक पूरी की पूरी पीढ़ी इसमें अपने आपको खपा देती. जो प्रधानमंत्री इस काम को शुरू करता, हो सकता है कि उसके जीवन में यह काम पूरा ही नहीं हो पाता. चूंकि ऐसा न तब किया गया और न ही ऐसा अब किया जा रहा है.
इसलिए दर्जा छह की नागरिकशास्त्र या सिविक्स की किताब से लेकर राजनीतिशास्त्र की एमए तक की किताबों में अंंग्रेज, अमेरिकी और अन्य यूरोपीय विद्वानों, सिद्धांतकारों और विमर्शकारों द्वारा रचा गया ज्ञान तब भी भरा हुआ था, और आज भी भरा हुआ है. इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि केंद्र या राज्यों में किस पार्टी और किस विचारधारा की सरकार है.
औपनिवेशिक महाप्रभुओं द्वारा रचे गए इस ज्ञान को आज तक किसी सरकार ने चुनौती देने की जुर्रत नहीं की है. हम ज्ञान के इन्हीं विदेशी रूपों में अपने समाज, संस्कृति और इतिहास का अध्ययन करने के लिए मजबूर हैं. विडंबना यह है कि इस ज्ञान को हम गुलामी का प्रतीक ही नहीं मानते.
हमारे बुद्धिजीवियों और राजनेताओं ने इस यूरोपीय ज्ञान के अनिवार्य अध्ययन से पैदा होने वाली दुविधाओं से बचने के लिए एक खास तरह की युक्ति विकसित कर ली है. वे उपनिवेशवादियों द्वारा किए जाने वाले आर्थिक शोषण और राजनीतिक संप्रभुता के हरण को एक अलग श्रेणी में रखते हैं, और उपनिवेशवाद का समर्थन करने वाले यूरोपीय विमर्शकारों द्वारा उत्पादित ज्ञान को एक दूसरी श्रेणी में रखते हैं.
पहली श्रेणी को भर्त्सना करके खारिज किया जाता है, और दूसरी श्रेणी को अध्ययन का विषय बना कर स्वीकार कर लिया जाता है. वास्तविक स्वदेशीकरण के रास्ते में दूसरी सबसे बड़ी बाधा है उच्च शिक्षा पर अंग्रेजी का वर्चस्व. दुनिया के सभी विकसित देशों ने अपनी आर्थिक-सांस्कृतिक प्रगति अपनी भाषाओं में ही की है.
भाषा का प्रमुख काम ज्ञान-विज्ञान की रचना करना है. जैसे ही कोई देश अपनी भाषा को छोड़ कर किसी दूसरी भाषा में यह काम करना शुरू करता है, वैसे ही उसकी मौलिकता नष्ट होने लगती है, और उस पर अनुवाद परकता हावी होती चली जाती है. दरअसल, अंग्रेजी शिक्षा और पश्चिमी ज्ञान का जोड़ एक ऐसी आफत है जिससे हमारा स्वदेशीकरण हमेशा अधूरा रहने को अभिशप्त रहता है.
Rani Sahu

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