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नवभारत टाइम्स; सुप्रीम कोर्ट ने राजीव गांधी हत्याकांड में उम्रकैद की सजा भुगत रहे एजी पेरारिवालन को आखिर रिहा करने का आदेश दे दिया। 51 वर्षीय पेरारिवालन को जेल में 31 साल हो चुके थे। रिहाई की बात काफी समय से चल रही थी, लेकिन कई कारणों से यह मसला लंबा खिंचता चला जा रहा था। एक तरफ पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या का यह मामला पूरे देश की संवेदना से जुड़ा था तो दूसरी तरफ तमिलनाडु की क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां लगभग निरपवाद रूप से स्थानीय भावनाओं से निर्देशित हो रही थीं। इसी वजह से केंद्र और राज्य की सरकारों के रुख में ऐसा विरोधाभास आ गया था, जो कई तरह की कानूनी उलझनों का कारण बनता चला गया। जहां राज्य में एक के बाद एक बनने वाली सरकारें रिहाई सुनिश्चित कराने का प्रयास कर रही थीं, वहीं केंद्र की सरकारें हर उपलब्ध न्यायिक मंच पर इसका विरोध करती रहीं। राज्यपाल भी हर तरह से केंद्र का साथ देते रहे। स्थिति यह थी कि पेरारिवालन को दो अन्य लोगों के साथ 9 सितंबर 2011 को ही फांसी पर लटका दिया गया होता, अगर मद्रास हाईकोर्ट ने महज एक हफ्ता पहले इस पर स्टे न दे दिया होता। इस लिहाज से देखा जाए तो पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या के मामले में दोषी करार दिए गए एक व्यक्ति का इस तरह रिहा किया जाना देश के न्यायिक इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है।
इस फैसले के जरिए सुप्रीम कोर्ट ने न केवल भारत की न्याय व्यवस्था में निहित मानवीय गरिमा को रेखांकित किया है बल्कि कई अहम कानूनी जटिलताओं को भी दूर करने की कोशिश की है। ध्यान रहे, तमिलनाडु कैबिनेट ने 9 सितंबर 2018 को ही पेरारिवालन को रिहा करने की सिफारिश करते हुए राज्यपाल से अनुरोध किया था कि वह अनुच्छेद 161 के तहत इसे मंजूरी दे दें। मगर राज्यपाल ने ढाई साल तक इसे लटकाए रखा और फिर राष्ट्रपति के पास भेज दिया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट कर दिया है कि इस मामले में राज्यपाल द्वारा कैबिनेट की सिफारिश पर अमल न करते हुए इसे लंबे समय तक लटकाए रखना उपयुक्त नहीं था और यह रवैया न्यायिक समीक्षा के दायरे में आता है। इतना ही नहीं, इस मामले को राष्ट्रपति के पास भेजे जाने का भी कोई संवैधानिक औचित्य नहीं था क्योंकि संविधान या कानून केंद्र को ऐसे मामलों में राज्य सरकार के फैसले को पलटने या उसे किसी रूप में बदलने का अधिकार नहीं देता। जाहिर है, सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने कानूनी तौर पर बहुत सारी धुंध साफ की है। राजनीतिक तौर पर देखा जाए तो राजीव गांधी हत्याकांड में वोटरों की कितनी भावनाएं बची हुई हैं और इसका कौन किस हद तक फायदा उठा सकता है, यह साफ होने में थोड़ा वक्त लगेगा। लेकिन केंद्र और राज्यों में बढ़ते टकराव वाले इस दौर में राज्यपाल की शक्तियों पर कुछ हद तक ही सही पर कानूनी अंकुश लगने के अपने मायने तो हैं ही।