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मानसून के आगोश में फिर हिमाचल अपने सफर की दास्तान सुना रहा है
सोर्स- Divyahimachal
मानसून के आगोश में फिर हिमाचल अपने सफर की दास्तान सुना रहा है और इसलिए पहली बारिश ने ही प्रश्रों के अंबार में आरंभिक खबरों को ही निर्मम बना दिया। यहां बरसात केवल छत से नहीं टपकती, बल्कि पूरी व्यवस्था व प्रगति से भी टपकती है। यहां हर मौसम के साथ कठिन इम्तिहान जुड़े हैं और मानसून का चक्र सारे साल की कसरतों को नाजुक दौर बना देता है। अभी मानसून ने हिमाचल को सिर्फ छुआ भर ही था कि सारे प्रदेश में घातक परिणामों की जद में एक दर्जन के करीब लोग आ गए। हम मौत की घटनाओं को बरसात के परिप्रेक्ष्य में देखें तो जीवन का हर पहलू और काम की हर गुंजाइश में खतरे बढ़ जाते हैं। एक डरावना सच यह भी कि पर्वतीय आंचल में विकास की हर डोर मौसम और प्रकृति के बनते-बिगड़ते मूड से कटती है। दुर्भाग्यवश यही कसौटी मानसून की अनिवार्यता को भी शक से देखती है। एक ही बारिश में 52 सडक़ें और 48 जलापूर्ति परियोजनाएं ठप हो जाती हैं, तो यह तमाम तैयारियों का खोट हो सकता है या अतीत के सबक को झुठलाने का प्रायश्चित भी। हिमाचल के वार्षिक कैलेंडर में प्राकृतिक आपदाओं के खतरे हमारी प्रगति, मांग, जीवन शैली और गलत तकनीक या डिजाइन के कारण भी बढ़ रहे हैं। हम न तो बरसात रोक सकते और न ही बर्फबारी, लेकिन वार्षिक तैयारियों का एक ऐसा कैलेंडर जरूर बना सकते हैं जो पहाड़ की व्यस्तता को निर्देशित करे और विकास के मायनों को बदरंग होने से रोके। पहाड़ की लड़ाई प्रगति को हासिल करना है तो विकास के साथ सुरक्षा को चिन्हित करना भी है। कहना न होगा कि देश के हर मौसम को पहाड़ की जरूरत है, जबकि पहाड़ की अपनी जरूरतों में देश का योगदान बढऩा चाहिए।
आसमान से बरसते पानी और बर्फ की मात्रा को देश अपने वार्षिक अनुमानों में देखता है, लेकिन यहां हर दिन की इबारत लिखनी पड़ती है। पहाड़ पर गिरती बूंदें भले ही छोटी हों, लेकिन उन्हें आंचल में भरने की कबायद में ही दर्द का इजाफा है। यहां कूहल, खड्ड, जल प्रपात, नदी और बांध तक भरते पानी का सामना हर छोटे-मोटे विकास से कृषि-बागबानी तक और ग्रामीण से शहरी जनता के आशियाने तक है। राष्ट्रीय योजनाएं जिस दिन पहाड़ के प्रति अलग दृष्टि व प्रगति के अलग मानक बनाएंगी, मौसम के खुराफाती अंदाज से मुकाबला करना आसान हो जाएगा। फिलहाल जिस तरह सडक़ें, भवन निर्माण और विकास परियोजनाओं में तकनीक व आर्थिक संसाधनों का इस्तेमाल होना चाहिए, उसमें काफी कमी है। पहाड़ की ढलान को चीरतीं सडक़ें, नदियों के रुख को मोड़तीं विद्युत परियोजनाएं और शहरी विकास में सिकुड़ते जल निकासी के पारंपरिक रास्ते, बरसात में भयंकर उन्माद पैदा करते हैं। इतना ही नहीं, मनेरगा के नाम पर हो रहा ग्रामीण विकास भी हमारे पारंपरिक ढांचे के खिलाफ होकर कंक्रीट की बौछार कर रहा है। हद तो यह भी कि अपनी स्मार्ट सिटी परियोजनाओं में शिमला जैसे शहर ने भी कंक्रीट का आलेप लगाना शुरू कर दिया है, नतीजतन जल का रिसाव धरती की ही खाल उधेड़ेगा। प्रदेश को ऐलिवेटिड ट्रांसपोर्ट नेटवर्क और सुरंग मार्गों के जरिए कनेक्टिविटी चाहिए। हैरानी यह कि अपनी छाती पर बड़े बांध बना कर भी, हिमाचल में आज तक एक भी जलमार्ग का विकल्प तैयार नहीं हुआ। शहरी विकास के नाम सीधे कटते पहाड़ और ऊंचे पहाड़ों को ध्वस्त करती जेसीबी मशीनों के कारण घात लगाकर बैठा विकास, मौसम के मिजाज में खूंखार हो रहा है। ऐसे में अब हिमाचल के ढांचागत विकास को नया नजरिया और केंद्रीय मदद का नया आश्वासन चाहिए, वरना पहाड़ का काम तो अपने भीतर की नदियों को लबालब करके समुद्र की तरफ रुखसत करना है। राज्य को विकास के अपने मानदंड तय करते हुए केंद्र से भी इनके आधार पर वित्तीय प्रबंधन करवाना होगा।
Rani Sahu
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