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कुछ लोगों को भूलने की आदत होती है, कुछ उम्र के उस पड़ाव में होते हैं कि याददाश्त उनको धोखा देने लगती है
कुछ लोगों को भूलने की आदत होती है, कुछ उम्र के उस पड़ाव में होते हैं कि याददाश्त उनको धोखा देने लगती है. पर उन्हें क्या कहें जो जानबूझ कर भूलने का नाटक करते हैं? कांग्रेस पार्टी के युवराज राहुल गांधी शायद तीसरी श्रेणी में आते हैं जो जानबूझ कर भूलने का नाटक करते हैं, उन्हें वही याद होता है जिसकी उन्हें ज़रुरत होती है. यानि वह सिलेक्टिव मेमोरी की बीमारी से ग्रसित होते हैं. यहां मंद बुद्धियों की बात नहीं हो रही है जिनको लोग अक्सर पप्पू की संज्ञा देते हैं.
जब पांच प्रदेशों में विधानसभा चुनाव हो रहा हो और भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस पार्टी एक बार फिर से आमने-सामने हो, वह भी तब जब चुनाव का परिणाम ना सिर्फ कांग्रेस पार्टी का भविष्य तय करेगा बल्कि शायद राहुल गांधी की किस्मत भी, राहुल गांधी का आक्रामक हो जाना कोई अचरज की बात नहीं है. अगर बीजेपी से टक्कर है तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी में कमियों को भी तलाशना ही पड़ेगा. पर दुर्भाग्य राहुल गांधी का या यूं कहें उनके परिवार के कुकृत्य, जब भी राहुल गांधी आक्रामक होने की कोशिश करते हैं, वार उल्टा उनपर ही हो जाता है.
प्री प्लान था इंटरव्यू
इन दिनों कुछ ऐसा ही होता दिख रहा है. 2 मार्च को कांग्रेस पार्टी ने जोर-शोर से भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु की राहुल गांधी के साथ एक बातचीत का वीडियो जारी किया गया जिसमे बात इमरजेंसी की भी हुई. राहुल गांधी ने सोचा कि यह कह कर कि इमरजेंसी लगाना एक गलती थी जिसे उनकी दादी इन्दिरा गांधी ने भी स्वीकार किया था, काफी होगा. इस तरह की बातचीत सुनियोजित होती हैं. पूर्व में भी राहुल गांधी ऐसा करते रहे हैं. इसका मकसद होता है यह दिखाना की राहुल गांधी बुद्धिजीवी हैं, सिर्फ आंदोलनजीवी नहीं. यह मान के चलना चाहिए की इमरजेंसी पर सवाल कौशिक बसु ने जानबूझ कर किया था, जिसकी आड़ में राहुल गांधी मोदी पर हमला बोल सकें. राहुल गांधी शायद दुनिया को यह बताना चाहते थे कि मोदी इन्दिरा गांधी से बड़े तानाशाह हैं.
खुद के जाल में फंस गए राहुल
अगर ऐसा नहीं होता तो उस वीडियो को एडिट या फिर उस सवाल-जवाब को डिलीट भी किया जा सकता था. और यहीं राहुल गांधी और उनकी टीम की अनुभवहीनता और अपरिपक्वता दिखी. सोचा मोदी को फसाएंगे और फंस गए खुद अपने ही बुने जाल में. राहुल गांधी ने कहा था, "आपातकाल में जो भी हुआ वह गलत था और उसमें तथा आज की परिस्थिति में मूलभूत अंतर है. कांग्रेस पार्टी ने भारत के संस्थागत ढांचे पर कब्जा करने का प्रयास कभी नहीं किया और कांग्रेस के पास ऐसा करने की काबिलियत भी नहीं है. हम ऐसा करना चाहें तब भी हमारी संरचना ऐसी है कि हम नहीं कर पाएंगे." क्या सच में कांग्रेस पार्टी ने संस्थागत ढांचे को कब्ज़े में नहीं किया था या फिर लाखों भारतीयों की याददाश्त कमजोर है? क्या इतिहास के पन्नों में इमरजेंसी का झूठा विवरण शामिल है?
पूरे देश ने देखा था 'आपातकाल' का तांडव
संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को खत्म करना, अख़बारों पर सेंसरशिप थोपना, सभी राजनीतिक गतिविधियों को खत्म करना, राजनीतिक नेताओं और पत्रकारों को जेल भेजना फिर क्या था? सभी को याद है कि किस तरह से आधी रात में तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से आपातकाल घोषणा पर हस्ताक्षर कराया गया था और उसके बाद किस बेशर्मी से पूरे देश में तानाशाही का तांडव दिखाया गया था? किस तरह इन्दिरा गांधी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा उनके चुनाव को निरस्त करने के फैसले को मानने से मना कर दिया था? क्या न्यायालय एक संस्थागत ढांचा नहीं होता? राज्यों के राज्यपाल और मुख्यमंत्रियों को दिल्ली बुलाया जाता था और शाम तक वह अपने पद पर नहीं होते थे. चुनाव आयोग हो या फिर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट उन्हें आदेश दिया जाता था और उनका पालन न करने का नतीजा सभी को पता था? राहुल बाबा तो यह सब क्या था अगर संस्थागत ढांचे पर कब्ज़ा करने की कोशिश नहीं थी?
देश से झूठ बोल कर हराएंगे मोदी को?
जब 1975 में इमरजेंसी लगा था तो राहुल गांधी मात्र पांच साल के थे और जब इमरजेंसी खत्म हुआ तो वह सात साल के होने वाले थे. ऐसे तो एक आम व्यक्ति के स्मरण की शुरुआत तीन-चार साल की उम्र से हो जाती है, पर सभी की नहीं. जिनकी IQ कम होती है, उन्हें बचपन की बातें याद नहीं रहती. अब इसका फैसला खुद राहुल गांधी करें कि पांच से सात साल के बीच की बातें क्यों और कैसे उन्हें याद नहीं है? यह फैसला अब कांग्रेस पार्टी को करना होगा कि उनका नेता कैसा व्यक्ति है जिसे बचपन की बातें याद नहीं हैं या वह व्यक्ति जानबूझ कर झूठ बोल रहा है. इसमें कोई गलत नहीं है अगर राहुल गांधी बीजेपी को चुनाव में हराना और मोदी को प्रधानमंत्री पद से हटाने की ख्वाहिश रखते हैं. लेकिन ऐसा देश से झूठ बोल कर और जनता को गुमराह करने से नहीं होगा. वह पीढ़ी जिसने इमरजेंसी को देखा और अनुभव किया था, अभी जिंदा है. राहुल गांधी की याददाश्त चली गयी होगी, पर उन पीढ़ी की नहीं. कहीं ऐसा ना हो जाए की राहुल गांधी को यह समझते-समझते देर लग जाए कि यह जो पब्लिक है यह सब जानती है और जनता उन्हें ही भुला दे.
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