सम्पादकीय

ट्विटर पर फॉलोअर्स घटने को मोदी की साजिश बताना राहुल गांधी की नादानी

Gulabi
29 Jan 2022 8:34 AM GMT
ट्विटर पर फॉलोअर्स घटने को मोदी की साजिश बताना राहुल गांधी की नादानी
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राहुल गांधी को उतने फॉलोवर नहीं मिल रहे जितने वे चाहते हैं
आशीष मेहता।
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को उतने फॉलोवर नहीं मिल रहे जितने वे चाहते हैं. न तो असली दुनिया में और न ही ट्विटर पर. और ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि उन्हें लगता है कि माइक्रो-ब्लॉगिंग प्लेटफॉर्म ट्विटर (Twitter) पर मोदी सरकार ने दबाव बना रखा है. उन्होंने ट्विटर के नए सीईओ पराग अग्रवाल (Parag Agrawal) को एक पत्र लिखा. इसमें उन्होंने 'भारत में हो रहे विचारों के विध्वंस में ट्विटर को मोहरा नहीं बनने देने' की गुहार लगाई. उनकी इस चिट्ठी और गुहार ने साबित कर दिया कि साजिश के सिद्धांतों और पीड़ित मानसिकता पर दक्षिणपंथियों का एकाधिकार नहीं है.
27 दिसंबर को लिखे इस पत्र में, जो करीब एक महीने बाद मीडिया में आ गया, राहुल गांधी ने पराग अग्रवाल के सामने मजबूत केस बनाने की कोशिश की. इसमें अपने साथ उन्होंने नरेंद्र मोदी, अमित शाह और शशि थरूर जैसे ऐसे चार नेताओं की तुलना की जिनकी आपस में तुलना करना मुश्किल है. चिट्ठी में 2021 के प्रत्येक महीने का आंकड़ा सामने रखा और बताया कि जहां हर महीने लगातार बाकी तीनों नेताओं के फॉलोअर्स की संख्या बढ़ती रही, अगस्त के बाद राहुल गांधी के फॉलोअर्स कम होने लगे.
इसके पीछे राहुल गांधी की तर्कहीन परिकल्पना ये थी कि यह ट्विटर पर सरकार की कार्रवाई का नतीजा है क्योंकि ये कोई संयोग नहीं है कि वे उन्हीं महीनों में ऐसे कई मसले उठा रहे थे जिससे सरकार असहज महसूस कर रही थी. जैसे कि दिल्ली में बलात्कार पीड़िता के परिवार की परेशानियों का मसला, आंदोलनकारी किसानों के साथ एकजुटता और मानवाधिकारों से जुड़ा मसला.
क्या ट्विटर पर दबाव बनाना इतना आसान है?
क्या ये सब इतना आसान होता है? शायद नहीं. क्योंकि अब राहुल को ये भी बताना होगा कि जो सरकार ट्विटर पर दबाव बना सकती है, उसने भला पहले ट्विटर को राहुल गांधी के फॉलोअर्स बढ़ाने की इजाजत क्यों दी थी? अगर वे 'संयोग से कोई मुद्दा नहीं उठा रहा था' का हवाला देते हुए सरकार को उस दौरान असहज नहीं कर पाने का तर्क देते हैं तो क्या उनकी पार्टी के लोग उस वक्त मोदी और शाह के गुणगान कर रहे थे, जो राहुल के खिलाफ उनके मन में कोई रोष नहीं रहा होगा?
इन सभी बातों का यह मतलब नहीं है कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म स्वतंत्र, निष्पक्ष, निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से काम करते हैं और सरकारें उनके संचालन में हस्तक्षेप करने से बचती हैं. पिछले साल की शुरुआत में ऐसी कई खबरें आई जिससे यह लग रहा था कि भारत सरकार ट्विटर के रुझानों को – खासतौर पर किसानों के विरोध को – रोकने के लिए दबाव की रणनीति अपना रही है. कल ही ट्विटर ने माना कि 2021 की पहली छमाही के दौरान कंटेंट हटाने के लिए लीगल डिमांड काफी बढ़ गई थी, जिनमें 95 फीसदी डिमांड पांच देशों से आई थी और इस लिस्ट में भारत चौथे नंबर पर है.
कुछ मांगें वास्तव में राष्ट्रीय हितों के खिलाफ रही होंगी और कुछ सरकार के हितों के खिलाफ भी हो सकती हैं. पिछले साल यहां तक कि एक किशोर को भी खतरा बताया जा रहा था. लेकिन, अपने अनुकरणीय आत्मविश्वास के बावजूद राहुल गांधी केंद्र सरकार के लिए कोई गंभीर खतरा नहीं हैं. अगर वे केंद्र सरकार के लिए कुछ हैं तो सिर्फ एक एसेट हैं. बीजेपी के उत्थान में उन्होंने अधिकांश बीजेपी नेताओं की तुलना में ज्यादा योगदान दिया है, जिसकी चर्चा कई बार पहले भी हो चुकी है.
राहुल गांधी को बहन प्रियंका से सीखने की जरूरत
भारत के सबसे पुराने राजनीतिक संगठन और प्रमुख विपक्षी दल पर थोपे गए नेता के तौर पर वे वाकई वैसा बन सकते हैं जैसे वे खुद को समझते हैं: जैसे कि सरकार को चुनौती देने वाला ऐसा नेता जो पूरी तरह अपने काम के प्रति समर्पित हो, सलाहकारों की मंडली में रहने की जगह लोगों तक पहुंचता हो, स्वंयभू चाणक्य की जगह लोगों की आवाज बनता हो, किसी बी-ग्रेड कलाकार की तरह नाटक करने की जगह जमीन पर मजबूती से जमा नजर आता हो. संक्षेप में, राहुल गांधी वह सबकुछ कर सकते हैं, जो उनकी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा उत्तर प्रदेश में करने की कोशिश कर रही हैं.
हालांकि, कांग्रेस पार्टी आगामी विधानसभा चुनावों में सबसे अहम राज्य उत्तर प्रदेश में राजनीतिक रूप से चुनौती नहीं दे पा रही है. पिछली बार ऐसा तब हुआ था, जब शायद आज के जमाने के आधे मतदाता पैदा भी नहीं हुए थे, लेकिन प्रियंका गांधी वाड्रा सड़कों पर हैं. वह पूरी शिद्दत के साथ महिला सशक्तीकरण के इकलौते मुद्दे पर अपना ध्यान केंद्रित कर रही हैं.
अपने मंच से लड़कियों का मैराथन लॉन्च करना उनके लिए बिलकुल मौलिक कोशिश रही. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस दूसरे स्थान के लिए भी मैदान में नजर नहीं आ रही. इसके बावजूद उन्होंने कम से कम अपने भाई को दिखाया कि मृतप्राय हो चुकी सबसे पुरानी पार्टी को पुनर्जीवित करने के लिए क्या करने की जरूरत है. इसके बजाय राहुल गांधी कट्टर हिंदुत्ववाद का मुकाबला करने के लिए अपने पिता की तरह सॉफ्ट हिंदूत्व का रास्ता अख्तियार करने की कोशिश कर रहे हैं.
सरकार को मुद्दों की जगह फॉलोअर्स पर घेर रहे हैं राहुल गांधी
इस पर विचार करने की जरूरत है. पिछले साल भारत में कोरोना के दैनिक मामलों की संख्या का विश्व रिकॉर्ड बना. पब्लिक हेल्थकेयर इंफ्रास्ट्रक्चर के बुनियादी ढांचे की विफलताएं विनाशकारी थीं, खासकर उत्तर प्रदेश में. देश अभूतपूर्व स्तर की कठिनाइयों से जूझ रहा है, जिसमें आर्थिक मुश्किलें भावनात्मक रूप से परेशानियां बढ़ा रही हैं. इनके अलावा और भी कई समस्याएं हैं. जलवायु परिवर्तन अब दूर का मुद्दा नहीं रह गया, बल्कि बिलकुल करीब आ चुका है और भारी कीमत वसूल रहा है. इन तमाम चुनौतियों का सामना करने के बावजूद लोग बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक समुदायों के वोट बैंक की राजनीति में जुटे हैं. इस सब के बीच, भारत के मुख्य विपक्षी नेता कहे जाने वाले व्यक्ति के पास इस पीढ़ी और अगली पीढ़ी के लिए जरूरी महत्वपूर्ण चीजों पर सरकार को घेरने के लिए तमाम मुद्दे होने चाहिए. इसकी जगह वे ट्विटर फॉलोअर्स की लिस्ट लेकर सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे हैं.
यदि आज उनके लिए सबसे बड़ा मुद्दा 'भला उसकी साड़ी मेरी साड़ी से सफेद कैसे' है तो वे अभी मासूम हैं और बचकाना व्यवहार कर रहे हैं. शायद यही वजह है कि वास्तविक दुनिया में उनके फॉलोअर्स – कई साल पहले असम के हेमंत बिस्वा सरमा से लेकर इस सप्ताह उत्तर प्रदेश के आरपीएन सिंह तक – उन्हें अनफॉलो करने लगे हैं.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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