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रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू हुए चार महीने पूरे हो गए. इतने दिनों में दुनिया कितनी बदली? इसे कैसे देखा जाए? आगे और क्या-क्या हो सकता है
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू हुए चार महीने पूरे हो गए. इतने दिनों में दुनिया कितनी बदली? इसे कैसे देखा जाए? आगे और क्या-क्या हो सकता है, इसके आकलन भी अच्छे संकेत नहीं दे रहे हैं. यूक्रेनी राष्ट्रपति और उनके सलाहकार अपने अलग-अलग बयानों में यह कहते दिख रहे हैं कि लड़ाई अब 'फियरफुल क्लाइमेक्स'(डरावने अंत) में प्रवेश कर गई है.
प्रश्न यह है कि यह डरावना अंत किसके संदर्भ में है-रूस अथवा यूक्रेन या फिर पूरी दुनिया के संदर्भ में? सामान्यतया तो यह विषय यूक्रेन या रूस तक ही सीमित है, लेकिन सही अर्थों में इसकी परिधियां बहुत व्यापक हैं. स्वाभाविक है कि प्रभाव भी जटिल एवं व्यापक होंगे.
रूस-यूक्रेन युद्ध-कौन है शिकारी और किसका हो रहा है शिकार
यदि रूस-यूक्रेन युद्ध का विश्लेषण करते समय नजरिया सीधा-सपाट न रखकर उन आड़ी-तिरछी रेखाओं पर भी टिकाएं तो स्पष्ट हो जाएगा कि असल में शिकार कौन हो रहा है और शिकारी कौन-कौन है. दरअसल यह युद्ध सिर्फ रूस और यूक्रेन के बीच नहीं लड़ा जा रहा बल्कि यह नई विश्वव्यवस्था में नए जियो-पॉलिटिकल और जियो-इकोनॉमिक हितों को लेकर लड़ा जा रहा है युद्ध जिसमें यूक्रेन केवल युद्ध का एक मैदान भर है.
पिछले तीन दशकों में एशिया से लेकर अफ्रीका व लातिन अमेरिका के भू-राजनीतिक खंडों पर ऐसी बहुत सी कथाओं के उदाहरण मिलेंगे जिनमें ध्वंस के विशेष अभिप्राय शामिल होंगे. लेकिन विश्वव्यवस्था के नायकों ने इनकी परवाह नहीं की, जिसका परिणाम नए समूहों यानी मिनीलैटरल्स या एक्सक्लूसिव ग्रुप्स के रूप में देखने को मिल रहा है. खास बात यह है कि ये बड़े समूहों के मुकाबले कहीं अधिक रणनीतिक और एकजुट हैं.
रूस-यूक्रेन युद्ध है शक्ति परीक्षण
यानी दुनिया फिर से एकध्रुवीयता से बहुध्रुवीयता की ओर बढ़ी है. लेकिन बड़ी शक्तियों को यह स्वीकार्य नहीं है कि बहुध्रुवीयता अपने वास्तविक रूप में आए. अब इन्हें दो प्रकार से खत्म किया जा सकता था. एक, इनमें प्रवेश लेकर और दूसरे, ऐसी परिस्थितियों को जन्म देकर जिनमें ये नए खतरे को महसूस करें और फिर से वॉशिंगटन, मास्को या बीजिंग की ओर देखने लगें. यूक्रेन युद्ध इसी रणनीति का एक छोर है.
दरअसल यूक्रेन युद्ध एक तरह का शक्ति परीक्षण है. इसमें जहां रूस एक शक्ति बनने की कोशिश कर रहा है वहीं अमेरिका वैश्विक शक्ति के रूप में अपनी अभिलाषाओं को जिंदा रखने की कोशिश में है. यह नया नहीं है. ईरान, सीरिया से लेकर क्रीमिया तक के विवाद अथवा संघर्ष इसी की कड़ियां हैं.
ड्रैगन-बियर बॉन्डिंग हो सकती है खतरनाक साबित
क्रीमिया की विशेष रणनीतिक महत्ता है इसलिए क्रीमिया और सीरिया में मिली सफलता के बाद पुतिन में पूर्वी यूरोप, दक्षिणी कॉकेशस और यूरेशिया तक रूसी नियंत्रण के विस्तार की महत्वाकांक्षा पनपने लगी. लेकिन यह तभी संभव था जब यूक्रेन रूस के नियंत्रण में आ जाए.
इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए व्लादीमीर पुतिन केवल सैन्य युद्ध ही नहीं लड़ रहे हैं बल्कि वे रूस के भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक हितों को उत्तर और दक्षिण में विस्तार देने की रणनीति भी अपना रहे हैं. यहां तक तो ठीक है लेकिन इस दौरान बीजिंग-मास्को के बीच जो बॉन्डिंग बनी है वह केवल यूक्रेन युद्ध तक सीमित नहीं है. इसलिए ड्रैगन-बियर बॉन्डिंग खतरनाक साबित हो सकती है.
युद्ध के कारण आए कई संकट
आज के इस विश्व में फिलहाल सभी की निगाहें रूस-यूक्रेन युद्ध पर टिकी हुई हैं, लेकिन सही मायने में तो यह समय थोड़ा आगे बढ़कर देखने का है. सबसे अहम पक्ष तो शरणार्थियों के रूप में निर्मित हो रही पराश्रित मानव पूंजी का है जिसके नफा-नुकसान सीधे और सपाट नहीं हैं.
इस संवेदनशील और पराश्रित मानवपूंजी में पिछले एक वर्ष में एक बहुत बड़ी संख्या जुड़ चुकी है जिसके लिए युद्ध के साथ-साथ खाद्य संकट, जलवायु सुरक्षा सहित बहुत से आंतरिक कारण जिम्मेदार रहे हैं.
इसे लेकर यूएनएचसीआर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का आह्वान कर रहा है कि सभी एक साथ मिलकर मानव त्रासदी से निपटने और हिंसक टकरावों को सुलझाने के स्थायी समाधान ढूंढ़ें लेकिन ऐसा तो हो नहीं रहा है. बल्कि दुनिया के ये संभ्रांत देश नए टकरावों के लिए स्थितियों का निर्माण कर रहे हैं. ये स्थितियां उत्तरोत्तर विषम ही होंगी क्योंकि आने वाले समय में वैश्विक अर्थव्यवस्था नए संकट का सामना करेगी.
तीव्र मुद्रास्फीति का सामना कर रहा है जर्मनी
यूरोप की अग्रणी अर्थव्यवस्था जर्मनी तीव्र मुद्रास्फीति का सामना कर रही है जो कि 1981 के बाद सर्वाच्च स्तर पर पहुंच चुकी है. केन्या की राजधानी नैरोबी में पेट्रोल पंपों पर लंबी-लंबी कतारें बता रही हैं कि इनका असर कहीं और पड़ने वाला है. तेल की महंगाई और कम आपूर्ति सब पर प्रभाव डालेगी.
ऐसी स्थितियां सामाजिक संघर्षों के नए उभारों को जन्म दे सकती हैं. ऐसा दिखने भी लगा है. तुर्की जैसे देश रूसी गेहूं की आपूर्ति प्रभावित होने के कारण ब्रेड की मांग से जूझ रहे हैं और इराक जैसी बेदम अर्थव्यवस्थाएं गेहूं के आसमान छूते दामों के कारण धराशायी होने के कगार पर हैं.
पेरू की राजधानी लीमा महंगाई के खिलाफ नई चुनौतियों का सामना कर रही है. हमारा पड़ोसी देश श्रीलंका आर्थिक और राजनीतिक संकटों की चपेट में है और यूरोप व अमेरिका सहित तमाम विकसित देशों में ट्रेड यूनियनों का आक्रामक दौर शुरू होता दिख रहा है. ये अच्छे संकेत नहीं हैं.
एक तरफ कोरोना दूसरी तरफ तेल के बढ़ते दाम
चूंकि तेल एक वैश्विक उत्पाद है इसलिए तेल की कीमतें हर किसी के लिए बढ़ेंगी जिसका मतलब होगा कि संपूर्ण अर्थव्यवस्था का चक्र धीमा पड़ जाएगा. सम्मिलित रूप से इसका असर कोविड 19 की महामारी से उबरने की कोशिश कर रही अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा.
फिलहाल दुनिया एक नई और जटिल चुनौती का सामना कर रही है, जिसकी अनदेखी भारी पड़ने वाली है. हां अमेरिका और यूरोप खुश हो सकते हैं कि वे इस युद्ध में रूस को नुकसान पहुंचाने में सफल रहे लेकिन उनकी खुशी और पुतिन की खीझ के बीच का जो सच है वह डरावना है.

Rani Sahu
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