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तंगहाल श्रीलंका की अनिश्चित राहें
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
कोलंबो की सड़कों से राष्ट्रपति भवन में घुसी हुई भीड़ न केवल श्रीलंका के शासकों को बल्कि पूरी दुनिया को यह संदेश देती हुई दिखी है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में सहयोग, सहकार और संवेदना के साथ-साथ भरोसे का बना रहना बहुत जरूरी है। यही कारण है कि जब सहकार एवं संवेदना की जगह परिवार और तानाशाही ले लेती है तब जनता सहयोग की बजाय संघर्ष का रास्ता चुन लेती है। श्रीलंका में यही हुआ। कभी ऐसा ही कुछ इतिहास ने पेरिस की सड़कों पर देखा था जहां गुजरती हुई भीड़ बास्तील के किले तक पहुंच गई था जो राजसत्ता का प्रतीक था।
इसी भीड़ ने किले का ध्वंस कर 'ओल्ड रेजिम' का अंत कर दिया था श्रीलंकाई भीड़ ने कोलंबो के किंग्स हाउस अथवा क्वींस हाउस (पुराना नाम) यानी राष्ट्रपति भवन का ध्वंस तो नहीं किया लेकिन राजपक्षे रेजिम का तात्कालिक रूप से खात्मा तो कर ही दिया। श्रीलंका जिस कर्ज के बोझ से दबा है और अर्थव्यवस्था के जिस कुचक्र में फंसकर जनआक्रोश का शिकार हुआ है, उसके कारण जितने श्रीलंका के अंदर हैं, उतने ही बाहर हैं इसलिए किसी भी राष्ट्रपति या सरकार के पास ऐसी जादू की छड़ी नहीं होगी जिसके स्पर्श मात्र से चमत्कार हो जाए।
यदि ऐसा नहीं हुआ तो चुनौतियां अभी और विकराल होंगी। नए राष्ट्रपति और उनकी सरकार के सामने सबसे बड़ी समस्या अर्थव्यवस्था को कुचक्र से बाहर लाने की होगी ताकि आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति सुनिश्चित हो सके तथा कीमतों में वृद्धि थम सके। ईंधन की अपेक्षित आपूर्ति सुनिश्चित करना जिंदगी तथा अर्थव्यवस्था के चक्र को पुनः पटरी पर लाने के लिए बहुत जरूरी है, लेकिन इसकी निर्भरता बाहरी परिस्थितियां पर है इसलिए नए राष्ट्रपति को इस मोर्चे पर जूझना पड़ेगा।
नई सरकार की दूसरी बड़ी चुनौती होगी डिफॉल्ट स्तर पर डाउनग्रेड की जा चुकी श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था (रेटिंग एजेंसियों द्वारा) की साख फिर से स्थापित करना। ध्यान रहे कि डिफॉल्ट स्तर तक अर्थव्यवस्था की डाउनग्रेडिंग के कारण श्रीलंका की विदेशी बाजारों तक पहुंच बंद हो जाएगी और अंतरराष्ट्रीय कर्ज न केवल महंगे हो जाएंगे बल्कि नामुमकिन भी हो जाएंगे। विश्व अर्थव्यवस्था जिस दौर से गुजर रही है, उसे देखते हुए तो नामुमकिन शब्द ज्यादा उपयुक्त लगता है।
फिर भी अंतरराष्ट्रीय मदद और कर्ज दो बातों पर निर्भर करेंगे। एक यह कि नई सरकार की कूटनीतिक क्षमता कितनी है। इस क्षमता का पहला परीक्षण भारत और चीन के संदर्भ में होगा जिनकी भूमिका श्रीलंका को इस स्थिति से उबारने में सबसे अधिक महत्वपूर्ण हो सकती है। एक बात और भी है, वह है श्रीलंका सरकार द्वारा विदेशी ऋणों की जल्द से जल्द अदायगी। लेकिन यह तभी हो सकता है जब वैश्विक संस्थाएं और देश उसे रिपेमेंट के लिए नए कर्ज देने के लिए तैयार हों, जिसकी इजाजत रेटिंग एजेंसियां तो देती हुई नहीं दिखतीं।
इस समय श्रीलंका सरकार पर विदेशी कर्ज 51 बिलियन डॉलर के आसपास है। अगले वर्ष से लेकर वर्ष 2026 तक उसे 25 अरब डॉलर के विदेशी कर्ज का भुगतान करना है। इसमें कर्ज का वह हिस्सा शामिल नहीं है जिसे चीन द्वारा दृश्य मद में नहीं दिया गया है। यानी श्रीलंका के डुबाने में चीन ने सबसे अहम भूमिका निभाई। ध्यान रहे कि श्रीलंका को इस वर्ष का 7 बिलियन डॉलर कर्ज का भुगतान करना है जिसमें 1 बिलियन डॉलर का अंतरराष्ट्रीय सॉवरेन बॉन्ड भी शामिल है जो जुलाई में मैच्योर होता है। जबकि विदेशी मुद्रा भंडार लगभग न के बराबर है। हालांकि विश्व बैंक उसे 600 मिलियन डॉलर उधार देने के लिए सहमत हुआ है। लेकिन आईएमएफ किन शर्तों पर कर्ज देगा, यह अभी भी स्पष्ट नहीं है।
Rani Sahu
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