सम्पादकीय

भारत छोड़ो आंदोलन : बंद खिड़कियां और अज्ञात भय के खतरे और प्रेरणादायी शख्सियत उषा मेहता

Neha Dani
27 March 2022 4:51 AM GMT
भारत छोड़ो आंदोलन : बंद खिड़कियां और अज्ञात भय के खतरे और प्रेरणादायी शख्सियत उषा मेहता
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इससे भी अधिक खेद की बात यह है कि वे दुनिया से कुछ भी नहीं सीखना चाहते हैं।

मुंबई मेरा पसंदीदा भारतीय शहर है और मुंबई में मेरी एक पसंदीदा जगह है गामदेवी स्थित मणि भवन। यह एक घर है, जिसे अब एक स्मारक में बदल दिया गया है, जहां गांधी अक्सर ठहरते थे और जहां रहते हुए उन्होंने अपने कई सत्याग्रह की योजना बनाई थी। 1990 के दशक की शुरुआत में मणि भवन के मेरे एक शुरुआती प्रवास के दौरान मेरा परिचय एक बुजुर्ग महिला से कराया गया था, जिन्होंने सफेद साड़ी पहन रखी थी और वह बहुत कम बोल रही थीं और नरमी से बात कर रही थीं। उनका यह व्यक्तित्व उनकी उपलब्धियों से एकदम उलट था। यह उषा मेहता थीं, अपने युवा दिनों में वह भारत छोड़ो आंदोलन की प्रेरणादायी शख्सियतों में से थीं।

नौ अगस्त, 1942 को गांधी तथा कांग्रेस के अन्य नेताओं के गिरफ्तार हो जाने के बाद उषा मेहता ने एक भूमिगत रेडियो की स्थापना में अग्रणी भूमिका निभाई, जिससे गुप्त स्थानों से उत्तेजक बुलेटिन का प्रसारण होता था, ताकि उन देशभक्तों में आजादी की भावना को जिंदा रखा जा सके जिन्हें गिरफ्तार नहीं किया जा सका था। कांग्रेस रेडियो की शुरुआत के समय उषा मेहता उम्र के तीसरे दशक की शुरुआत में थीं और शहर के एक कॉलेज की छात्रा थीं। तब इस शहर को बॉम्बे कहा जाता था।
अंततः राज ने रेडियो के ठिकाने का पता लगा लिया और इसकी शुरुआत करने वालों को गिरफ्तार कर लिया गया। खुद उषा मेहता ने कई वर्ष जेल में गुजारे। रिहाई के बाद उन्होंने पढ़ाई जारी रखी और फिर बाद में वह बॉम्बे यूनिवर्सिटी में राजनीति की एक काफी प्रशंसित प्राध्यापक बन गईं। उन्होंने मणि भवन के प्रशासन में भी अहम भूमिका निभाई। उन्होंने भवन की देखरेख करने के साथ ही वहां तस्वीरों की प्रदर्शनी लगाई, गांधी की विरासत तथा स्वतंत्रता आंदोलन को लेकर कई वार्ताओं का आयोजन किया। एक समय भूमिगत रेडियो शुरू करने वाली यह तेज-तर्रार लड़की मध्य वय के आते आते विनम्र महिला बन गईं और उन्होंने इस शहर में गांधी के सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्मारक की देखरेख की।
खुद गांधी और उनके आंदोलन के लिए यह महत्वपूर्ण भवन था। अपने छात्रों और मणि भवन के कामकाज के लिए समर्पित उषा मेहता ने कभी शादी नहीं की। उषा मेहता के भूमिगत रहते कांग्रेस रेडियो शुरू करने की कहानी भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान लोककथाओं का हिस्सा बन गई। यह घटनाक्रम अब उषा ठक्कर की हाल ही में आई किताब, कांग्रेस रेडियो : उषा मेहता ऐंड द अंडरग्राउंड रेडियो ऑफ 1942 के प्रकाशन से लोककथाओं से आगे बढ़कर इतिहास का हिस्सा बन गया है। वह खुद उषा मेहता की पूर्व छात्रा हैं और उन्हीं की तरह बाद में मणि भवन के प्रबंधन से जुड़ी रहीं डॉ. ठक्कर ने बहुत सावधानी से पुरालेखीय रिकॉर्ड्स को खंगाला है और यह किताब लिखी है।
उल्लेखनीय है कि इतिहास का यह काम वर्तमान से सीधे संवाद करता है। 20 अक्तबूर, 1942 को कांग्रेस रेडियो से प्रसारित बुलेटिन के इस अंश पर गौर कीजिए : 'संसार के समस्त लोगों के लिए भारतीय लोगों ने उम्मीद, शांति और सद्भाव का संदेश दिया है। आइए आज हम एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति पर की गई हिंसा को भूल जाएं। हमें सिर्फ यह याद रखना है कि सही मायने में शांतिपूर्ण और बेहतर दुनिया की स्थापना के लिए हमें प्रत्येक देश की दया और प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तिगत कृत्यों की जरूरत है।
हमें जर्मनी की तकनीकी दक्षता, उसके वैज्ञानिक ज्ञान और उसके संगीत की जरूरत है। हमें इंग्लैंड की उदारता, उसके साहस और साहित्य की जरूरत है। हमें इटली की शिष्टता की जरूरत है। हमें रूस की पुरानी उपलब्धियों और नई कामयाबियों की जरूरत है। हमें हंसी के उपहार की जरूरत है-सुंदर हंसी प्रेमी ऑस्ट्रिया की जरूरत है। हम चीन के बारे में क्या कहें? हमें उसके ज्ञान, उसके साहस और उसकी नई उम्मीद की जरूरत है। हमें युवा अमेरिका के रोमांच की चमक और हौसले की जरूरत है। हमें आदिम लोगों के ज्ञान और बच्चों जैसी सादगी की जरूरत है। शांति के पुनरुत्थान के लिए, अपनी गरिमा के पुनरुत्थान के लिए, हमें सभी मानव जाति की आवश्यकता है।'
राष्ट्रों के बीच सर्वाधिक विनाशकारी टकराव के बीच में लिखे और प्रसारित किए गए इस संदेश की भावना वही थी जो उस समय भारतीय राष्ट्रवाद की भावना थी। हम अब ऐसे भारत में रह रहे हैं, जो एक अलग तरह से परिभाषित राष्ट्रवाद को समर्पित है, जिसे अंध या कट्टर राष्ट्रवाद कहना सही होगा। यह राष्ट्रीय और विशेष रूप से धार्मिक श्रेष्ठता के तीखे-और पूरी तरह से अस्थिर-दावों पर टिका हुआ है। यह भीतर की ओर देखने से हमारी आर्थिक नीतियों में प्रकट होता है, जो भारतीय उद्यमिता को पोषित करने के बहाने वास्तव में केवल अक्षमता और याराना पूंजीवाद को बढ़ावा दे रही हैं और इसी तरह यह हमारी शैक्षिक नीतियों में भी नजर आता है, जहां आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान की कीमत पर हिंदू श्रेष्ठता के प्रवृत्त सिद्धांतों को आगे बढ़ाने के कपटपूर्ण प्रयास किए जाते हैं।
दुनिया के लिए हमारी खिड़कियां बंद करना भारत के भीतर ही सांस्कृतिक परंपराओं की विविधता पर एक क्रूर हमले से पूरित है, जैसा कि भारतीयों पर समान संहिताएं थोपना कि वे क्या पहन सकते हैं या नहीं पहन सकते हैं, वे क्या खा सकते हैं या नहीं खा सकते और वे किनसे शादी कर सकते हैं और किनसे शादी नहीं कर सकते। आधुनिक भारत का निर्माण करने वालों ने अक्सर दुनिया भर में व्यापक रूप से यात्रा की थी और वे विचारों में डूबते हुए जाते थे।
संभवतः पहले महान भारतीय महानगरीय राममोहन राय थे, जिनके बारे में बाद में एक बांग्ला विचारक ने लिखा, 'वह यूरोप के आदर्शों को पूरी तरह आत्मसात करने में सक्षम थे, क्योंकि वह उनसे अभिभूत नहीं थे; वह किसी भी रूप में विपन्न या कमजोर नहीं थे। उनका आधार मजबूत था, जिसके आधार पर वह अपना पक्ष रख सकते थे और अपनी उपलब्धियों को सुरक्षित रख सकते थे। भारत की असली दौलत उनसे छिपी नहीं थी, इसमें उन्होंने पहले ही अपना योगदान किया था। उनके पास वह कसौटी थी, जिससे वह दूसरों की समृद्धि का परीक्षण कर सकते थे।'
राममोहन राय की वैश्विक दृष्टि की ताकत को पहचानने वाले यह विचारक थे रवींद्रनाथ टैगोर, जिन्होंने खुद एशिया, यूरोप और उत्तर तथा दक्षिण अमेरिका की व्यापक यात्राएं की थीं और उन देशों से वह सब अर्जित किया जो कि उन्हें लगता था कि उनके तथा उनके देश के लिए आवश्यक है। गांधी, नेहरू, आंबेडकर और कमलादेवी चट्टोपाध्याय जैसे अन्य महान देशभक्तों ने भी समुद्रपार की व्यापक यात्राएं कीं, जिनसे उनका व्यक्तित्व निखरा था। इसी तरह 19वीं सदी के उत्तरार्ध में, ज्योतिबा फुले ने जातिगत भेदभाव के खिलाफ अपने संघर्षों में अमेरिकी उन्मूलनवादियों से हौसला पाया, जबकि 1942 के अपने कांग्रेस रेडियो बुलेटिन में युवा और उत्साही देशभक्त उषा मेहता अपने प्रिय भारत के बारे में इतनी भावुकता से लिख सकीं कि यूरोप, रूस, इटली, चीन और अमेरिका से हम क्या सर्वश्रेष्ठ ले सकते हैं।
अन्य संस्कृतियों के साथ यह खुले विचारों वाला जुड़ाव, जिसका एक बार भारतीय देशभक्त अभ्यास करते थे, आज के प्रमुख भारतीय नेताओं के प्रशिक्षण (शिक्षा एक बेहतर शब्द हो सकता है) के उलट है। नरेंद्र मोदी, अमित शाह और उनके जैसे अन्य लोगों को आकार देने वाली आरएसएस की शाखा हमेशा से ही अलगाववाद और जेनोफोबिया (अज्ञात भय) का अड्डा रही है, जहां किसी को अपने पैतृक आस्था के आधार पर (ज्यादातर काल्पनिक) दुश्मनों से बदला लेने की कसम खाना सिखाया जाता है, और रटाया जाता है कि हिंदू मानवता के 'विश्व गुरु' बनेंगे। दुनिया को उनसे सीखने के लिए कुछ नहीं है; और इससे भी अधिक खेद की बात यह है कि वे दुनिया से कुछ भी नहीं सीखना चाहते हैं।

सोर्स: अमर उजाला

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