सम्पादकीय

कश्मीरी पंडितों के न्याय से संबंधित सवालों का अब तक नहीं मिला जवाब

Rani Sahu
16 March 2022 3:10 PM GMT
कश्मीरी पंडितों के न्याय से संबंधित सवालों का अब तक नहीं मिला जवाब
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कश्मीरी पंडितों की हत्या और विस्थापन के दर्दनाक इतिहास की चर्चा जब-तब देश में होती रही है

पीयूष द्विवेदी ।

कश्मीरी पंडितों की हत्या और विस्थापन के दर्दनाक इतिहास की चर्चा जब-तब देश में होती रही है। परंतु 'द कश्मीर फाइल्सÓ ने इस मुद्दे को बेहद तीखे और जोरदार ढंग से सामने लाने का काम किया है। वर्ष 1989-90 के आसपास जम्मू-कश्मीर में रहने वाले लाखों कश्मीरी हिंदुओं को मजहबी कट्टरपंथियों के आतंक के कारण अपनी मातृभूमि को छोड़कर पलायन करना पड़ा था। बड़ी संख्या में पंडितों का नरसंहार भी हुआ, लेकिन केंद्र से लेकर राज्य तक की तत्कालीन सरकारें इस त्रासदी पर मूकदर्शक बनी बैठी रहीं और पंडितों की सुरक्षा के लिए किसी ने भी कुछ ठोस नहीं किया। यहां तक कि बाद के समय में भी उनके पुनर्वास के लिए कोई प्रयास नहीं हुए। परिणाम यह रहा कि लाखों कश्मीरी पंडितों को अपने ही देश में शरणार्थी की तरह रहने को मजबूर होना पड़ा। 'द कश्मीर फाइल्सÓ ने इस पूरी त्रासदी को सच्चाई के साथ लोगों के सामने रखने का काम किया है।

एक कहावत है कि सच जब तक जूते पहनता है, झूठ पूरी दुनिया का चक्कर लगा चुका होता है। कश्मीरी पंडितों के साथ हुई त्रासदी के संदर्भ में इसे सही कहा जा सकता है। कश्मीरी पंडितों ने नरसंहार और विस्थापन का दंश तो झेला ही, उसके बाद विचारधारा विशेष के लोगों द्वारा गढ़ा गया यह झूठ भी उन्हें सुनना पड़ा कि उनका कोई नरसंहार हुआ ही नहीं था। इस झूठ को चलाने के लिए आंकड़ों की बाजीगरी कर मारे गए और बेघर हुए कश्मीरी पंडितों की संख्या को कम करके बताने के प्रयास भी हुए। कश्मीरी पंडित अपने घर से तो निकाले ही गए थे, उनकी त्रासदी का सच भी हाशिये पर ही चला गया और झूठ दुनिया के चक्कर लगाता रहा। आज 'द कश्मीर फाइल्सÓ का प्रसारण रुकवाने के लिए यदि कोर्ट में याचिका लगाने से लेकर तरह-तरह से उसका विरोध देखने को मिला है तो उसके पीछे मंशा यही है कि कश्मीरी पंडितों के नरसंहार और विस्थापन का सच सामने न आ पाए और वामपंथी खेमे द्वारा झूठ का जो मकडज़ाल बुना गया है, वह बना रहे। वरना यही लोग जब कश्मीर एवं आतंकवाद को लेकर 'हैदरÓ और 'मुल्कÓ जैसी फिल्में बनती हैं तो उन पर लहालोट हो जाते हैं। वहीं कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्मों में जब सिक्के का दूसरा पहलू दिखाया जा जाता है तो इससे इन्हें तकलीफ होने लगती है।
वर्ष 1990 के बाद से वर्ष 2014 तक देश में सर्वाधिक समय कांग्रेस की अगुआई वाली सरकारों का ही शासन रहा, लेकिन इन सरकारों ने कभी भी कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की कोई विशेष चिंता नहीं की। उनके विस्थापन के 18 वर्ष बाद कांग्रेस एक पुनर्वास योजना लाई भी तो उसका कोई क्रियान्वयन नहीं हो सका। अनुच्छेद-370 को जम्मू-कश्मीर के लिए जरूरी मानने वाली कांग्रेसी सरकारों के एजेंडे में कश्मीरी पंडितों का दर्द भला कैसे हो सकता था! इन परिस्थितियों के बीच आज जब भारतीय जनता पार्टी शासित राज्य कश्मीरी पंडितों के दर्द को दुनिया के सामने लाने वाली 'द कश्मीर फाइल्सÓ को करमुक्त करने में लगे हैं, तब कांग्रेस इंटरनेट मीडिया पर इस फिल्म पर निशाना साधने में जुटी है। जाहिर है, आज भी कांग्रेस के भीतर कश्मीरी पंडितों के साथ हुए अन्याय के प्रति कोई सहानुभूति एवं संवेदना नहीं उपजी है।
वर्ष 2014 में नरेन्द्र मोदी की सरकार आने के बाद कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की दिशा में कुछ कदम उठाए गए। वर्ष 2015 में मोदी सरकार ने प्रधानमंत्री विकास पैकेज (पीएमडीपी) का एलान किया। इसके तहत जम्मू-कश्मीर के विकास के लिए 80 हजार 68 करोड़ रुपये का प्रविधान किया गया और कश्मीरी पंडितों को घाटी में वापस बसाने के लिए कई योजनाओं पर काम शुरू हुआ। वर्ष 1990 के बाद से 2015 तक कश्मीर में केवल 1963 हिंदुओं को ही सरकारी नौकरियां दी गई थीं, लेकिन उक्त पैकेज के तहत कश्मीर घाटी में छह हजार सरकारी पद निकाले गए, जिनमें से लगभग 80 प्रतिशत पदों पर नौकरियां दी भी जा चुकी हैं। इसके लागू होने के बाद 2017 से 2022 के बीच पांच साल के अंतराल में 610 कश्मीरी पंडितों को उनके कश्मीर स्थित घर लौटाने में कामयाबी हासिल हुई है। इसके अलावा कश्मीरी पंडितों के लिए नए घरों का निर्माण करने और उन्हें उनमें बसाने की दिशा में भी सरकार ने कई कदम उठाए हैं। फिलहाल कश्मीर में 920 करोड़ रुपये की लागत से छह हजार घर बनाए जा रहे हैं। बावजूद इन सबके कश्मीरी पंडितों को कश्मीर में पूरी तरह से बसाने के लिए सरकार को अभी लंबी दूरी तय करनी है, लेकिन 2019 में अनुच्छेद-370 हटने के बाद बीते लगभग ढाई वर्षों में जम्मू-कश्मीर में जिस तेजी से हालात बदले हैं, उसे देखते हुए उम्मीद की जा सकती है कि अब कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास को लेकर और अधिक तेजी से काम किया जाएगा। बात केवल कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की ही नहीं, उनके साथ पूरा न्याय तभी होगा जब उनके दोषियों को समुचित दंड मिलेगा। बिट्टा कराटे हो या यासीन मलिक अथवा ऐसे ही और भी अनेक दहशतगर्द, इन सबको जब तक उचित दंड नहीं मिलता तब तक कश्मीरी पंडितों के न्याय का चक्र पूरा नहीं होगा।
बहरहाल इसमें कोई दो राय नहीं कि विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ने कश्मीरी पंडितों के मुद्दे में एक नई जानफंूक दी है। आज इंटरनेट मीडिया पर 'द कश्मीर फाइल्सÓ के बहाने हर तरफ यही मुद्दा छाया हुआ है। फिल्म के प्रति लोगों का रुझान ऐसा है कि सिनेमा हाल के टिकट एडवांस खरीदे जा रहे हैं। लेकिन दुखद यह है कि यह फिल्म भी पायरेसी का शिकार होकर आनलाइन उपलब्ध हो गई है। तमाम लोग एक-दूसरे को लिंक साझा करने लगे हैं। इससे बचना चाहिए। ऐसी फिल्में सिनेमाघर में ही जाकर देखी जानी चाहिए, ताकि इसके निर्माण से संबंधित तमाम लोगों को प्रोत्साहन मिले और वे आगे भी इस तरह के कहानियों को दिखाने का साहस कर सकें।
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