सम्पादकीय

कानूनों की उपादेयता पर सवाल: फसल के संकट

Gulabi
25 Dec 2020 4:07 PM GMT
कानूनों की उपादेयता पर सवाल: फसल के संकट
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केंद्र सरकार के विवादास्पद सुधार कानूनों के दूरगामी प्रभावों को लेकर देशव्यापी बहस जारी है।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। केंद्र सरकार के विवादास्पद सुधार कानूनों के दूरगामी प्रभावों को लेकर देशव्यापी बहस जारी है। दिल्ली की दहलीज पर किसानों का आंदोलन लंबे समय से बदस्तूर जारी है। वहीं केंद्र सरकार देशव्यापी मुहिम चलाकर इन सुधार कानूनों को किसानों के लिए लाभकारी साबित करने पर तुली है। लेकिन यहां सवाल उठ रहा है कि क्या इन कानूनों के लागू होने से किसानों को वाकई किसी तरह का फायदा हो रहा है? इनकी जमीनी हकीकत क्या है? केंद्र सरकार प्रचार तंत्र का उपयोग करके इन सुधार कानूनों की उपादेयता के कसीदे पढ़ रही है। सरकार द्वारा जारी ई-बुकलेट में कुछ किसानों की गाथा का उल्लेख है जिन्हें इन सुधार कानूनों से फायदा हुआ है। वहीं हरियाणा में आलू उत्पादन की अधिकता का खमियाजा कीमत में गिरावट के रूप में आलू उत्पादक किसानों को भुगतना पड़ रहा है।

सरकार की सौ पेज की ई-बुकलेट में जोर देकर उल्लेख किया गया है कि पंजाब, उत्तरी हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक हजार से अधिक आलू उत्पादक किसानों का एक निजी कंपनी के साथ लागत के ऊपर पैंतीस प्रतिशत के लाभ की गारंटी के साथ समझौता हुआ है। जबकि हकीकत में नये कानून लागू होने के बाद आलू की कीमतों में गिरावट देखी गई है, जिससे किसानों को भारी नुकसान की आशंका जतायी जा रही है  जो सरकार के लाभ हासिल करने के दावों को नकारती है। विडंबना यह है कि यह स्थिति भाजपा शासित राज्य में सामने आई है, जिस राज्य में नये सुधार कानूनों की पुरजोर वकालत की जा रही है। इतना ही नहीं, अन्य राज्यों में इन कानूनों से होने वाले लाभ व इनकी खूबियों को बताया जा रहा है जो कानून की सार्थकता के दावों और वास्तविक स्थिति में विरोधाभास को ही उजागर करता है। उल्लेखनीय है कि हरियाणा देश के उन पहले राज्यों में शामिल था जहां इलेक्ट्रानिक ट्रेडिंग पोर्टल यानी नेशनल एग्रीकल्चर मार्केट की शुरुआत की गई थी।


दरअसल, केंद्र सरकार की इस योजना का मकसद किसानों को पूरे देश में अपनी उपज बेचने के लिये सक्षम बनाना था। विडंबना यह है कि चार साल बाद भी नेशनल एग्रीकल्चर मार्केट की शुरुआत पूरी तरह सार्थक नहीं हो पायी है। कहीं न कहीं जागरूकता का अभाव इसके मूल में है, जिसके चलते इच्छित लाभार्थी भी योजना का लाभ नहीं ले पाये। यहां विचारणीय है कि कितने फीसदी किसान अपनी उपज को राज्य से बाहर बेचने के लिये डिजिटल माध्यमों का प्रयोग करने में सक्षम हैं। ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार जिस व्यापक प्रचार के साथ किसानों से जुड़ी योजनाओं को दर्शाती है, जमीनी धरातल पर उन्हें अमली-जामा पहनाना उतना आसान नहीं होता।
योजना का लाभ उठाने से किसान वंचित हो जाते हैं। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रेडियो कार्यक्रम मन की बात में कहा था कि कैसे महाराष्ट्र के एक किसान जितेंद्र भोई ने दो व्यापारियों से अपना बकाया वसूलने के लिये नये कृषि सुधार कानूनों का उपयोग किया। हालांकि, बाद में किसान जितेंद्र कृषि सुधार कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन का समर्थन करते दिखे। उन्होंने मांग की कि किसानों की उपज के लिये एमएसपी की गारंटी सुनिश्चित हो। निस्संदेह किन्हीं भी सुधार कानूनों की उपादेयता इस बात में है कि जमीनी स्तर पर किसानों को कितना लाभ मिलता है। निस्संदेह बाजार में मांग-आपूर्ति के असंतुलन से कृषि उपजों की कीमतों में आने वाले उतार-चढ़ाव से किसानों को संरक्षण दिया जाना जरूरी है, जिससे उन्हें नुकसान से बचाया जा सके। देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य किसान की ढाल की तरह रहा है। ऐसे में नये सुधार कानूनों को विसंगतियों से निरापद नहीं कहा जा सकता। दरअसल, जब तक किसानों को उपज के भंडारण की सुविधा नहीं मिलेगी तब तक मांग व आपूर्ति असंतुलन का नुकसान उन्हें उठाना ही पड़ेगा। इसकी जिम्मेदारी राज्य सरकारों को उठानी चाहिए। ऐसे में नये सुधार कानून कृषि क्षेत्र के संकटों को दूर करने के लिये रामबाण नहीं कहे जा सकते, जिसमें केंद्र को सुधार की गुंजाइश तलाशनी चाहिए।


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