सम्पादकीय

पशुधन की सुरक्षा पर सवाल

Subhi
24 Sep 2022 4:55 AM GMT
पशुधन की सुरक्षा पर सवाल
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उत्तर प्रदेश और हरियाणा सरकार ने गायों के मरने को गंभीरता से लिया, लेकिन राजस्थान सरकार लापरवाह ही देखी गई। जब राजस्थान के पशुपालकों ने विरोध प्रदर्शन शुरू किया तब राज्य सरकार ने जिलाधिकारियों को इसकी रोकथाम के लिए कहा।

अखिलेश आर्येंदु: उत्तर प्रदेश और हरियाणा सरकार ने गायों के मरने को गंभीरता से लिया, लेकिन राजस्थान सरकार लापरवाह ही देखी गई। जब राजस्थान के पशुपालकों ने विरोध प्रदर्शन शुरू किया तब राज्य सरकार ने जिलाधिकारियों को इसकी रोकथाम के लिए कहा। मगर न जिलाधिकारियों ने मुस्तैदी दिखाई और न स्वास्थ्य विभाग ने। जिसके चलते हजारों गाएं मौत का शिकार हो गईं।

राजस्थान में शुरू-शुरू में लंपी विषाणु फैला तो राज्य सरकार ने पशुपालकों को भरोसा दिलाया कि जल्द ही इस पर काबू पा लिया जाएगा। मगर यह फैलते-फैलते देश के सोलह राज्यों में पहुंच गया।

हालांकि केंद्र और राज्य सरकारें इसकी रोकथाम के लिए टीका बनाने की बात कह कर लोगों को न घबराने की सलाह दे रही हैं, लेकिन जिस रफ्तार से बीमारी सारे देश में फैल रही है और गायों के अलावा दूसरे मवेशियों की मौत की वजह बनती जा रही है, उससे पशुपालकों का चिंतित होना स्वाभाविक है।

लोगों में दहशत यह भी फैल रही है कि कहीं गाय और भैंस के दूध में भी लंपी विषाणु का असर तो नहीं है। गौरतलब है राजस्थान में ही लगभग डेढ़ लाख से ज्यादा गाएं संक्रमित हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक साठ हजार से ज्यादा गायों की मौत लंपी से हो चुकी है।

हालांकि गैरसरकारी आंकड़ों में एक लाख से ज्यादा की मौत हो चुकी है। गौरतलब है कि राजस्थान एक दुग्ध उत्पादक राज्य है। लाखों लोगों की आजीविका गायों से चलती है। ऐसे में इस पर नियंत्रण न होना, चिंता की बात है।

लंपी कैप्रिपाक्स परिवार का विषाणु है। पशुओं में यह बीमारी त्वचा संक्रमण के रूप में लगातार फैल रही है। गौरतलब है कि इस बीमारी से पशु में गांठें बन जाती हैं और मक्खी-मच्छर इन पर बैठ कर इस बीमारी को दूसरे जानवरों तक पहुंचाने का काम करते हैं।

राजस्थान में लंपी से सबसे अधिक प्रभावित जिला बाड़मेर है, जहां हजारों की तादाद में गायों की मौत हुई है। अब राजस्थान सीमा से सटे गुजरात के इलाकों में भी लंपी ने छलांग लगाई और देखते ही देखते हजारों गाएं संक्रमित हो गर्इं। कच्छ में हालात ज्यादा खराब हैं। वहां हजारों की संख्या में लंपी से गाएं संक्रमित हैं।

स्थानीय लोगों ने लंपी पर काबू न पाने की वजह गुजरात सरकार के उच्चाधिकारियों और चिकित्सा विभाग की निष्क्रियता को माना है। यहां के किसान अपने बूते ही पशुओं को बचाने में लगे हुए हैं।

गौरतलब है कि राज्य के 1,935 गांवों में लंपी विषाणु फैल चुका है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कच्छ इलाके में पंद्रह सौ से ज्यादा मवेशियों की मौत हो चुकी है। पश्चिमी राजस्थान के तकरीबन हर जनपद की गाय-भैंसें इसकी चपेट में हैं।

गौरतलब है कि इससे दूध का संकट राजस्थान सहित देश के दूसरे राज्यों में भी देखा जाने लगा है। आम आदमी को लगने लगा है कि जो दूध उसे कंपनियां पिला रही हैं वह कहीं लंपी से संक्रमित गाय या भैंस का तो नहीं है।

दरअसल, लंपी कोरोना की तरह लाइलाज बीमारी मानी जा रही है। एहतियात के तौर पर लंपी से बीमार पशुओं को गोट पाक्स के टीके लगाए जा रहे हैं। कहा जा रहा है, इस साल पश्चिमी राजस्थान में सामान्य से ज्यादा बरसात हुई है, जिसके चलते यह बीमारी फैली। मगर यह बीमारी दिल्ली सहित देश के सोलह राज्यों में फैल चुकी है।

ऐसे में यह कहना जल्दबाजी होगी कि लंपी ज्यादा बरसात की वजह से भारत में फैल रही है। सवाल है कि जब तक लंपी विषाणु के पैदा होने और संक्रमण के फैलने पर ठीक-ठीक वैज्ञानिक शोध न आ जाए, इसके बारे में कुछ कहना मुश्किल है।

आमतौर पर पशुओं में मुंहपका और खुरपका बीमारियां बरसात में हुआ करती हैं, लेकिन लंपी अलग किस्म की बीमारी है। इसकी कोई दवा न होने की वजह से जानवरों की मौत आनन-फानन में हो जाती है।

राजस्थान में तीन हजार पांच सौ बाईस गौशालाएं हैं, जिनमें ग्यारह लाख बहत्तर हजार एक सौ बाईस गोवंश पाले जाते हैं। ज्यादातर गोशालाएं गांवों में हैं, इसलिए वहां युद्ध स्तर पर रोकथाम करने की जरूरत है।

दिल्ली में तकरीबन दो सौ मामले लंपी के आ चुके हैं, लेकिन इसे गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। बीमारी फैलने का एक पहलू यह है कि संकर नस्ल की गायों में यह बीमारी ज्यादा तेजी से फैल रही है।

चूंकि देसी नस्ल की गायों को पालना दूध की मात्रा के हिसाब से कम आय वाला माना जाता है, इसलिए राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, गुजरात, उत्तर प्रदेश, दिल्ली सहित ज्यादातर राज्यों के पशुपालक संकर नस्ल की गाय-भैंसें पालना ज्यादा फायदेमंद मानते हैं। मगर देसी किस्म की गायों या भैंसों की अपेक्षा इनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता बेहद कम होती है।

वातावरण के मुताबिक ढलने की क्षमता तो बहुत कम होती है। यही वजह है कि ज्यादा ठंड, गर्मी या बरसात के दिनों में इनकी देखभाल और सुरक्षा का ज्यादा ध्यान करना पड़ता है। अमेरिका में, जहां गाएं मांस उत्पादन के लिए भी पाली जाती हैं, संकर गाएं ही पसंद की जाती हैं। मगर भारत में देसी गाएं अधिक पसंद की जाती रही हैं।

अब देसी गायें घर-परिवार के लिए तो पाली जाती हैं, लेकिन गोशालाओं और रोजगार के नजरिए से संकर नस्ल गायें ही पालना पशुपालक पसंद करते हैं। यही वजह है कि राजस्थान, गुजरात और दिल्ली के पशुपालकों की गाएं जब लंपी से मरने लगीं तो उन्हें चिंता होने लगी।

हजारों रुपए की गाएं लंपी से संक्रमित होकर आनन-फानन में मरने लगीं तो उनका रोजगार ही नहीं छिना, परिवार के आय का जरिया ही खत्म हो गया।

पशुपालकों ने जिलाधिकारी, पशु चिकित्सा विभाग, मंत्री, सांसद और विधायकों से गायों को बचाने के लिए जल्द से जल्द युद्ध स्तर पर कदम उठाने के लिए निवेदन किया, लेकिन आश्वासनों के अलावा उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ।

गौरतलब है कि पिछले दो महीने से ज्यादा वक्त यह तय करने में लग गया कि लंपी की रोकथाम के लिए सबसे मुफीद टीका रहेगा या पशुओं की आम दवाइयां। यह बिडंबना ही है कि लंपी से हजारों गायों के मर जाने के बाद भी इसकी रोकथाम के लिए कोई ऐसा कदम नहीं उठाया गया, जिससे यह रहस्यमय बीमारी काबू में आती।

वहीं, गायों की हजारों की तादाद में मौत और इनकी अंतिम क्रिया न करने की वजह से राजस्थान और गुजरात के कई इलाकों में भयंकर पर्यावरण प्रदूषण फैला है। इस तरफ न तो पर्यावरण संरक्षकों का ध्यान जा रहा है और न सरकार का।

विकास के जिस माडल को लेकर केंद्र और राज्य सरकारें अपनी योजनाएं तय करती हैं, उनमें पशुपालकों और किसानों की समस्याएं क्यों हमेशा सबसे अंत में रखी जाती हैं?

पशुपालकों के लिए गाएं महज एक पशु नहीं, परिवार के सदस्य जैसी होती हैं। क्या परिवार के सदस्य की मौत हो जाने से परिवार टूट नहीं जाता? बिडंबना यह है कि विकास के इस नए माडल में आम आदमी की जिंदगी लंपी जैसी तमाम परेशानियों से जूझने के लिए अभिशप्त क्यों रहता है? किसान-मजदूर उसे अपनी नियति मान उसके खिलाफ सामूहिक लड़ाई क्यों नहीं लड़ पाता, जिससे उनकी जिंदगी बेहतर बन जाए।


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