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- नेतृत्व पर सवाल
उत्तराखंड में जिस तरह भारतीय जनता पार्टी ने पिछले करीब चार महीनों में दो मुख्यमंत्री बदल दिए और अब वहां तीसरे मुख्यमंत्री को कमान सौंपी है, उसे लेकर स्वाभाविक ही सवाल उठ रहे हैं। सवाल तो तब भी उठे थे, जब विधानसभा चुनाव के कुछ महीने रह जाने के बावजूद उसने त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटा कर तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया था। तब कहा गया था कि वहां के ज्यादातर पार्टी विधायक त्रिवेंद्र सिंह रावत के कामकाज से संतुष्ट नहीं थे और उन्हें बदलने की केंद्रीय कमान से गुहार लगा रहे थे। तब तीरथ सिंह रावत को केंद्र से लाकर वहां बिठा दिया गया था। तीरथ सिंह लोकसभा सदस्य हैं और उन्हें वहां मुख्यमंत्री बने रहने के लिए विधानसभा चुनाव जीतना जरूरी था।
यह बात पार्टी शुरू से जानती थी, मगर उन्हें चुनाव नहीं लड़ाया। इसकी असल वजह तो वही जानती है, पर कयास यह लगाए जा रहे हैं कि तीरथ सिंह का वहां खाली किसी सीट से चुनाव जीतना संदेहास्पद था। फिर यह भी कयास है कि न तो वहां के विधायक और न केंद्रीय कमान उनके कामकाज से संतुष्ट थे। अपना पद संभालते ही जिस तरह के विवादास्पद बयान उन्होंने दिए थे, उससे पार्टी को काफी किरकिरी झेलनी पड़ी थी। फिर इस दौरान उन्होंने ऐसा कोई काम नहीं किया, जिससे पार्टी की स्थिति वहां मजबूत होती।
मगर तर्क दिया जा रहा है और जैसा कि तीरथ सिंह रावत ने भी बयान दिया कि संवैधानिक संकट टालने की गरज से पार्टी ने यह फैसला किया है। मगर जिस तरह उन्हें तीन दिन तक दिल्ली में केंद्रीय नेताओं के साथ बैठक करनी पड़ी, वह केवल उनके चुनाव लड़ने या न लड़ने को लेकर हुआ मंथन नहीं माना जा सकता। अब उनकी जगह पुष्कर सिंह धामी को लाया गया है। हालांकि तीरथ सिंह के जाने के कयासों के बीच वहां के कई कद्दावर नेता ख्वाब पाले हुए थे कि उनमें से किसी को यह जिम्मेदारी मिल सकती है। मगर पार्टी ने एक ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाया, जिसने शायद खुद भी न सोचा होगा कि उसे कमान सौंपी जा सकती है। इसके पीछे भाजपा का क्या गणित है, यह वही बेहतर जानती है। उत्तराखंड में विधानसभा के चुनाव को कुछ महीने रह गए हैं, उसमें पुष्कर सिंह किस तरह पार्टी की स्थिति मजबूत कर पाएंगे, या वहां के लोग उन पर कितना भरोसा जता पाएंगे, देखने की बात है।
उत्तराखड की सियासी उठापटक ने एक बार फिर भाजपा के सामने कुछ सवाल खड़े कर दिए हैं, जिनके जवाब देना उसके लिए आसान नहीं है। पूछा जा रहा है कि क्या भाजपा के पास ऐसे नेताओं की कमी है, जिन्हें राज्यों की कमान सौंप कर वह पांच साल तक निश्चिंत रह सके। या फिर वह पार्टी के भीतर सुगबुगा रहे कलह को शांत कर पाने में सफल नहीं हो पा रही है। उत्तराखंड अकेला राज्य नहीं है, जहां उसे नेतृत्व को लेकर पार्टी विधायकों के असंतोष का सामना करना पड़ रहा है। कुछ दिनों पहले ही उत्तर प्रदेश में भी असंतोष शांत करने के लिए उसे काफी मशक्कत करनी पड़ी।
उधर कर्नाटक में भी मुख्यमंत्री के कामकाज पर अंगुलियां उठ रही हैं। मध्यप्रदेश भी अशांत बताया जा रहा है। इससे यह सवाल भी गाढ़ा होता है कि किसी पार्टी के लिए केवल सरकार बना लेना बड़ी उपलब्धि नहीं होती, उसका प्रदर्शन भी भरोसेमंद बनाना जरूरी होता है। बीच में नेतृत्व परिवर्तन से पार्टी की छवि पर नकारात्मक असर पड़ता है।