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जनता से रिश्ता वेबडेस्क। भारत में छात्रों द्वारा आत्महत्याएं किए जाने के आंकड़े काफी खौफनाक होते जा रहे हैं। छात्रों द्वारा आत्महत्या करने के कई कारण हैं जैसे करियर की पसन्द जबरन थोपने, मानसिक अवसाद और फेल होने के डर से जुड़ा सामाजिक कलंक या फिर प्रेम प्रसंग। इसके अलावा उच्च शिक्षा के मामले में आर्थिक समस्या, बेहतर परिणाम आने के बावजूद अच्छी प्लेसमेंट न होना और लगातार घटती नौकरियां भी छात्रों की आत्महत्या की वजह बन रही हैं। आत्महत्या के खौफनाक आंकड़ों से इतना तो स्पष्ट है कि शिक्षण संस्थानों में सब कुछ अच्छा नहीं है। वर्ष 2016 में हैदराबाद सैंट्रल यूनिवर्सिटी में शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या ने तमाम सरकारी तंत्र के सवालों को कठघरे में खड़ा कर दिया था। इस आत्महत्या की गूंज सड़क से संसद तक सुनाई दी थी। देशभर के छात्रों ने रोहित की मौत पर प्रदर्शन किए थे और उसकी मौत को संस्थानिक हत्या करार दिया था। उम्मीदों का भारी दबाव छात्रों के लिए एक गंभीर समस्या बनकर उभरा है लेकिन मौजूदा समय में शिक्षण संस्थानों के हालात भी बहुत हद तक आत्महत्या के लिए जिम्मेदार है।
नया मामला दिल्ली स्थित लेडी श्रीराम कालेज फॉर वूमेन का है जिसकी छात्रा ऐश्वर्या ने आत्महत्या कर ली। तेलंगाना राज्य के रंगा रैड्डी जिला की निवासी 12वीं कक्षा की टॉपर थी। छात्रा उच्च शिक्षा प्राप्त कर सके इसके लिए परिवार वालों ने घर को गिरवी रख दिया था। सुसाइड नोट में उसने लिखा है कि वह अपने परिवार पर बोझ नहीं बनना चाहती और बिना शिक्षा के जीवन नहीं चाहती थी। मार्च में लॉकडाउन लगा था तब से छात्रों को स्कॉलरशिप नहीं मिली थी। एश्वर्या को विज्ञान और प्रोद्यौगिकी मंत्रालय द्वारा इंस्पायर छात्रवृत्ति मिल रही थी। छात्रा के पास इंटरनेट कनैक्शन नहीं था और न ही लैपटॉप था इसलिए वह ऑनलाइन क्लास नहीं ले सकती थी। लैपटाप और इंटरनेट न होने के कारण छात्रा के पास अध्ययन सामग्री भी उपलब्ध नहीं थी, जिसके कारण वो काफी परेशान थी। छात्र संगठन का कहना है कि कालेज प्रबंध समिति को कई बार ई-मेल भेजे गए लेकिन सभी व्यर्थ गए क्योंकि उन्हें कभी भी सही रिस्पांस मिला ही नहीं। छात्रवृत्ति की देरी के कारण परिश्रमी छात्रा, जो आर्थिक तौर पर कमजोर पृष्ठभूमि से थी, मानसिक रूप से दबाव में आ गई। पहले जूनियर रिसर्च फैलोशिप और सीनियर रिसर्च फैलोशिप थी जिनसे छात्रों को आर्थिक मदद मिलती थी इसका अर्थ यही है कि सिस्टम ने एक और छात्रा को निगल लिया लेकिन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने इन्हें भी भंग कर दिया है। प्रश्न व्यवस्था का है। छात्रा ने आर्थिक परेशानी के चलते मौत को गले लगाया। कालेज छात्रायें न्याय की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रही हैं और छात्रा की मौत को संस्थागत हत्या करार दे रही हैं। लॉकडाउन के दौरान जून में ही तिरुअनंतपुरम की दसवीं की छात्रा को ऑनलाइन क्लास में एक्सेस न मिलने के कारण आत्महत्या की खबर आई थी। छात्रा के घर का टेलीविजन खराब था। गरीबी के चलते छात्रा के पास लैपटॉप या स्मार्ट फोन नहीं था। राष्ट्रीय प्रवेश एवं पात्रता परीक्षा में खराब प्रदर्शन के भय से तमिलनाडु के मुदराई में 19 वर्ष की परीक्षार्थी ने परीक्षा से पहले ही आत्महत्या कर ली थी। दुःख तो इस बात का है कि छात्रों के पास सफलता अर्जित करने के लिए बहुत से अवसर हैं और उनके द्वारा आत्महत्या किया जाना हृदय विदारक है। आत्महत्या कोई समाधान नहीं है बल्कि यह तो संकटों का सामना करने की बजाय जीवन से पलायन है।
एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2014 में 8068 छात्रों ने आत्महत्या की तो वहीं 2015 में 8934 छात्रों ने जान दे दी। वर्ष 2016 में 9474 छात्रों ने मौत को गले लगाया तो वहीं वर्ष 2017 में यह आंकड़ा 4.5 प्रतिशत बढ़ कर 9505 तक पहुंच गया। 2018 में यह आंकड़ा और भयावह हो गया और दस हजार को पार कर गया। पिछले दो वर्षों के अधिकारिक आंकड़े पहले से कहीं अधिक खौफनाक होंगे। छात्र मानसिक अवसाद से गुजर रहे हैं। कठिन प्रवेश परीक्षा, संस्थानों में कम सीटें, अलगाव, बढ़ती बेरोजगारी बड़े तनाव का कारण हैं। लॉकडाउन ने तो बड़ों-बड़ों की आर्थिक स्थिति डांवाडोल कर दी है। आज के दौर में शिक्षण संस्थानों में गरीबों, दलितों और अल्पसंख्यक वर्ग के छात्रों से दुर्भावना पूर्ण व्यवहार भी होता है। इसके चलते छात्रों को उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है।
लेडी श्रीराम कालेज की छात्रा एश्वर्या चाहती तो उसके साथ पढ़ने वाली छात्राओं से मदद ले सकती थी लेकिन बच्चे अपनी परेशानी भी तो किसी को नहीं बताते। उच्च शिक्षण संस्थानों को व्यवस्थागत खामियों को भी दूर करना होगा। अगर उसे स्कॉलरशिप ठीक समय पर मिलती तो वह अपना जीवन सामान्य ढंग से चला सकती थी। छात्रों को यह समझना होगा कि संकट की स्थिति में उन्हें खुद को मजबूत बनाये रखना होगा। एक नाकामी ही जीवन को खत्म नहीं कर देती। जीवन तो सतत संघर्ष का नाम है। अभिभावकों और शिक्षकों को चाहिए कि वह काउंसलिंग कर छात्रों में जागरूकता पैदा करें। छात्रों ने आत्महत्या को तो जीवन से पलायन का आसान रास्ता बना लिया है, जो समाज के लिए अच्छा नहीं है। केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को अपने सिस्टम को सुधारना होगा अन्यथा युवा पीढ़ी हताशा में आत्महत्या करती रहेगी।