सम्पादकीय

पुलिस पर सवाल

Subhi
28 Oct 2021 12:50 AM GMT
पुलिस पर सवाल
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लखीमपुर खीरी मामले में एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश पुलिस को कड़ी फटकार लगाई है। इस घटना को करीब चौबीस दिन हो गए, मगर अभी तक पुलिस ने ठीक से चश्मदीदों का बयान भी दर्ज नहीं किया है।

लखीमपुर खीरी मामले में एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश पुलिस को कड़ी फटकार लगाई है। इस घटना को करीब चौबीस दिन हो गए, मगर अभी तक पुलिस ने ठीक से चश्मदीदों का बयान भी दर्ज नहीं किया है। इस पर अदालत ने हैरानी जताई कि घटना स्थल पर हजारों की तादाद में लोग मौजूद थे, मगर पुलिस को अभी तक केवल तेईस चश्मदीद ही क्यों मिल पाए। अदालत ने जांच में तेजी लाने का निर्देश दिया है।

दरअसल, घटना के दिन से ही उत्तर प्रदेश पुलिस की जिस तरह आरोपियों को बचाने की मंशा नजर आने लगी थी, उससे इस घटना को लेकर निष्पक्ष जांच पर संदेह जताया जाने लगा था। मगर जब सर्वोच्च न्यायालय ने इस घटना का स्वत: संज्ञान लिया और उत्तर प्रदेश पुलिस को तत्काल सारे साक्ष्य पेश करने का आदेश दिया तब पुसिल हरकत में आई। फिर भी दो बार फटकार के बाद ही मुख्य आरोपी को गिरफ्तार किया जा सका। दरअसल, इस घटना के पीछे केंद्रीय गृह राज्यमंत्री का बेटा मुख्य आरोपी है, इसलिए पुलिस की जांच पर सवाल उठते रहे हैं। विपक्षियों और किसान नेताओं की आपत्ति बनी हुई है कि जब तक गृह राज्यमंत्री अपने पद पर बने रहेंगे, तब तक इस जांच की निष्पक्षता को लेकर संदेह बना रहेगा। मगर केंद्र सरकार ने उन्हें हटाने की कोई पहल नहीं की है।
इस घटना पर उत्तर प्रदेश पुलिस की जांच को लेकर सवाल कई हैं। जो लोग इस घटना में घायल हो गए, उनसे अब तक पुलिस ने बयान दर्ज नहीं किया है। जिन तेईस लोगों के बयान दर्ज करने का उसने हवाला दिया है, वह भी सर्वोच्च न्यायालय की डांट के बाद ही उसने दर्ज किए हैं। पिछली तारीख पर सिर्फ चार लोगों के बयान दर्ज होने की बात उसने स्वीकार की थी। अदालती फटकार के बाद उसने बाकी उन्नीस लोगों के बयान दर्ज किए हैं।
मगर उस घटना की जो तस्वीरें सामने आर्इं, उनमें अगली धार में चल रहे लोगों, जैसे किसान नेता विर्क और उनके साथियों, का बयान पुलिस ने अदालत की ताजा फटकार तक दर्ज नहीं किया था। उनमें से कई किसान नेता दूसरे राज्यों के हैं, जो इलाज कराने के बाद अपने घर लौट चुके हैं। उनका भी बयान लिया जाना चाहिए था। मगर हैरानी की बात है कि उत्तर प्रदेश पुलिस ने इसे जरूरी क्यों नहीं समझा। सुनवाई के समय एक पीड़ित परिवार की तरफ से, स्वतंत्र रूप से पेश हुए वकील ने अदालत से गुहार लगाई कि उस घटना में मारे गए एक व्यक्ति की पत्नी को बयान देने से रोकने के लिए डराया-धमकाया जा रहा है।
यानी जाहिर है कि पुलिस ने जिन लोगों के बयान दर्ज किए हैं, उनकी निष्पक्षता पर भी संदेह है। मगर सर्वोच्च न्यायालय से उत्तर प्रदेश पुलिस की कारगुजारियां छिपी नहीं हैं। अदालत को यह भी पता है कि इस मामले में दस्तावेजों, सबूतों आदि को मिटाने के उच्च स्तरीय प्रयास भी हो सकते हैं। इसलिए वह लगातार उत्तर प्रदेश पुलिस के कामकाज पर नजर बनाए हुए है और उसके रवैए से जाहिर है कि वह किसी भी रूप में इस घटना के पीड़ितों को न्याय से वंचित नहीं होने देना चाहती। अदालत की इस कड़ाई से स्वाभाविक ही केंद्र और राज्य दोनों सरकारों के सामने भी मुश्किलें खड़ी हो गई हैं। अगर सरकारें इसी तरह जांच को प्रभावित करने या पुलिस पर लीपापोती करने का दबाव बनाए रखेंगी, तो उन्हें और किरकिरी झेलनी पड़ सकती है।

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