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- निष्पक्षता पर सवाल:...
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। मध्य प्रदेश का हालिया उपचुनाव आचार संहिता के उल्लंघन और अापत्तिजनक बयानबाजियों के लिये सुर्खियों में रहा है। राजनेताओं की फिसलती जुबान और फिर यह कहने की परंपरा पुरानी है कि उनका यह मंतव्य नहीं था। कुछ मामलों में चुनाव आयोग कार्रवाई करता भी है लेकिन आम धारणा है कि केंद्र में सत्तारूढ़ दल के प्रति आयोग का रवैया उदार रहता है। निस्संदेह आयोग को इस तरह की आलोचनाओं का सामना करना चाहिए और अपनी विश्वसनीयता बनाये रखने के प्रति संवेदनशील रहना चाहिए क्योंकि भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद चुनाव कराने वाली प्रतिनिधि संस्था चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर टिकी है। हाल ही में मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व वरिष्ठ कांग्रेसी नेता कमलनाथ विवादों में रहे। यह मामला एक महिला नेत्री को लेकर व्यक्त किये गये उनके अभद्र संबोधन को लेकर था, जिस पर खासा राजनीतिक विवाद हुआ। जिसकी चुनाव आयोग से शिकायत भी की गई। निस्संदेह कोरोना काल में चुनाव को सुरक्षा और संक्रमण रोकने के प्रयासों के बीच कराना बड़ी चुनौती रहा है। इसी चुनौती के साथ बिहार विधानसभा और मध्य प्रदेश समेत कई राज्यों के उपचुनाव भी शामिल रहे। इसी बीच कमलनाथ की विवादित टिप्पणी पर राज्य सरकार ने चुनाव आयोग से शिकायत की। आयोग ने इस मामले में कार्रवाई करते हुए कमलनाथ का कांग्रेस पार्टी में स्टार प्रचारक का दर्जा छीन लिया। इस निर्णय को राजनीतिक दबाव में लिया गया निर्णय बताते हुए पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने देश की शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया था। इसके उपरांत सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग के उस आदेश पर रोक लगा दी, जिसमें पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के स्टार प्रचारक के दर्जे को रद्द किया गया था। दरअसल, अदालत की प्रतिक्रिया थी कि इस कार्रवाई में पूरी प्रक्रिया का निर्वहन नहीं हुआ। साथ ही आयोग की कार्रवाई पर सवाल उठाया गया कि किसी राजनीतिक दल के ऐसे निर्णयों पर क्या आयोग को दखल देने का अधिकार है? दरअसल, कमलनाथ द्वारा भाजपा प्रत्याशी इमरती देवी के खिलाफ की गई आपत्तिजनक टिप्पणी को पार्टी ने लपक लिया। यहां तक कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह इसके विरोध में हुए कार्यक्रम में भागीदारी करते नजर आये। दरअसल, महिलाओं से जुड़े संवेदनशील मुद्दे को चुनाव अभियान में राजनीतिक हथियार बनाने की कोशिश हुई। वहीं चुनाव आयोग का आरोप रहा है कि कमलनाथ ने बार-बार आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन किया है। साथ ही इस बाबत जारी एडवाइजरी को पूरी तरह अस्वीकृत कर दिया। वहीं दूसरी ओर पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ का आरोप था कि आयोग ने बिना कारण बताओ नोटिस जारी किये तथा बिना शिकायत की सुनवाई किये ही उनके खिलाफ कार्रवाई कर दी। मामले में सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने चुनाव आयोग से पूछा कि आयोग इस बात का निर्धारण कैसे करेगा कि किसी राजनीतिक दल का नेता कौन होगा? वहीं चुनाव आयोग का कहना था कि वादी की दलीलें निष्प्रभावी हैं क्योंकि फैसला चुनाव अभियान को प्रभावित नहीं करता। बहरहाल यह पहला मौका नहीं है जब चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन के मामलों पर चुनाव आयोग द्वारा सत्तारूढ़ दल के पक्ष में उदारता दिखाने के आरोप लगे हों। निस्संदेह चुनाव आयोग को इस तरह के आरोपों से सतर्क रहने और पक्षपातपूर्ण कहे जाने वाले फैसलों से बचने की जरूरत है। सही मायनो में यदि चुनाव आयोग सभी तरह की शिकायतों से निपटने के लिये एक जैसे मानकों को अपनाता है तो किसी भी पक्ष को उसके फैसलों पर संदेह करने का मौका नहीं मिलेगा। उल्लेखनीय है कि इस साल की शुरुआत में चुनाव आयोग ने भाजपा को आदेश दिया था कि वह विवादित भाषणों के चलते दिल्ली विधानसभा के चुनाव में स्टार प्रचारकों की लिस्ट में से कुछ नेताओं के नाम हटाये। साथ ही चुनाव आयोग ने कुछ दिनों के लिये ऐसे नेताओं को चुनाव प्रचार करने तक से रोक दिया था क्योंकि नोटिस के जवाब में उनके तर्क असंतोषजनक पाये गये थे। निस्संदेह ऐसी प्रक्रिया कमलनाथ के मामले में नहीं दोहरायी गई। तभी उन्होंने अदालत का दरवाजा खटखटाया। ऐसे में आयोग से निष्पक्ष व्यवहार की उम्मीद की जानी चाहिए।